कई दिनों से बुझे-बुझे हैं किसी वजह से सनम हमारे
ये: उनकी बेचैनियां अल्ल: अल्ल: बढ़ा रही हैं वहम हमारे
ख़ुदा में देखी तुम्हारी सूरत, तुम्हें सराहा ख़ुदा समझ के
खड़े हैं राह-ए-अज़ल में तन्हा, न वो: हमारे न तुम हमारे
कहा था इनसे के: ज़ब्त कर लें, किसी प' ज़ाहिर न हो हालत-ए-दिल
मगर बड़े बेवफ़ा हैं साहब, मुकर गए चश्म-ए-नम हमारे
भुला न पाएंगे ताक़यामत ये: आब-ए-ज़मज़म सी पाक आँखें
के: इनकी शफ़क़त में धुल गए हैं तमाम दर्द-ओ-'अलम हमारे
बहुत संभाला है हमने ख़ुद को, न जी सकेंगे हिजाब में अब
सुनी है जब से सदा-ए -मूसा बहक रहे हैं क़दम हमारे।
(2011)
- सुरेश स्वप्निल
ये: उनकी बेचैनियां अल्ल: अल्ल: बढ़ा रही हैं वहम हमारे
ख़ुदा में देखी तुम्हारी सूरत, तुम्हें सराहा ख़ुदा समझ के
खड़े हैं राह-ए-अज़ल में तन्हा, न वो: हमारे न तुम हमारे
कहा था इनसे के: ज़ब्त कर लें, किसी प' ज़ाहिर न हो हालत-ए-दिल
मगर बड़े बेवफ़ा हैं साहब, मुकर गए चश्म-ए-नम हमारे
भुला न पाएंगे ताक़यामत ये: आब-ए-ज़मज़म सी पाक आँखें
के: इनकी शफ़क़त में धुल गए हैं तमाम दर्द-ओ-'अलम हमारे
बहुत संभाला है हमने ख़ुद को, न जी सकेंगे हिजाब में अब
सुनी है जब से सदा-ए -मूसा बहक रहे हैं क़दम हमारे।
(2011)
- सुरेश स्वप्निल
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