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बुधवार, 24 दिसंबर 2014

ख़ुद को नवाज़ दें...

बस,  रिश्त:-ए-अज़ान  बचा  है  जनाब  से

दामन  छुड़ा  रहे  हैं  वो:  ख़ाना-ख़राब  से


मसरूर  रहे   हुस्ने-शह्र  में    कभी-कभी 

हालांकि,  दूर-दूर  रहे    हम     शराब  से


उन  चश्मे-ख़ुशमिज़ाज  के  अंदाज़  देखिए

करते  हैं      छेड़-छाड़      दरारे-नक़ाब   से


पर्दा   किए  हुए  हैं    ज़माने  से    आजकल

लेकिन  न  बच  सके  वो  तिलिस्मे-सराब  से



ज़र्रों  की   अहमियत    जनाब  भूल  गए  हैं

जबसे  मिले    ख़्याल   किसी  आफ़ताब  से



यूं  भी  हुए  शिकारे-अना  हम  विसाल  में

मस्ला  सुलझ  सका  न  किसी  भी  किताब  से



ख़ुद  का  रहे  ख़्याल  न  सज्दे  की  फ़िक्र  हो

गर  हो  कभी    नमाज़     हमारे  हिसाब  से


उनका  निज़ाम,  उनकी  अना,  उनके  फ़ैसले

ख़ुद  को  नवाज़  दें  न  ख़ुदा  के  ख़िताब  से  !

                                                                               (2014)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिश्त:-ए-अज़ान: अज़ान  का संबंध; दामन: पल्लू, संबंध;  ख़ाना-ख़राब:गृह-विहीन, भटकने वाला; मसरूर: मदमत्त; हुस्ने-शह्र: नगर का सौन्दर्य; चश्मे-ख़ुशमिज़ाज: प्रसन्न-स्वभाव नयन; अंदाज़: भाव-भंगिमा; दरारे-नक़ाब: मुखावरण की संधि, बुर्क़े में देखने के लिए खुला स्थान; पर्दा: दूरी बनाना; तिलिस्मे-सराब: मृग-मरीचिका की माया; ज़र्रों: कणों; अहमियत: महत्ता; जनाब: महोदय, श्रीमान; ख़्याल: विचार; आफ़ताब: सूर्य, प्रसिद्ध व्यक्ति; शिकारे-अना: अहंकार-पीड़ित; विसाल: साक्षात्कार; मस्ला: समस्या; किताब: धर्म-ग्रंथ अथवा न्याय की पुस्तक; सज्दे: प्रणिपात; गर: यदि; निज़ाम: शासन; अना: अहंकार; नवाज़ना: उपकृत करना, देना; ख़िताब: उपाधि, पुरस्कार ।

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