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बुधवार, 2 सितंबर 2015

ख़्वाहिशों के जवाब ...

वो  जो  दिल  की  किताब पढ़ते  हैं
ख़ार    को    भी    गुलाब  पढ़ते  हैं

हम  उन्हें    माहताब    लिखते  हैं
वो    हमें    आफ़ताब     पढ़ते   हैं

नक़्शे-महबूब  हों  अयां  हम  पर
हौले-हौले      हिजाब      पढ़ते  हैं

ख़्वाब  में  और  क्या  करें  हम  भी
ख़्वाहिशों    के     जवाब    पढ़ते  हैं

वक़्त   के     हाथ    खेलने   वाले
आशिक़ी  को    अज़ाब   पढ़ते  हैं

शाहे-जम्हूर    वो    हुए    जब  से
चश्मे-नम  को   सराब   पढ़ते  हैं

आप  जब  मन  की  बात  कहते  हैं
कुर्सियों    का    हिसाब   पढ़ते  हैं 

आईन-ए-हिंद  की  क़सम  ले  कर
नफ़रतों   की    किताब    पढ़ते  हैं

शायरी    ने    ख़ुदा     बनाया    है
लोग     ख़ाना-ख़राब      पढ़ते    हैं  !

                                                                       (2015)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ार: कांटे; माहताब: चांदनी;आफ़ताब: सूर्य; नक़्शे-महबूब: प्रिय की मुखाकृति; अयां: प्रकट, स्पष्ट; हौले-हौले: धीमे-धीमे; 
हिजाब: मुखावरण; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; आशिक़ी: प्रेम;  अज़ाब: पाप; शाहे-जम्हूर: लोकतंत्र के राजा; चश्मे-नम: आंख की नमी, आंसू; सराब: मृगजल; आईन-ए-हिंद: भारत का संविधान; नफ़रतों: घृणाओं;   ख़ाना-ख़राब: घर मिटाने वाला, यहां-वहां भटकने वाला। 


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