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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

...साहिल की तरह !

देखो  न  हमें  क़ातिल  की  तरह
डर  जाएं  क्या  बुज़दिल  की  तरह

वो:  ख़्वाब  में  अक्सर  आते  हैं
ढूँढा  था  जिन्हें  मंज़िल  की  तरह

दिल  की  क़ीमत  ईमान  है  क्या
बहको  न  किसी  ग़ाफ़िल  की  तरह

तूफ़ान       हज़ारों       हार  गए
मौजूद  हैं  हम  साहिल  की  तरह

क्या   ख़ाक  मुहब्बत   की  तुमने
तड़पा  न  किए  बिस्मिल  की  तरह

कैसे   जाने    दें      तुम  ही  कहो
आए  हो  दुआ-ए-दिल  की  तरह

रखते  हैं  ख़ुदी  कुछ  तो   हम  भी
तोड़ो  न   दिल-ए-साइल  की  तरह !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ातिल: वधिक; बुज़दिल: कायर; ईमान: आस्था; ग़ाफ़िल: भ्रमित; साहिल: किनारा; बिस्मिल: घायल;  
दुआ-ए-दिल: हृदय की प्रार्थना; ख़ुदी: स्वाभिमान; दिल-ए-साइल: याचक का हृदय।


रविवार, 29 दिसंबर 2013

न मुस्कुराओ गुनाह करके !

किसी  के  दिल  को  तबाह  करके
न     मुस्कुराओ      गुनाह  करके

चलो  यह  माना   जफ़ा  नहीं  की
कहो      ख़ुदा  को    गवाह  करके

हमें   फ़लक  पर   बिठा  दिया  है
सहर    ने     ज़ेरे-पनाह     करके

न  क़ाफ़िया   न  बहर  मुकम्मल
मिलेगा   क्या    वाह  वाह  करके

किसी  पे  मिटना   ख़ता  नहीं  है
चलो  न    नीची   निगाह   करके

किया  है   दुश्मन  को  आश्ना  गर
दिखाइए  अब     निबाह     करके

ख़ुदा  को  क्या  मुंह  दिखाएंगे  वो:
जिए  जो  रू:  को  सियाह  करके  !

                                              ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जफ़ा: बेईमानी; फ़लक: आकाश; सहर: उषः काल; ज़ेरे-पनाह: शरणागत; क़ाफ़िया : शे'र की दूसरी पंक्ति में  अंतिम से पूर्व का शब्द; बहर: छंद; मुकम्मल: परिपूर्ण; ख़ता : दोष, अपराध; आश्ना: मित्र,साथी; गर: यदि; रू:: आत्मा; सियाह: काला।

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

ग़ालिब …ग़ालिब … सिर्फ़ ग़ालिब !

उर्दू शायरी के पीराने-पीर, अज़ीम-तरीन शाहकार हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब ( 27 दिस. 1797- 15 फ़र.1869 ) का आज 216 वां यौमे-पैदाइश है। उनके लिए ख़ेराजे-अक़ीदत के तौर पर उन्हीं की एक बेहद मक़बूल ग़ज़ल आज आपके लिए पेश है, मुलाहिज़ा फ़रमाएं:

यह  न  थी  हमारी  क़िस्मत  कि  विसाल-ए-यार  होता
अगर  और  जीते  रहते,  यही  इंतिज़ार  होता

तिरे  वा'दे  पर  जिए  हम  तो  यह  जान,  झूठ  जाना
कि  ख़ुशी  से  मर  न  जाते,  अगर  ए'तबार  होता

तिरी  नाज़ुकी  से  जाना  कि  बंधा  था  'अहद  बोदा
कभी  तू  न  तोड़  सकता,  अगर  उस्तुवार  होता

कोई  मेरे  दिल  से  पूछे,  तिरे  तीरे-नीमकश  को
यह  ख़लिश  कहाँ  से  होती,  जो  जिगर  के  पार  होता

यह  कहाँ  की  दोस्ती  है, कि  बने  हैं  दोस्त, नासेह
कोई  चार: साज़  होता,  कोई  ग़म-गुसार  होता

