बात पर बन आई है देखें निभाता कौन है
कूच:-ए-क़ातिल में आख़िर मुस्कुराता कौन है
क्या समां है, चश्मो-लब दोनों तरफ़ ख़ामोश हैं
देखिये, अब बात को आगे बढ़ाता कौन है
अपने-अपने दायरों में हैं मुक़य्यद ज़ेह्न-ओ-दिल
हुस्न-ए-जां के सामने ईमाँ से जाता कौन है
कोई शजरे से न आया कट गई फिर शब्बरात
रौज़ा-ए-ग़ालिब पे अब शम'.अ जलाता कौन है
ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र आ रू-ब-रू हो के भी देख
जंग-ए-ईमाँ है यहाँ पलकें झुकाता कौन है।
( 2012 )
- सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: कूच:-ए-क़ातिल: हत्यारे की गली; समां: वातावरण; चश्मो-लब: नयन और अधर; दायरों: सीमाओं, घेरों; मुक़य्यद: बंदी; ज़ेह्न-ओ-दिल: मस्तिष्क और मन; हुस्न-ए-जां: प्राणप्रिय का सौंदर्य; ईमाँ: निष्ठा, आस्था; शजरे: वंश; शब्-ए-क़द्र: पूर्वजों के सम्मान की रात्रि, 'शब-ब-रात'; रौज़ा-ए-ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब की समाधि; हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र: चिर-प्रतीक्षित यथार्थ, ईश्वर; रू-ब-रू: प्रत्यक्ष; जंग-ए-ईमाँ: आस्थाओं का संघर्ष ।
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