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मंगलवार, 1 मार्च 2016

जिसका मेयार अर्श...

पत्ते  बिखर  रहे  हैं  हवा  के  फ़ितूर  में
ख़ामोश  है  दरख़्त  अना  के  सुरूर  में

रिश्ते  निबाहने  का  सही  वक़्त  है  यही
मौसम  निकल  न  जाए  कहीं  पास-दूर  में

बेहतर  है  कोई  और  नगीना  तराशिए
अब  वो:  चमक  कहां  है  मियां ! कोहेनूर  में

पर्दे  पड़े  हैं  शैख़ो-बरहमन  की  अक़्ल  पर
कंकड़  गिरा  रहे  हैं  मेरे  नोशो-ख़ूर  में

तेरा  निज़ाम  है  तो  चढ़ा  दे  सलीब  पर
लेकिन ये:  साफ़  कर  कि  भला  किस  क़ुसूर  में

दर्या-ए-दिल  को  ज़र्फ़े-समंदर  दिखा  ज़रा
नाहक़  उछल  रहा  है  ख़ुदी  के  ग़ुरूर  में

जिसका  मेयार  अर्श  बताया  गया  हमें
सज्दागुज़ार  है  वो:  हमारे  हुज़ूर  में  !

                                                                                                 (2016)

                                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़ितूर: उपद्रव; दरख़्त :वृक्ष; अना:अहंकार; सुरूर : मद; नगीना : रत्न ; तराशिए : काट-छांट करके आकार दीजिए; कोहेनूर : विश्व-प्रसिद्ध हीरा, 'प्रकाश-पर्वत'; पर्दे:आवरण; शैख़ो-बरहमन: मौलवी एवं ब्राह्मण; अक़्ल : बुद्धि, विवेक; नोशो-ख़ूर : पीने-खाने के पदार्थ; निज़ाम: राज, सरकार; सलीब : सूली; क़ुसूर: अपराध; दर्या-ए-दिल : हृदय-नद; ज़र्फ़े-समंदर : समुद्र का गांभीर्य, धैर्य; नाहक़ : निरर्थक, अनुचित रूप से; ख़ुदी : अस्तित्व-बोध; ग़ुरूर : अभिमान; मेयार: स्तर, उच्च-स्तर; अर्श : आकाश; सज्दागुज़ार : दंडवत प्रणाम की मुद्र में; हुज़ूर : दरबार ।

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