रग-ए-संग  से  टपकता,  वह  लहू,  कि  फिर  न  थमता
जिसे  ग़म  समझ  रहे  हो,  यह  अगर  शरार  होता

ग़म  अगरचे:  जाँ गुसिल  है,  प'  कहाँ  बचें,  कि  दिल  है
ग़म-ए-इश्क़  गर  न  होता,  ग़म-ए-रोज़गार  होता

कहूँ  किससे  मैं  कि  क्या  है,  शबे-ग़म  बुरी  बला  है
मुझे  क्या  बुरा  था  मरना,  अगर  एक  बार  होता

हुए  मरके  हम  जो  रुस्वा,  हुए  क्यों  न  ग़र्क़े-दरिया
न  कभी  जनाज़:  उठता  न  कहीं  मज़ार  होता

उसे  कौन  देख  सकता,  कि  यगान:  है  वह  यकता
जो  दुई  की  बू  भी  होती,  तो  कहीं  दुचार  होता

यह  मसाइल-ए-तसव्वुफ़,  यह  तिरा  बयान,  ग़ालिब
तुझे  हम  वली  समझते,  जो  न  बाद: ख़्वार  होता

                                                                     -मिर्ज़ा  असद उल्लाह  ख़ां  'ग़ालिब'

शब्दार्थ: विसाल-ए-यार: पिया-मिलन; वा'दे: वचन; ए'तबार: विश्वास; 'अहद: प्रतिज्ञा, वचन; बोदा: कच्चा; उस्तुवार: दृढ़, पुष्ट; तीरे-नीमकश: आधा खिंचा हुआ तीर; ख़लिश: खटक, चुभन; नासेह: उपदेशक; चार: साज़: उपचारक; ग़म-गुसार: हितैषी, 
दुःख का सहभागी; रग-ए-संग: पत्थर की नस; शरार: चिंगारी; जाँ गुसिल: जानलेवा, प्राणघातक; ग़म-ए-इश्क़: प्रेम का दुःख; ग़म-ए-रोज़गार: आजीविका का दुःख;   शबे-ग़म: दुःख की निशा; रुस्वा: अपमानित; ग़र्क़े-दरिया: नदी या पानी में डूबा; जनाज़: : अर्थी; मज़ार: समाधि; यगान: : अनुपम; यकता: अद्वितीय; दुई: द्वैत; दुचार: दो-चार, आमने-सामने; मसाइल-ए-तसव्वुफ़: भक्ति की समस्याएं; बयान: वर्णन; वली: ऋषि, ज्ञानी; बाद: ख़्वार: मद्यप।

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

ख़ुदा नहीं हैं वो: !

जानते  हैं    ख़फ़ा  नहीं  हैं  वो:
बस  ज़रा  बेवफ़ा  नहीं  हैं  वो:

दोस्त  हैं  हम  उन्हें  मना  लेंगे
आपका   मुद्द'आ  नहीं  हैं  वो:

दुश्मने-जां  नहीं  मगर  फिर  भी
दर्दे-दिल  की  दवा  नहीं  हैं  वो:

आसमां  का  निज़ाम  क़ायम  है
रास्ते  से    जुदा     नहीं  हैं  वो:

आतिशे-ख़ूं  रवां  हैं  रग़  रग़  में
सिर्फ़    रंगे-हिना   नहीं  हैं  वो:

पीर  हैं   बादशाह  हैं   सब  हैं
गो  हमारे  ख़ुदा  नहीं  हैं  वो: !

आज  शायद  ग़ज़ल  न  हो  पाए
आज  जल्व: नुमा  नहीं  हैं  वो : !

