इतना आसान नहीं है के: ग़ज़ल हो जाए
मश्क़ है, रोज़-ए-क़ज़ा काश सहल हो जाए!
आदाब अर्ज़ , दोस्तों
आज मैं आपको फिर अपनी 31अक्टूबर/ 31 दिसंबर को की गई अपनी साझा ग़ज़ल की पेशकश याद दिला रहा हूँ। परसों यानी 2 जन . को मुझे भोपाल के जनाब बद्र वास्ती की जानिब से एक शे'र मिला है। बेहद ख़ूबसूरत शे'र है साहब, सुब्हान अल्लाह! बद्र मियां 1983 से, यानी हमारे थिएटर के दिनों के साथी हैं। उनकी शख्सियत बाहर से जितनी ख़ूबसूरत है, अंदर से उनकी सीरत उससे भी ज्याद: ख़ूबसूरत।
तो, हमारी साझा ग़ज़ल की शक्ल (फ़िलहाल) कुछ यूँ हुई:
बारीं प' हुस्न, अर्श प' आशिक़ नहीं रहे
दोनों जहान अब किसी लायक़ नहीं रहे
(सुरेश स्वप्निल)
हम-आपकी बातों को सुन के निकल लिए
बच्चे हमारे दौर के अहमक़ नहीं रहे
(डॉ . पुष्पा तिवारी)
ईमां प' हर्फ़ आए न क्यूँ कर जनाब-ए-शैख़
मुस्लिम रहे प' वाक़िफ़-ए-मुतलक़ नहीं रहे
(सुरेश स्वप्निल)
मजमून मुन्तज़िर है के: बाँधे कोई हमें
तख़लीक़ रो रही है के: ख़ालिक़ नहीं रहे
( बद्र वास्ती )
रखिए हुज़ूर, जन्नत-उल-फ़िरदौस आपकी
मौसम यहाँ के हमको मुअफ़िक़ नहीं रहे।
(सुरेश स्वप्निल )
रस्मी तौर पर , माना जा सकता है के: ग़ज़ल मुकम्मल हुई। मगर, मैं चाहता हूँ के: आप साहेबान की तरफ़ से दो-चार अश'आर और हो जाएँ ताकि हम फ़ख़्र से कह सकें के: हमारी कोशिश कामयाब हुई।
तो, अब देर किस बात की है हुज़ूर? शे'र कहिए और फ़ौरन से पेश्तर, भेज दीजिए हमें।
मश्क़ है, रोज़-ए-क़ज़ा काश सहल हो जाए!
आदाब अर्ज़ , दोस्तों
आज मैं आपको फिर अपनी 31अक्टूबर/ 31 दिसंबर को की गई अपनी साझा ग़ज़ल की पेशकश याद दिला रहा हूँ। परसों यानी 2 जन . को मुझे भोपाल के जनाब बद्र वास्ती की जानिब से एक शे'र मिला है। बेहद ख़ूबसूरत शे'र है साहब, सुब्हान अल्लाह! बद्र मियां 1983 से, यानी हमारे थिएटर के दिनों के साथी हैं। उनकी शख्सियत बाहर से जितनी ख़ूबसूरत है, अंदर से उनकी सीरत उससे भी ज्याद: ख़ूबसूरत।
तो, हमारी साझा ग़ज़ल की शक्ल (फ़िलहाल) कुछ यूँ हुई:
बारीं प' हुस्न, अर्श प' आशिक़ नहीं रहे
दोनों जहान अब किसी लायक़ नहीं रहे
(सुरेश स्वप्निल)
हम-आपकी बातों को सुन के निकल लिए
बच्चे हमारे दौर के अहमक़ नहीं रहे
(डॉ . पुष्पा तिवारी)
ईमां प' हर्फ़ आए न क्यूँ कर जनाब-ए-शैख़
मुस्लिम रहे प' वाक़िफ़-ए-मुतलक़ नहीं रहे
(सुरेश स्वप्निल)
मजमून मुन्तज़िर है के: बाँधे कोई हमें
तख़लीक़ रो रही है के: ख़ालिक़ नहीं रहे
( बद्र वास्ती )
रखिए हुज़ूर, जन्नत-उल-फ़िरदौस आपकी
मौसम यहाँ के हमको मुअफ़िक़ नहीं रहे।
(सुरेश स्वप्निल )
रस्मी तौर पर , माना जा सकता है के: ग़ज़ल मुकम्मल हुई। मगर, मैं चाहता हूँ के: आप साहेबान की तरफ़ से दो-चार अश'आर और हो जाएँ ताकि हम फ़ख़्र से कह सकें के: हमारी कोशिश कामयाब हुई।
तो, अब देर किस बात की है हुज़ूर? शे'र कहिए और फ़ौरन से पेश्तर, भेज दीजिए हमें।
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