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शनिवार, 23 मार्च 2013

किस दिल से ग़ज़ल कहिये ?


               
इस बह्र्-ए-परीशां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये
उन्वां-ए-पशेमां   में  किस दिल से ग़ज़ल कहिये

हर लफ़्ज़  में  जुंबिश   तो  हर रूह पे   मातम  है
दरबार-ए-ग़रीबां में  किस दिल से ग़ज़ल कहिये

ख्वाबों  के  सफ़र  अक्सर  तनहा  ही  गुज़रते हैं
इस शह्र-ए-अजीबां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये

थक  जाएँगी  जब  यादें ,  थम  जाएँगी  जब  राहें
उस दौर-ए-नसीबां में किस दिल से ग़ज़ल कहिये

अश्कों  में  लहू  बन  के  गिर  जाएँ  तो  बेहतर है
बाज़ार-ए-अदीबां  में  किस दिल से ग़ज़ल कहिये

तकरीर  से    कब-किसकी   तक़दीर  बदलती  है
जम्हूर-ए-रक़ीबां  में  किस दिल से ग़ज़ल कहिये ?

                                                                      ( 1997 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बह्र्-ए-परीशां : परेशान लोगों का छंद, भावान्तर से दुष्काल;उन्वां-ए-पशेमां : लज्जा का शीर्षक;  जुंबिश: थरथराहट; मातम: शोक;               दरबार-ए-ग़रीबां: न्याय के युद्ध में असमय बलि चढ़े लोगों का दरबार;शह्र-ए-अजीबां: विचित्रताओं का शहर दौर-ए-नसीबां: नियति              का (ऐसा) समय;बाज़ार-ए-अदीबां : साहित्यकारों  का बाज़ार ; तकरीर: भाषण;जम्हूर-ए-रक़ीबां : शत्रुओं का गणतंत्र।  

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