नई बस्तियों में शह् र ढूंढते हैं
यहीं था कहीं अपना घर ढूंढते हैं
कहीं तो मिले रिज़्क़ दो-चार दिन का
परिंदे ख़ला में शजर ढूंढते हैं
फ़सल मर चुकी, क़र्ज़ ज़िंदा खड़ा है
परेशान दहक़ां ज़हर ढूंढते हैं
हैं अख़बार या दहशतों के पुलिंदे
फ़क़त एक अच्छी ख़बर ढूंढते हैं
चुराने लगीं नूर अब स्याह रातें
सितारे ज़रा-सी सह् र ढूंढते हैं
ज़ईफ़ी गवारा नहीं दोस्तों को
कि ग़ुस्ताख़ियों की उम् र ढूंढते हैं
बहुत दूर है मग़फ़िरत का इदारा
मुसाफ़िर शरीक़े-सफ़र ढूंढते हैं
यहां तीरगी में ख़ुदा क्यूं मिलेगा
जहां रौशनी हो उधर ढूंढते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन; परिंदे: पक्षी; ख़ला: निर्जन स्थान; शजर: वृक्ष; दहक़ां: कृषक; दहशतों: भयों; पुलिंदे: गट्ठर; फ़क़त: मात्र;
नूर: प्रकाश, उज्ज्वलता; स्याह: कृष्ण; सह् र: उष:काल; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; गवारा: स्वीकार; ग़ुस्ताख़ियों: ढीठताओं; मग़फ़िरत: मोक्ष; इदारा: संस्थान; शरीक़े-सफ़र: सहयात्री; तीरगी:अंधकार।
यहीं था कहीं अपना घर ढूंढते हैं
कहीं तो मिले रिज़्क़ दो-चार दिन का
परिंदे ख़ला में शजर ढूंढते हैं
फ़सल मर चुकी, क़र्ज़ ज़िंदा खड़ा है
परेशान दहक़ां ज़हर ढूंढते हैं
हैं अख़बार या दहशतों के पुलिंदे
फ़क़त एक अच्छी ख़बर ढूंढते हैं
चुराने लगीं नूर अब स्याह रातें
सितारे ज़रा-सी सह् र ढूंढते हैं
ज़ईफ़ी गवारा नहीं दोस्तों को
कि ग़ुस्ताख़ियों की उम् र ढूंढते हैं
बहुत दूर है मग़फ़िरत का इदारा
मुसाफ़िर शरीक़े-सफ़र ढूंढते हैं
यहां तीरगी में ख़ुदा क्यूं मिलेगा
जहां रौशनी हो उधर ढूंढते हैं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन; परिंदे: पक्षी; ख़ला: निर्जन स्थान; शजर: वृक्ष; दहक़ां: कृषक; दहशतों: भयों; पुलिंदे: गट्ठर; फ़क़त: मात्र;
नूर: प्रकाश, उज्ज्वलता; स्याह: कृष्ण; सह् र: उष:काल; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; गवारा: स्वीकार; ग़ुस्ताख़ियों: ढीठताओं; मग़फ़िरत: मोक्ष; इदारा: संस्थान; शरीक़े-सफ़र: सहयात्री; तीरगी:अंधकार।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें