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सोमवार, 8 जून 2015

मैकदे में सुब्ह हो ...

जिस  शह्र  में   हर  किसी  की   आरज़ू  नाकाम  हो
क्यूं  न  फिर  उस  शह्र  की  आबो-हवा  बदनाम  हो

ख़ुशनसीबी   पर   हमें    उस   रोज़  आएगा   यक़ीं
जब    हमारे   हाथ   में   महबूब   का    पैग़ाम   हो

हम   न  चाहेंगे   हमारी   हिज्र  में  हो  मौत,  फिर
आपके  सर  पर   हमारे   क़त्ल  का  इल्ज़ाम  हो

बे-ख़याली   में   हमारी   बात   ही   कुछ   और  है 
मैकदे  में   सुब्ह   हो   तो   दैर   में   हर   शाम  हो

हर   नए     हिंदोस्तानी    का    यही    ईमान    है 
नाम  अहमद  का  ज़ेह्न  में  और  दिल  में  राम  हो

शाह  का  तख़्ता   पलट  देंगे   किसी  दिन,   देखना
फिर  भले  ही  इस  मुहिम  का  मौत  ही  अंजाम  हो

सामने  आ  कर  किसी  दिन  तब्सिरा  भी  कीजिए
क्यूं   हमें   इस्लाह   हर   दम    सूरते-इल्हाम   हो  !

                                                                                          (2015)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: आरज़ू: अभिलाषा; नाकाम: असफल; आबो-हवा: पर्यावरण; बदनाम: कलंकित; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; यक़ीं: विश्वास;  महबूब: प्रिय;  पैग़ाम: संदेश; हिज्र: वियोग; क़त्ल: हत्या; इल्ज़ाम: आरोप; बे-ख़याली: आत्म-विस्मृति; मैकदे: मदिरालय; दैर: पूजाघर; ईमान: आस्था; अहमद: इस्लाम के अंतिम पैग़ंबर, हज़रत मोहम्मद स.अ.व. का दूसरा नाम; ज़ेह्न : मस्तिष्क; तख़्ता: राजासन; मुहिम: अभियान; अंजाम: परिणाम;  तब्सिरा: समीक्षा;  इस्लाह: परामर्श, अशुद्धियां बताना और उन्हें दूर करना; सूरते-इल्हाम: आकाशवाणी के रूप में । 




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