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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

सब्ज़े के निशां ...

वो  अपना  अज़्म  हम  में  ढूंढते  हैं
ख़ुशी  की  राह  ग़म  में  ढूंढते  हैं

हमारी  बदनसीबी  हम  अभी  तक
वफ़ाओं  को  क़सम  में  ढूंढते  हैं

बसे  हैं  जो  रग़े-दिल  में  उन्हें  हम
न  जाने  किस  वहम  में  ढूंढते  हैं

दिले-सहरा  में  सब्ज़े  के  निशां  हम
किसी  की  चश्मे-नम  में  ढूंढते  हैं  

मिटाना  चाहते  हैं  जो  ख़ुदी  को
वो  ख़ुद्दारी  सितम  में  ढूंढते  हैं

मिला  दुनिया-ए-फ़ानी  में  हमें  जो
उसे  मुल्के -अदम  में  ढूंढते  हैं

ख़ुदा  का  घर  हमें  कोई  दिखा  दे
इनायत  के  भरम  में  ढूंढते  हैं  ! 

                                                                         (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अज़्म: अस्मिता, महत्व; वफ़ाओं: निष्ठाओं; रग़े-दिल: हृदय के तंतु, वहम: संदेह; दिले-सहरा : मरुस्थल का हृदय; सब्ज़ा : हरीतिमा;  निशां : चिह्न ; चश्मे-नम : द्रवित नयन ; ख़ुदी : आत्म-बोध;  ख़ुद्दारी : स्वाभिमान; सितम : अत्याचार ; दुनिया-ए-फ़ानी : नश्वर संसार; मुल्के-अदम : ईश्वर का देश, परलोक; इनायत : कृपा ; भरम : भ्रम ।

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