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बुधवार, 26 दिसंबर 2012

मेरे माशूक़ का चेहरा


हवा  चलती  है  बस्ती  में   तो   सारा  जिस्म  जलता  है
हम  अपनी  कैफ़ियत  किसको  बताएं,  दिल  दहलता  है

हमें  तोहमत  न   दें ,  हमने  वफ़ा   हर  हाल  में   की  है
ये:  उनकी  बात  है   जिनकी  अदा   पे   वक़्त   चलता  है

सुबह  से  हब्स  का  आलम    बुझाता   है   उम्मीदों   को
विसाल-ए-यार   के   दिन   शम्स  रो-रो  के  निकलता  है

अजब सी  कारसाज़ी है,  निगाह-ए-नाज़-ए-मोहसिन  की
कहीं   रहमत   बरसती   है     कहीं   घर-बार  जलता  है

अभी   हम   हाल   में   हैं ,   गुफ़्तगू   आगे   कभी  कीजे
अभी  बस   देखते  रहिये  के:  कब    आलम  बदलता  है

तेरी   हम्द-ओ-सना   के  वास्ते    मस्जिद   न  आऊंगा
मेरे   माशूक़   का   चेहरा    तेरी  सूरत  से    मिलता  है

तुम्हारे  नाम  से   बेहतर    कोई   मौजूं    नहीं   या  रब
तुम्हारे   इज़्म   से   मेरे  सुख़न  को   नाम  मिलता  है।

                                                                   (1996)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-09-2014) को "उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए" (चर्चा मंच 1730) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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