आज ख़ामोश रहें भी तो क्या
और दिल खोल कर कहें भी तो क्या ?
आपको तो रहम नहीं आता
हम अगर दर्द सहें तो भी क्या
क़त्ल करके हुज़ूर हंसते हैं
भीड़ में अश्क बहें भी तो क्या
ज़ुल्म तारीख़ में जगह लेंगे
शाह के क़स्र ढहें भी तो क्या
मौत हदिया वसूल कर लेगी
क़ैद में ज़ीस्त की रहें भी तो क्या ?
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रहम: दया; हुज़ूर: श्रीमान; अश्क: आंसू; ज़ुल्म: अत्याचार; क़स्र: महल; क़ैद: बंधन; ज़ीस्त: जीवन।
और दिल खोल कर कहें भी तो क्या ?
आपको तो रहम नहीं आता
हम अगर दर्द सहें तो भी क्या
क़त्ल करके हुज़ूर हंसते हैं
भीड़ में अश्क बहें भी तो क्या
ज़ुल्म तारीख़ में जगह लेंगे
शाह के क़स्र ढहें भी तो क्या
मौत हदिया वसूल कर लेगी
क़ैद में ज़ीस्त की रहें भी तो क्या ?
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रहम: दया; हुज़ूर: श्रीमान; अश्क: आंसू; ज़ुल्म: अत्याचार; क़स्र: महल; क़ैद: बंधन; ज़ीस्त: जीवन।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2017) को 'पाठक का रोजनामचा' (चर्चा अंक-2661) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरा कमज़ोरी ये है कि उर्दू शब्दों से तादात्त्म्य नहीं बैठा पाती ,फिर भी अच्छी लगी .
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