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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

ज़रा ज़िंदगी ही सही !

दिल्लगी  है  तो  ये:   दिल्लगी  ही  सही
आज  के  दिन  तुम्हारी  ख़ुशी  ही  सही

हम  न छोड़ेंगे  दामन  ख़ुदा  की  क़सम
ज़िद  हमारी  नहीं  तो  किसी  की  सही

दिल  चुरा लाए  हैं   बिन  कहे   आपका
ख़्वाब  में  एक  दिन  बदज़नी  ही  सही

हिज्र   ही   है   इलाजे-ग़मे-दिल   अगर
इस    मुदावात    में    बेरुख़ी   ही  सही

इन्क़िलाबी    हवाएं      मचलने   लगीं
मुल्क  में  इन दिनों  ख़लबली ही  सही

दस्तबस्ता     खड़े  हैं    तेरी  बज़्म  में
इश्क़  हो   या  न  हो    बंदगी  ही  सही

हैं  अगरचे  ख़फ़ा  वो:  ग़ज़ल   पे  मेरी
चंद   अल्फ़ाज़  की  ख़ुदकुशी  ही  सही

लौट  आए  हैं  ये:  सोच कर  ख़ुल्द  से
साथ    तेरे   ज़रा    ज़िंदगी    ही  सही  !

                                                    ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिल्लगी: परिहास; दामन: आंचल, साथ; बदज़नी: बुरा काम; हिज्र: वियोग; इलाजे-ग़मे-दिल: हृदय के दु:ख का उपचार; 
मुदावात: चिकित्सा-क्रम; बेरुख़ी: उपेक्षा; इन्क़िलाबी: क्रांतिधर्मा; दस्तबस्ता: कर बद्ध; बज़्म: सभा; बंदगी: भक्ति; अगरचे: यदि कहीं; 
ख़फ़ा: रुष्ट; चंद  अल्फ़ाज़: कुछ शब्द; ख़ुदकुशी: आत्मनाश; ख़ुल्द: स्वर्ग। 

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