कहाँ चले बड़े मियां
पहाड़ सी उमर लिए
बुझी हुई नज़र लिए
झुकी हुई कमर लिए
कहाँ चले बड़े मियां ?
कहाँ चले ?
कहाँ चले, रुको ज़रा
सुकून से बैठो यहाँ
कमर का ख़म मिटाओ तो
बयान-ए- ग़म सुनाओ तो
कहाँ चले के: उठ चुके हैं
दोस्त दरम्यान से
के: अब किसी की जेब में
न वक़्त है न दर्द है
न आरज़ू न हौसला
नक़द का बंदोबस्त
या उधार की जुगत नहीं
किसे सुनाओगे मियां?
नवाबियाँ चली गईं
मगर ठसक वही रही !
अजी जनाब, छोड़िये
ये: तीतरों का पालना
कुछ घर की फ़िक्र कीजिये
औलाद की भी सोचिये
कहाँ रहे वो: रात-दिन
के: शौक़ में गुज़ार दें ?
अब आदमी के पेट को
काफ़ी नहीं हैं रोटियां
तो तीतरों की क्या बिसात ?
अरे-अरे बड़े मियां
उफ़! आप ने ये: क्या किया
मज़ाक ही मज़ाक में
परिंदों को उड़ा दिया ?!!
( 1986)
-सुरेश स्वप्निल
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