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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

...वही राह है सही !

अय  हमसुख़न  वफ़ा  का  तकाज़ा  है  अब  यही
हर  ज़ोर-ज़ुल्म  के   बरक्स   सर    उठा  के  जी

मुफ़्ती - ओ - मौलवी -ओ- बरहमन   बुरे   नहीं
लेकिन    जो  दिल  दिखाए    वही  राह   है  सही

इबरत     हमें   मिली   है     तजुर्बाते - ज़ीस्त  से
करती   है     जी   ख़राब    तमन्ना    कभी-कभी

दिल  में    हज़ार  दाग़    छुपा  कर    जिया  किए
इल्ज़ाम  दें    किसे    कि  तलाफ़ी   न   हो   सकी

तकरीरे - रहबरां    में    बला   की     थी   गर्मियां
अफ़सोस  !    मगर  भूख    कहीं   मुद्द'आ  न  थी

सरकार   की    नज़र   में    इबादत     गुनाह   थी
फिर   काफ़िरों   ने    पाई   सज़ा  किस  क़ुसूर  की

सामान    मिरे    क़त्ल    का    तैयार    कर  लिया
हुक्काम  को    ख़ुदा  से   इजाज़त  न  मिल  सकी !

                                                                                                (2015)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल  

(मशहूर पाकिस्तानी शायर जनाब नासिर काज़मी साहब मरहूम की ज़मीन, ' अय  हमसुख़न  वफ़ा  का  तकाज़ा  है  अब  यही' पर कही हुई ग़ज़ल)

शब्दार्थ: हमसुख़न: समान मत रखने वाले; वफ़ा: आस्था; तकाज़ा: आग्रह; ज़ोर-ज़ुल्म: अन्याय और अत्याचार; बरक्स: समक्ष; मुफ़्ती: धार्मिक मामलों में राय देने वाले, मौलवी: धर्म-ग्रंथ पढ़ाने वाले; बरहमन: ब्राह्मण, ब्रह्म-ज्ञानी; इबरत: सीख, शिक्षा; तजुर्बाते - ज़ीस्त: जीवन के अनुभव; जी: मन; तमन्ना: अभिलाषा; दाग़: दोष; इल्ज़ाम: आरोप; तलाफ़ी: पाप-मुक्ति; तकरीरे - रहबरां: नेताओं के भाषण; बला: अत्यधिक; गर्मियां: ऊर्जाएं; अफ़सोस: खेद;  मुद्द'आ: विचार का विषय; इबादत: पूजा-प्रार्थना; गुनाह: अपराध; काफ़िरों: नास्तिकों; क़ुसूर: दोष; क़त्ल: वध; हुक्काम: अधिकारियों;  इजाज़त: अनुमति । 

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