हवा चलती है बस्ती में तो सारा जिस्म जलता है
हम अपनी कैफ़ियत किसको बताएं, दिल दहलता है
हमें तोहमत न दें , हमने वफ़ा हर हाल में की है
ये: उनकी बात है जिनकी अदा पे वक़्त चलता है
सुबह से हब्स का आलम बुझाता है उम्मीदों को
विसाल-ए-यार के दिन शम्स रो-रो के निकलता है
अजब सी कारसाज़ी है, निगाह-ए-नाज़-ए-मोहसिन की
कहीं रहमत बरसती है कहीं घर-बार जलता है
अभी हम हाल में हैं , गुफ़्तगू आगे कभी कीजे
अभी बस देखते रहिये के: कब आलम बदलता है
तेरी हम्द-ओ-सना के वास्ते मस्जिद न आऊंगा
मेरे माशूक़ का चेहरा तेरी सूरत से मिलता है
तुम्हारे नाम से बेहतर कोई मौजूं नहीं या रब
तुम्हारे इज़्म से मेरे सुख़न को नाम मिलता है।
(1996)
-सुरेश स्वप्निल
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-09-2014) को "उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए" (चर्चा मंच 1730) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'