आदाब अर्ज़, दोस्तों
आज 2 जनवरी है, कॉम . सफ़दर हाशमी का यौम-ए-शहादत।
आज से 26 बरस पहले कॉम . सफ़दर हाशमी को कुछ .गुंड़ों ने जो अपने-आप को कांग्रेसी बताते थे, मुल्क की राजधानी दिल्ली में हज़ारों सामईन की आँखों के सामने , सर-ए-आम शहीद कर दिया था। कॉमरेड सफ़दर उस वक़्त अपना मशहूर नुक्कड़ नाटक 'हल्ला बोल' खेल रहे थे।
बोलने की आज़ादी के लिये इस दौर में शहादत देने वालों में कॉमरेड सफ़दर पहले सिपाही थे।
आज मैं जो ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ वो: हालाँकि कॉम . सफ़दर की शहादत से तक़रीबन 10 बरस पहले, एमरजेन्सी के दिनों में कही गई थी और उसी बरस हिन्दोस्तान के यौम-ए-आज़ादी पर यानी 15 अगस्त,1986 को भोपाल से छपने वाले रोज़नामे 'देशबंधु' में शाया हुई थी। मैं उन दिनों इसी अख़बार के एडिटोरियल महक़मे में मुलाजिम था।इत्तेफ़ाक़न, ये: मेरी कही पहली ग़ज़ल भी है।
आइये, आज फिर आज़ाद हिन्दोस्तान में बोलने की आज़ादी की बहाली के लिए अपनी शहादत देने वाले कॉमरेड सफ़दर हाशमी को अपनी ख़ेराज-ए-अक़ीदत पेश करें:
परिंदे ! तौल पर ऊंची उड़ानों को
दिखा दे अपनी ताक़त आसमानों को
चहक, फिर तार सप्तक से उठा पंचम
बग़ावत की ज़ुबां दे बेज़ुबानों को
बहुत मुश्किल सही, पर जंग लाज़िम है
दिखा जौहर वतन के हुक्मरानों को
लहू के रंग से रंग दे तवारीखें
भुला दे क्रांति के झूठे फ़सानों को
तेरी हस्ती इसी में है, ज़माने से
मिटा दे ज़ुल्म के काले निशानों को।
(अगस्त, 1976)
-सुरेश स्वप्निल
आज 2 जनवरी है, कॉम . सफ़दर हाशमी का यौम-ए-शहादत।
आज से 26 बरस पहले कॉम . सफ़दर हाशमी को कुछ .गुंड़ों ने जो अपने-आप को कांग्रेसी बताते थे, मुल्क की राजधानी दिल्ली में हज़ारों सामईन की आँखों के सामने , सर-ए-आम शहीद कर दिया था। कॉमरेड सफ़दर उस वक़्त अपना मशहूर नुक्कड़ नाटक 'हल्ला बोल' खेल रहे थे।
बोलने की आज़ादी के लिये इस दौर में शहादत देने वालों में कॉमरेड सफ़दर पहले सिपाही थे।
आज मैं जो ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ वो: हालाँकि कॉम . सफ़दर की शहादत से तक़रीबन 10 बरस पहले, एमरजेन्सी के दिनों में कही गई थी और उसी बरस हिन्दोस्तान के यौम-ए-आज़ादी पर यानी 15 अगस्त,1986 को भोपाल से छपने वाले रोज़नामे 'देशबंधु' में शाया हुई थी। मैं उन दिनों इसी अख़बार के एडिटोरियल महक़मे में मुलाजिम था।इत्तेफ़ाक़न, ये: मेरी कही पहली ग़ज़ल भी है।
आइये, आज फिर आज़ाद हिन्दोस्तान में बोलने की आज़ादी की बहाली के लिए अपनी शहादत देने वाले कॉमरेड सफ़दर हाशमी को अपनी ख़ेराज-ए-अक़ीदत पेश करें:
परिंदे ! तौल पर ऊंची उड़ानों को
दिखा दे अपनी ताक़त आसमानों को
चहक, फिर तार सप्तक से उठा पंचम
बग़ावत की ज़ुबां दे बेज़ुबानों को
बहुत मुश्किल सही, पर जंग लाज़िम है
दिखा जौहर वतन के हुक्मरानों को
लहू के रंग से रंग दे तवारीखें
भुला दे क्रांति के झूठे फ़सानों को
तेरी हस्ती इसी में है, ज़माने से
मिटा दे ज़ुल्म के काले निशानों को।
(अगस्त, 1976)
-सुरेश स्वप्निल
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