दीवाने लोग हैं जो हमको दीवाना समझते हैं
जुनूं - ए - क़ैस को परियों का अफ़साना समझते हैं
अगर दिल में बसे हैं वो: तो मग़रिब क्या है मशरिक़ क्या
के: हम तो बुतकदे को भी सनमख़ाना समझते हैं
हमारी शाइरी पे जो नज़र रखते हैं बरसों से
उम्मीद- ओ- सब्र का हमको वो: पैमाना समझते हैं
तुम्हारी दाद - ओ - इमदाद पे ज़िंदा बहुत होंगे
मगर हम इस से बेहतर फ़ौत हो जाना समझते हैं
जलें हर मुफ़लिस-ओ-मज़लूम के दिल में शम्अ बन के
इसी हासिल को हम अपना मेहनताना समझते हैं
किसी दिन जा रहेंगे दर पे उन के बोरिया ले के
हमारा हक़ है क्या हमको वो: अनजाना समझते हैं
इधर हम इक अज़ां पे दौड़ते आते हैं मस्जिद को
उधर वो: हैं के: नाहक़ हमको बेगाना समझते हैं।
(2011)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: जुनूं-ए-क़ैस: क़ैस (लैला का प्रेमी, मजनूं ) का उन्माद; अफ़साना: मिथक; मग़रिब: पश्चिम; मशरिक़: पूर्व; बुतकदे: देवालय; सनमख़ाना: प्रियतम का घर, यहां आशय मस्जिद; उम्मीद- ओ- सब्र: आशा और धैर्य; पैमाना: मानक; दाद - ओ - इमदाद: सराहना और कृपा; फ़ौत: विनष्ट; मुफ़लिस-ओ-मज़लूम: निर्धन और अत्याचार-पीड़ित; बोरिया: बिस्तर; बेगाना: पराया।
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