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बुधवार, 30 दिसंबर 2015

...दिल को यूं मसलते हैं

दिल  अगर  ख़ुशफ़हम  नहीं  होता
आज  सीने  में  ग़म   नहीं  होता

आप  खुल  कर  कलाम  कर  लेते
तो  हमें  कुछ  वहम  नहीं  होता

ख़ाकसारी  वज़्न  बढ़ाती  है
आपका  अज़्म  कम  नहीं  होता

वो  मेरे  दिल  को  यूं  मसलते  हैं
एक  रेश:  भी  ख़म  नहीं  होता

ज़ार  जावेद  हो  गए होते
जो  रिआया  में  दम  नहीं  होता

काश ! मेरी  दुआएं  बर  आतीं
कोई  भी  चश्म  नम  नहीं  होता

कौन  उसकी  दुहाइयां  देता
गर  ख़ुदा  बेरहम  नहीं  होता !

                                                                   (2015)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुशफ़हम: सदाप्रसन्न रहने वाला; कलाम: संवाद, बातचीत; वहम: भ्रम; ख़ाकसारी: विनम्रता; वज़्न: गुरुत्व, भार; अज़्म: अस्मिता, सम्मान, सामाजिक स्थिति; रेश::तन्तु; ख़म: बांका, टेढ़ा; ज़ार:रूस के प्राचीन, अत्याचारी शासक; जावेद: शास्वत, स्थायी, अमर;रिआया: नागरिक गण; बर : फलीभूत होना; चश्म: नयन; नम:भर आना; दुहाइयां : सहायताकेलिएपुकारलगाना, स्मरणकरना;  गर:यदि; बेरहम: निर्दयी।

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