                                                  ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़फ़ा: रुष्ट; बेवफ़ा: बे-ईमान, निर्वाह न करने वाला; मुद्द'आ: विषय; दुश्मने-जां: प्राण का शत्रु; दर्दे-दिल: हृदय की पीड़ा; आसमां: ब्रह्माण्ड; निज़ाम: व्यवस्था;   क़ायम: नियमित, सुचारु; आतिशे-ख़ूं: रक्त की ऊष्मा/अग्नि; प्रवाहित; रग़  रग़: नस-नस;   रंगे-हिना: मेहंदी का रंग; पीर: पहुंचे हुए संत; जल्व: नुमा: प्रकट।

वो: सुबह दीजिए...!'

दोस्तों  आज  हमको  तरह  दीजिए
शाइरी  की  मुनासिब  वजह  दीजिए

मिसर:-ए-उन्सियत  दे  दिया  आपको
आप  ही  ख़ूबसूरत  गिरह  दीजिए

मर  न  जाएं  कहीं  हिज्र  में  आपके
दीजिए  तो  दुआ  बेतरह  दीजिए

तज़्किराते-मसाइल-ए-इंसां  में  अब
जज़्ब:-ए-फ़ाक़ाकश  को  जगह  दीजिए

रौशनी  जिसकी  क़ायम  अज़ल  तक  रहे
ज़िंदगी  को  कभी  वो:  सुबह  दीजिए

ज़ात-ओ-मज़्हब  के  हर  दायरे  से  परे
रहबरों  को  नई  इक  निगह  दीजिए

जल्व:गर  हो  न  जाएं  सरे-बज़्म  वो:
नज़्रे-मैकश  को  ज़र्फ़े-क़दह  दीजिए  !

                                                         ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तरह: शे'र की एक  पंक्ति, ऐसी पंक्ति जिस पर शे'र कहा जा सके; मुनासिब  वजह: उचित  कारण; मिसर:-ए-उन्सियत: स्नेह-पूर्ण पंक्ति; गिरह: शे'र की दूसरी पंक्ति, ऐसी पंक्ति जिसे सम्मिलित करके शे'र पूरा हो सके; हिज्र: अनुपस्थिति, वियोग; दुआ: शुभकामना; 
बेतरह: जम कर, बहुत अधिक; तज़्किराते-मसाइल-ए-इंसां: मनुष्य की समस्याओं पर चर्चा; जज़्ब:-ए-फ़ाक़ाकश: भूखे रह कर जीने वाले लोगों की भावना; क़ायम: स्थापित; अज़ल: मृत्यु, प्रलय; ज़ात-ओ-मज़्हब: जाति और धर्म; जल्व:गर: प्रकट, दृश्यमान; सरे-बज़्म:भरी सभा में; नज़्रे-मैकश: मद्यप की दृष्टि, दर्शन-रूपी मदिरा पीने वाले की दृष्टि; ज़र्फ़े-क़दह:पात्र संभालने का साहस 

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

दिन बदल गए !

ऐसा   करम   हुआ    के:  मेरे  दिन  बदल  गए
किसकी  लगी  दुआ  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

दुश्मन  ने   मेरा  नाम   ज़ेहन  से  मिटा  दिया
कैसी   हुई     ख़ता    के:  मेरे  दिन  बदल  गए

बदलीं   ज़रूर   कुछ  तो   ज़माने  की   निगाहें
जिस दिन अयां हुआ  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

हिर्सो-हवस    हो     के:   तेरा    अंदाज़े-गुफ़्तगू
सब  कुछ  बदल  गया  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

अब  भी   वही  हूं  मैं    तेरे  दर  पर  पड़ा  हुआ
किस बात की  अना  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

मोहसिन   कहें    हबीब   कहें    या   ख़ुदा  कहें
वो: दिल  में आ बसा के:  मेरे  दिन  बदल  गए

उस  नूरे-इलाही  में     अक़ीदत  की    बात  है
ज़ानू  से  सर  लगा  के:  मेरे  दिन  बदल  गए  !

