ज़ईफ़ी भी अजब शै है न मरने में न जीने में
उम्मीदो - ओ - आरज़ू का एक क़ब्रिस्तान सीने में
हटो ये: दिल्लगी अपने किसी हम-उम्र से कीजो
यहाँ धेली नहीं बाक़ी हरारत के दफ़ीने में
जवानी में मिले होते तुम्हें पामाल कर देते
सुनाएँ क्या ग़ज़ल लेकिन मुहर्रम के महीने में
पिया करते थे जाम- ए - इश्क़ जी भर के जवानी में
मगर अब कट रही है उम्र जाम - ए - अश्क़ पीने में
मियां हम तो चले अब आप जानें अंजुमन जाने
बड़े साहब ने मिलने को बुलाया है मदीने में।
(2002)
-- सुरेश स्वप्निल
क्या बात!
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