सियासत-सियासत न खेला करो
सुख़न का सही वक़्त देखा करो
किसी दिन क़सम से, चले आएंगे
हमें यूं न पैग़ाम भेजा करो
झुलस जाएंगी आपकी उंगलियां
न यूं राख़ दिल की कुरेदा करो
शबे-वस्ल है मस'अला रूह का
सरे-बज़्म क़िस्सा न छेड़ा करो
जहां रूह को रौशनी मिल सके
उसी शह् र में अब बसेरा करो
ख़ुदा अब किसी पर मेह् रबां नहीं
ज़ेह् न में नई सोच पैदा करो
इधर रिज़्क़ है तो इबादत उधर
कहां तक सुबह-शाम फेरा करो !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: सियासत: राजनीति; सुख़न: अभिव्यक्ति; पैग़ाम: संदेश; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; मस्अला: विषय; सरे-बज़्म: भरी सभा में;
मेह् रबां: कृपालु; ज़ेह् न: मस्तिष्क; रिज़्क़: आजीविका; इबादत: पूजा-पाठ; फेरा: चक्कर काटना ।
सुख़न का सही वक़्त देखा करो
किसी दिन क़सम से, चले आएंगे
हमें यूं न पैग़ाम भेजा करो
झुलस जाएंगी आपकी उंगलियां
न यूं राख़ दिल की कुरेदा करो
शबे-वस्ल है मस'अला रूह का
सरे-बज़्म क़िस्सा न छेड़ा करो
जहां रूह को रौशनी मिल सके
उसी शह् र में अब बसेरा करो
ख़ुदा अब किसी पर मेह् रबां नहीं
ज़ेह् न में नई सोच पैदा करो
इधर रिज़्क़ है तो इबादत उधर
कहां तक सुबह-शाम फेरा करो !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: सियासत: राजनीति; सुख़न: अभिव्यक्ति; पैग़ाम: संदेश; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; मस्अला: विषय; सरे-बज़्म: भरी सभा में;
मेह् रबां: कृपालु; ज़ेह् न: मस्तिष्क; रिज़्क़: आजीविका; इबादत: पूजा-पाठ; फेरा: चक्कर काटना ।
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