                                                                    ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: करम: कृपा; दुआ: शुभकामना; ज़ेहन: मनोमस्तिष्क; ख़ता: अपराध, दोष; अयां: स्पष्ट; हिर्सो-हवस: लोभ-लालच; 
अंदाज़े-गुफ़्तगू: बातचीत की शैली; अना: अहंकार; मोहसिन: अनुग्रह करने वाला; हबीब: प्रेमी, शुभचिंतक; 
नूरे-इलाही: ईश्वरीय प्रकाश, ईश्वर का आभा-मंडल; अक़ीदत: आस्था; ज़ानू: घुटना। 

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

तेरी क़ुर्बत के लिए ...!

मौत  ने  जीना  हमारा  और  आसां  कर  दिया
फिर  दरे-मेहबूब  पर  सज्दे  का  सामां  कर  दिया

हूं  बहुत  मज़्कूर  मैं  उस  हुस्ने-शामो-सहर   का
जिसने  मेरी  अंजुमन  को  रश्क़े-रिज़्वां  कर  दिया

शुक्रिया  अय  दोस्त  तेरा  रहनुमाई  के  लिए
तूने  मेरी  हर  दुआ  को  गुहरे-मिश्गां  कर  दिया

और  क्या  करते  भला  हम  बंदगी  के  नाम  पर
तेरी  क़ुर्बत  के  लिए  ईमान  क़ुर्बां  कर  दिया

पुर्सिशों  से  ज़ल्ज़ला  सा  आ  गया  घर  में  मेरे
लज़्ज़ते-गिरिय:  ने  हमको  फिर  पशेमां  कर  दिया

फिर  किसी  ने  ख़ुल्द  में  दिल  से  पुकारा  है  हमें
फिर  मेरे  दर्दे-निहां  को  राहते-जां  कर  दिया

बेख़याली  बदगुमानी  बदनसीबी  सब  यहीं
ज़िंदगी  दे  कर  ख़ुदा  ने  ख़ाक  एहसां  कर  दिया  !

                                                                       ( 2013 )

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसां: आसान, सरल; दरे-मेहबूब: प्रिय/ईश्वर का द्वार ; सज्दे  का  सामां: पृथ्वी पर सिर झुका कर प्रणाम करने का प्रबंध; 
मज़्कूर: शुक्रगुज़ार, आभारी; हुस्ने-शामो-सहर: संध्या और उषा का सौंदर्य; अंजुमन: सभा; रश्क़े-रिज़्वां: रिज़वान, जन्नत का प्रहरी की ईर्ष्या का कारण; रहनुमाई: मार्गदर्शन; गुहरे-मिश्गां: पलकों के मोती, अश्रु; बंदगी: भक्ति; क़ुर्बत: निकटता;   ईमान: आस्था; क़ुर्बां: बलिदान; पुर्सिश: हाल पूछना;  ज़ल्ज़ला: भूकम्प; लज़्ज़ते-गिरिय: : रोने का आनंद; पशेमां: लज्जित, अवमानित;  ख़ुल्द: स्वर्ग; दर्दे-निहां: अंतर्मन की पीड़ा; राहते-जां: प्राणाधार; बेख़याली: अन्यमनस्कता; बदगुमानी: दूसरों की कु-धारणाएं; बदनसीबी: दुर्भाग्य; 
ख़ाक: व्यर्थ, धूल के समान; एहसां: एहसान, अनुचित कृपा।

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

बहारों के कर्ज़दार...!

