बज़ाहिर है मोहब्बत, बस हमें कहना नहीं आता
मगर ख़ामोश रह कर दर्द भी सहना नहीं आता
तेरी उम्मीद के सदक़े, जिए जाते हैं सदियों से
हमें रो-रो के हाल-ए-दिल बयां करना नहीं आता
मेरे नज़दीक आने की क़वायद पस्त कर देगी
तुझे मेरी तरह जज़्बात में बहना नहीं आता
कटी है उम्र सारी दामन-ए-ग़ुरबत में ख़ुश रह के
हमें दरबार- ए -शाही में खड़े रहना नहीं आता
जनाब-ए-शैख़ से अपनी निगाहें चार हों क्यूँ कर
उन्हें उठना नहीं आता, हमें झुकना नहीं आता।
( 1 जन . 2013)
-सुरेश स्वप्निल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें