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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

दिलों की ताजदारी...

हमारे  हाथ  ख़ाली  हैं  तुम्हारी  जेब  भारी  है
हमारी  शर्मसारी   में   तुम्हारी  होशियारी  है

न  जाने  किस  अदा  पर  सब  तुम्हें  दिल  से  लगाते  हैं
तुम्हारे  हर  करम  में  जब्रो-ज़ुल्मत  ख़ूनख़्वारी   है

सियासत  'आप' को  भी  सब्र  से  जीना  सिखा  देगी
अभी  तिफ़्ली  समझ  की  सादगी  है  बे-क़रारी  है

तुम्हें  सर  चाहिए  ही  था  तो  सीधे  मांगते  हमसे
हमें  भी  जान  से  ज़्याद:  तुम्हारी  आन  प्यारी  है

वो  अपने   क़स्रे-शाही  शानो-शौक़त  साथ  ले  जाएं
हमारे  पास  सदियों  से  दिलों  की  ताजदारी  है

उन्हें  आना  पड़ेगा  अर्श   से  नीचे  उतर  कर  भी
अना  के  सामने  उनकी  हमारी  ख़ाकसारी  है

हमें  माशूक़  करके  आप  ही  पछताएंगे  मोहसिन
हमारी   राह  में    ग़म  हैं     ख़ुदी  है      बुर्दबारी  है  !

                                                                                         (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: शर्मसारी: लज्जा, अपमानजनक स्थिति; होशियारी : चतुराई; अदा: भाव-भंगिमा; करम: कृपा; जब्रो-ज़ुल्मत: बल-प्रयोग और अत्याचार; ख़ूनख़्वारी: रक्त-पिपासा; सब्र: धैर्य; तिफ़्ली : बचकानी; सादगी: सीधापन; बे-क़रारी: व्यग्रता; सर: शीश; आन: आत्म-सम्मान; क़स्रे-शाही: राजमहल;  अदा: भाव-भंगिमा; करम: कृपा; जब्रो-ज़ुल्मत: बल-प्रयोग और अत्याचार; ख़ूनख़्वारी: रक्त -पिपासा; शानो-शौक़त: ऐश्वर्य और समृद्धि; ताजदारी: राजमुकुट, साम्राज्य; अर्श: आकाश; अना: अहंकार; ख़ाकसारी: अकिंचनता, विनम्रता; माशूक़: प्रिय / प्रेमी; मोहसिन: अनुग्रही, कृपालु; ग़म: दुःख; ख़ुदी: आत्म-बोध; बुर्दबारी: सहिष्णुता।  

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