तेरी   नज़रों   में      ऐतबार  नहीं
तू  मेरी बज़्म  का  किरदार  नहीं

ये:   ख़िजाएं    क़ुबूल    हैं  हमको
हम   बहारों   के   कर्ज़दार    नहीं

ख़ास  एहबाब की  नशिस्त  है  ये:
आप  फ़ेहरिस्त   में  शुमार  नहीं

सौदा-ए-दिल    सुकून  में  कीजे
ये:   तिजारत   सरे-बाज़ार  नहीं

लोग     डरते   हैं   कामयाबी  से
मरहले   इश्क़  के    दुश्वार  नहीं

आ  किसी  और  शहर  चलते  हैं
यां  कोई  आज   ग़मगुसार  नहीं

शोर  करते  हैं  जो  वफ़ाओं  का
वो:  शबे-ग़म  के  राज़दार  नहीं !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; बज़्म: गोष्ठी; किरदार: चरित्र; ख़िजाएं: पतझड़; ऋणी; ख़ास  एहबाब: विशिष्ट मित्र-गण; 
नशिस्त: सभा, गोष्ठी;   फ़ेहरिस्त: सूची;   शुमार: सम्मिलित, गण्य; सौदा-ए-दिल: हृदय का लेन-देन; सुकून: निश्चिंतता; 
तिजारत: व्यापार; सरे-बाज़ार: बीच बाज़ार; मरहले: पड़ाव;  दुश्वार: कठिन; यां: यहां; ग़मगुसार: दुःख में सांत्वना देने वाला; 
शबे-ग़म: दुःख की निशा;  राज़दार: रहस्य में भागीदार। 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

ख़ुशफ़हमी सा सस्ता !

अपने  अंदर  बच्चा  रह
गुरबानी-सा  सच्चा  रह

तूफ़ां   है    पतवार  उठा
गिर्दाबों  से   लड़ता  रह

तालाबों में  रुकना  क्या
दरिया-जैसा  बहता  रह

सहरा  में  शबनम बनके
सारी  रात   बरसता  रह

जिन्सों  की   मंहगाई  में
ख़ुशफ़हमी सा  सस्ता रह

उर्फ़    हिमाला    है  तेरा
मक़सद मक़सद ऊंचा रह

मुफ़लिस  है  लाचार  नहीं
सजता  और  संवरता  रह  !

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुरबानी: सिखों का धर्म-ग्रंथ, गुरु की वाणी; गिर्दाब: भंवर; सहरा: मरुस्थल; 
शबनम: ओस; जिन्स: वस्तु; उर्फ़: प्रचलित नाम; मक़सद: उद्देश्य; मुफ़लिस: निर्धन।


रूह रौशन-ख़याल

पेश   हक़  का   सवाल  है  यारों
वक़्त    शर्मिंद:  हाल    है  यारों

ख़ुदकुशी कर गए कितने अनवर
क्या किसी  को  मलाल  है  यारों

कौन मुंसिफ़ है  कौन है मुजरिम
ये:    सियासत   कमाल  है  यारों

दाल-रोटी   तलक    नसीब  नहीं
क़ीमतों    में    उछाल    है  यारों

हर  तरफ़    बेबसी  के   साये  हैं
मुल्क  यूं    बेमिसाल    है  यारों

रहनुमा  से   सवाल  क्या  कीजे
कौन  किसका   दलाल  है  यारों

क्या  हुआ  जो  ग़रीब  घर  से  हैं
रूह    रौशन - ख़याल     है  यारों  !

                                             ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पेश: सम्मुख, प्रस्तुत; हक़: न्याय; शर्मिंद:  हाल: लज्जित स्थिति में; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; अनवर: मरहूम कॉमरेड 
ख़ुर्शीद अनवर साहब, जिन्होंने ग़लत आरोप से दुःखी हो कर कल, यानी 18 दिस. 2013 को ख़ुदकुशी कर ली; मलाल: दुःख, खेद; 
मुंसिफ़: न्यायाधीश; मुजरिम: अपराधी;   नसीब: उपलब्ध; बेमिसाल: अद्वितीय; रहनुमा: नेता; रौशन - ख़याल: सुविचारों से प्रकाशित। 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

ज़रा ज़िंदगी ही सही !

दिल्लगी  है  तो  ये:   दिल्लगी  ही  सही
आज  के  दिन  तुम्हारी  ख़ुशी  ही  सही

हम  न छोड़ेंगे  दामन  ख़ुदा  की  क़सम
ज़िद  हमारी  नहीं  तो  किसी  की  सही

दिल  चुरा लाए  हैं   बिन  कहे   आपका
ख़्वाब  में  एक  दिन  बदज़नी  ही  सही

हिज्र   ही   है   इलाजे-ग़मे-दिल   अगर
इस    मुदावात    में    बेरुख़ी   ही  सही

इन्क़िलाबी    हवाएं      मचलने   लगीं
मुल्क  में  इन दिनों  ख़लबली ही  सही

दस्तबस्ता     खड़े  हैं    तेरी  बज़्म  में
इश्क़  हो   या  न  हो    बंदगी  ही  सही

