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बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

जबसे राहगीर हुए ...

मीरो-ग़ालिब  हुए   न  पीर  हुए
शे'र  दर  शे'र  बस  फ़क़ीर  हुए

तीर  देखा     न  तेग़  ही    पकड़ी
वक़्त  की  शह  से  शाहमीर  हुए

दूसरी      आंख  भी     गंवा  बैठे
जबसे  काने  मियां  वज़ीर  हुए

नोच   लेते    हैं     बाल      अब्बू  के
तिफ़्ल  कुछ  इस  क़दर  शरीर  हुए

रिज़्क़  का   ज़िक्र  तक  नहीं  करते
दादे-तहसीन        से       अमीर  हुए

आपका  अक्स   बन  गए   जबसे
देखिए,  हम  भी   दिलपज़ीर  हुए

चैन  दिल  को  न  रूह  को  तस्कीं
आपके     जबसे       राहगीर  हुए  !


                                                                       (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मीरो-ग़ालिब : हज़रत मीर तक़ी 'मीर' और हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; पीर: सिद्ध मनुष्य; फ़क़ीर : त्यागी, सन्यासी, भिक्षुक; तेग़ : तलवार; शह : बढ़ावा, प्रोत्साहन; शाहमीर : संकट मोल लेने वाला शासक; वज़ीर : मंत्री; अब्बू: पिता; तिफ़्ल : छोटे बच्चे; शरीर : उपद्रवी; रिज़्क़ : आजीविका; ज़िक्र : उल्लेख; दादे-तहसीन : सुंदर शब्दों में की गई प्रशंसा; अमीर : धनी, दरबारी; अक्स : प्रतिबिंब; दिलपज़ीर : चित्ताकर्षक, मन मोहक; तस्कीं : आश्वस्ति; राहगीर : पथिक, अनुगामी ।

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