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रविवार, 2 नवंबर 2014

काट लें सर....

चंद  सफ़हात  हैं  पुराने-से
कोई  रख दे  इन्हें  ठिकाने  से

चश्म  में  रोज़  किरकिराते  हैं
ख़्वाब  थे  जो  कभी  सुहाने-से

याद  वो  बार-बार  आते  हैं
हिज्र  के  दौर  में  भुलाने  से

ज़ख्मे-दिल  देर  तक  नहीं  भरते
नीम-अत्तार  को   दिखाने  से

तिफ़्ल  ज़्याद:  बड़े  न  हो  जाएं
बेवजह  हौसला  बढ़ाने  से

वक़्ते-ख़ुश्की  संभालते  दिल  को
अश्क  ज़ाया  गए  बहाने  से

रूह  की   बस्तियां  संवरती  हैं
एक  बुझती  शम्'अ  जलाने  से

दाग़  दिल  के  मिटाइए  साहब
क्या  मिलेगा  हमें  मिटाने  से

काट  लें  सर  न  ख़ुद हमीं  अपना
गर  बने  बात  सर  झुकाने  से  !!

                                                            (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चंद: कुछ, चार; सफ़हात: पृष्ठ (बहु.); चश्म: आंख; हिज्र: वियोग; दौर: काल; ज़ख्मे-दिल: मन के घाव; नीम-अत्तार: आधा-अधूरा दवा बेचने वाला; तिफ़्ल: बच्चे;  हौसला: उत्साह, मनोबल; वक़्ते-ख़ुश्की: सूखे के समय, जब आंख में आंसू सूख चुके हों; अश्क: अश्रु; 
ज़ाया: व्यर्थ, निरर्थक; रूह: आत्मा; शम्'अ: दीपिका; दाग़: दोष; हमीं: स्वयं। 

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