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रविवार, 4 जनवरी 2015

क़सम तो न हो !

मर्ग  के   बाद    कोई  सितम    तो  न  हो
दिल  जले  तो  जले  रंजो-ग़म  तो  न  हो

क़ब्र  में    हो  सुकूं    अम्न  हो     सब्र  हो
बस  हमें   ज़िंदगी  का   वहम  तो  न  हो

दफ़्न   के  बाद  भी   दिल   धड़कता  रहे
इस  तरह  दोस्तों  का  करम  तो  न  हो

कल  सभी  जाएंगे  मुट्ठियां   खोल  कर
दांव  पर   आज  दीनो-धरम   तो  न  हो

ताजिरों  को    खुली   लूट  की     छूट  है
दुश्मने-आम  पर   यूं   रहम   तो  न  हो

मुल्क  में   मुफ़लिसी   बेबसी   सब  रहे
रिज़्क़  के  नाम  से  आंख  नम  तो  न  हो

है  ख़ुदा    गर  कहीं    तो    तग़ाफुल  करे 
मोमिनों  पर  वफ़ा  की   क़सम  तो  न  हो  !

                                                                          (2014)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ग: मृत्यु; सितम: अत्याचार; रंजो-ग़म: खेद और दुःख; सुकूं: संतोष; अम्न: शांति; सब्र: धैर्य; वहम: भ्रम; दफ़्न: मिट्टी में दबाना; करम: कृपा; दीनो-धरम: आस्था और धर्म; ताजिरों: व्यापारियों; दुश्मने-आम: सामान्य-जन का शत्रु; रहम: दया; मुल्क: देश; मुफ़लिसी: निर्धनता; बेबसी: विवशता; रिज़्क़: दो समय का भोजन; नम: गीली; गर: यदि; तग़ाफुल: आपत्ति, आक्षेप; मोमिनों: आस्तिकों; वफ़ा: निष्ठा ।


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