हमें उनकी गली से जाते - आते शर्म आती है
ग़ज़ब ये: के: बहाना तक बनाते शर्म आती है
हज़ारों बिजलियां दिल पे हमारे टूट पड़ती हैं
वो: हों जब रू-ब-रू नज़रें मिलाते शर्म आती है
हसीं भी हैं शहर में और हम तन्हा भी हैं लेकिन
वही रुसवाई का डर , दिल लगाते शर्म आती है
हमारे ग़म में शामिल हैं ज़माने - भर के दीवाने
वो: शोहरत पाई है , आंसू बहाते शर्म आती है
जो सिक्कों में बदलना जानते हैं राम-ओ-रहिमन को
उन्हें कब दूसरों के घर जलाते शर्म आती है
मुसलमां हों न हों लेकिन ख़ुदी का पास है हमको
बुतों के दर पे अपना सर झुकाते शर्म आती है
सियासत वो: करें जिनको ख़ुदा ने हुस्न बख्शा है
हमें तो आईने को मुंह दिखाते शर्म आती है ।
(2012)
-सुरेश स्वप्निल
ग़ज़ब ये: के: बहाना तक बनाते शर्म आती है
हज़ारों बिजलियां दिल पे हमारे टूट पड़ती हैं
वो: हों जब रू-ब-रू नज़रें मिलाते शर्म आती है
हसीं भी हैं शहर में और हम तन्हा भी हैं लेकिन
वही रुसवाई का डर , दिल लगाते शर्म आती है
हमारे ग़म में शामिल हैं ज़माने - भर के दीवाने
वो: शोहरत पाई है , आंसू बहाते शर्म आती है
जो सिक्कों में बदलना जानते हैं राम-ओ-रहिमन को
उन्हें कब दूसरों के घर जलाते शर्म आती है
मुसलमां हों न हों लेकिन ख़ुदी का पास है हमको
बुतों के दर पे अपना सर झुकाते शर्म आती है
सियासत वो: करें जिनको ख़ुदा ने हुस्न बख्शा है
हमें तो आईने को मुंह दिखाते शर्म आती है ।
(2012)
-सुरेश स्वप्निल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें