इक अदा पे तुम्हारी फ़िदा हो गए
अजनबी थे मगर आशना हो गए
लब लरज़ने लगे सोज़-ए-उम्मीद में
उफ़ ये: नज़दीकियां क्या से क्या हो गए
अल्लः अल्लः ये: मासूमियत आपकी
ज़िब्ह करके हमें बावफ़ा हो गए
सुर्ख़ रू: हो के समझे मोहब्बत है क्या
हम मुजस्सम सुबूत- ए -ख़ुदा हो गए
पीर से पर्दा करते रहे रात भर
सुब्ह-ए-नौ रूह तक बरहना हो गए
तुमको ढूँढा किए सफ़-ब-सफ़ ख़ुल्द में
हमको दे के अज़ां लापता हो गए।
(2003)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: अदा: भाव; फ़िदा: न्यौछावर; अजनबी: अपरिचित; आशना: प्रिय मित्र; लब: अधर; लरज़ने: कांपने; सोज़-ए-उम्मीद: आशा का माधुर्य; नज़दीकियां: निकटताएं; मासूमियत: अबोधता; ज़िब्ह: गला काटना; बावफ़ा: निष्ठावान; सुर्ख़ रू:: सफल; मुजस्सम: पूर्णरूपेण; सुबूत- ए -ख़ुदा: ईश्वर का प्रमाण; पीर: मार्गदर्शक, ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में माध्यम; सुब्ह-ए-नौ: नई भोर में; बरहना: दिगंबर; सफ़-ब-सफ़: एक-एक पंक्ति में; ख़ुल्द: स्वर्ग; अज़ां: नमाज़ हेतु बुलावा ।
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