मेरी सफ़ में खड़ा हो ले यहाँ काफ़ी जगह है
दिल-ए-महबूब इक मासूम बच्चे की तरह है
तुलू होता है अन्वर मोमिनो रुख़सार-ए-लैला पे
हमारे जज़्बा-ए-इश्क़-ए-बुतां की ये: फतह है
किसी को उज्र क्या गर हो ख़ुदा बुत में मनाज़िर
अक़ीदत पे ये: हंगामा-ए-शरिया बे-वजह है
मैं हिंदू हूँ तो क्यूं कर ग़ैर हूँ मुस्लिम तो क्यूं तेरा
मेरे ईमां पे आख़िर किसलिए इतनी जिरह है
न यूं तो नब्ज़ चलती है न दिल धड़के है अपना
ख़याल-ए-यार भी क्या ख़ूब जीने की वजह है
अगर हम हैं तो दोनों हैं नहीं हैं तो न तू न मैं
निज़ाम-ए-ख़ल्क़ क़ायम है के दोनों में सुलह है
ख़ुदा ग़ारत न कर देता हमें जो कुफ़्र कहते
हमारे हर बयां पे इस हक़ीक़त की गिरह है।
(2007)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: सफ़: (नमाज़ पढ़ते समय लगाई जाने वाली) पंक्ति; दिल-ए-महबूब: प्रेमी/ईश्वर का हृदय; मासूम: अबोध; तुलू: उदित;
अन्वर: सूर्य; मोमिनो: आस्थावानों; रुख़सार-ए-लैला: काली रात के गाल, प्रेमिका; जज़्बा-ए-इश्क़-ए-बुतां: मूर्त्ति-पूजा-प्रेम/ मानवीय प्रेम की भावना; उज्र: आपत्ति; गर: यदि; बुत: मूर्त्ति; मनाज़िर: प्रकट; अक़ीदत: आस्था, धार्मिक विश्वास; हंगामा-ए-शरिया: धार्मिक विधान-वादियों का उत्पात; बे-वजह: अकारण; ईमां: धार्मिक विश्वास, आस्था; जिरह: तर्क-वितर्क; ख़याल-ए-यार: प्रिय का चिंतन; निज़ाम-ए-ख़ल्क़: सृष्टि का विधान; क़ायम: यथावत; सुलह: संधि; ग़ारत: नष्ट; कुफ़्र: ईश्वर-विरोधी बात; बयां: निवेदन; हक़ीक़त: यथार्थ; गिरह: ग्रंथि, बंध ।
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