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बुधवार, 24 जुलाई 2013

रंग-ए-वफ़ा कुछ और

ज़ेहन  में  कुछ  और  था  दिल  चाहता  कुछ  और  था
हर  शिकस्ता  आदमी  का   फ़लसफ़ा   कुछ  और  था

आप  जानें   मैकदे  में   आ  के    क्या   हासिल  किया
शैख़  साहब    आपका  तो     मरतबा    कुछ  और  था

क्या   न  जाने    दे  गया    हमको  दवा    वो:  चारागर
इल्मे-तिब्बी   के  मुताबिक़   मशवरा   कुछ  और  था

खैंच    लाते    थे     अकेले     कश्तियां     गिरदाब   से
थे   जवां   जब    तो    हमारा    माद्दा   कुछ    और  था

ढूंढते    थे     सौ    बहाने      लोग     मिलने   के   लिए
कुछ  बरस  पहले   शहर  का   क़ायदा   कुछ  और  था

मंज़िलें   दर   मंज़िलें      हम     छोड़ते      चलते   गए
हम   मुसाफ़िर   थे    सफ़र  से  वास्ता   कुछ  और  था

क्या   अक़ीदत   थी    के:   सूली    चढ़  गए   हंसते  हुए
हज़रत-ए-मंसूर   का     रंग-ए-वफ़ा     कुछ    और  था !

                                                                            ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ-संदर्भ: ज़ेहन: मस्तिष्क; शिकस्ता: हारे-थके; फ़लसफ़ा: दर्शन;  मैकदा: मदिरालय; शैख़: धर्मभीरु;   
मरतबा: लक्ष्य; चारागर: उपचारक; इल्मे-तिब्बी: चिकित्सा-शास्त्र;  मशवरा: परामर्श; गिरदाब: भंवर; माद्दा:सामर्थ्य; क़ायदा: नियम; वास्ता: सम्बंध;  अक़ीदत: आस्था; हज़रत मंसूर: इस्लाम के अद्वैत वादी दार्शनिक, जिन्होंने 'अनलहक़' का उदघोष किया जिसे तत्कालीन शासक ने ईश्वर-विरोधी मानते हुए उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी पर चढ़वा दिया, कालांतर में उन्हें ईश्वर का संदेश-वाहक ( पैगम्बर )
माना गया; रंग-ए-वफ़ा: प्रमाणित करने का ढंग !

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