हैं  अगरचे  ख़फ़ा  वो:  ग़ज़ल   पे  मेरी
चंद   अल्फ़ाज़  की  ख़ुदकुशी  ही  सही

लौट  आए  हैं  ये:  सोच कर  ख़ुल्द  से
साथ    तेरे   ज़रा    ज़िंदगी    ही  सही  !

                                                    ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिल्लगी: परिहास; दामन: आंचल, साथ; बदज़नी: बुरा काम; हिज्र: वियोग; इलाजे-ग़मे-दिल: हृदय के दु:ख का उपचार; 
मुदावात: चिकित्सा-क्रम; बेरुख़ी: उपेक्षा; इन्क़िलाबी: क्रांतिधर्मा; दस्तबस्ता: कर बद्ध; बज़्म: सभा; बंदगी: भक्ति; अगरचे: यदि कहीं; 
ख़फ़ा: रुष्ट; चंद  अल्फ़ाज़: कुछ शब्द; ख़ुदकुशी: आत्मनाश; ख़ुल्द: स्वर्ग। 

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

हैं गुनहगार हम ...

हैं  गुनहगार   हम    ज़माने  के
वक़्त  को   आइना  दिखाने  के

आपको  कुछ  गिला  नहीं  हमसे
खेल  हैं  ये:    महज़    सताने  के

रूठ  जाएं    मगर     ख़याल  रहे
हम  भी   उस्ताद  हैं   मनाने  के

मश्क़   करते  रहें    निभाने  की
दिन  मुबारक   क़रीब  आने  के

दर्द  दिल  के  सहेज  कर  रखिए
ये:   नहीं   बज़्म  को  सुनाने  के

कीजिए  कुछ  जतन  मियां  वाइज़
मैकदे   में     हमें       बुलाने  के

बुत    हमारा     बना  रहे  हैं   वो:
जो  मुहाफ़िज़  हैं  क़त्लख़ाने  के  !

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनहगार: अपराधी; गिला: आक्षेप; महज़: मात्र; मश्क़: अभ्यास; मुबारक: शुभ हों; बज़्म: सभा, गोष्ठी; 
जतन: यत्न; वाइज़: धर्मोपदेशक; मदिरालय; बुत: मूर्त्ति; मुहाफ़िज़: संरक्षक; क़त्लख़ाना: वध-गृह। 

बारिशे-जज़्बात... !

अल्फ़ाज़  में  वो:  बात  नज़र  आती  नहीं  हमें
राहत  की   नर्म  रात    नज़र  आती  नहीं  हमें

हसरत  से     देखते  हैं     आजकल   दरे-हबीब
उम्मीदे- मुलाक़ात       नज़र   आती  नहीं  हमें

मग़रिब  हुई  के:  बुझ  गए  दिल  के  सभी  चराग़
अब    नूर  की  सौग़ात   नज़र  आती  नहीं  हमें

वो:    सोज़े - आशनाई   में    भीगे    हुए  ख़याल
वो:    बारिशे-जज़्बात    नज़र   आती  नहीं  हमें

इस    दौरे-मुश्किलात    की   रुस्वाइयों  से  अब
आसां     रहे - निजात    नज़र   आती  नहीं  हमें

लड़ते     रहेंगे     ज़ौरो - जब्र    के     निज़ाम  से
जब  तक  के:  तेरी  मात  नज़र  आती  नहीं  हमें

मुद्दत    से     मुंतज़िर   हैं     कोहे-तूर  पे    मगर
जल्वों  की     करामात     नज़र  आती  नहीं  हमें  !

                                                                    ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अल्फ़ाज़: शब्द (बहु.); दरे-हबीब: प्रिय का द्वार; उम्मीदे- मुलाक़ात: भेंट की आशा; मग़रिब: सूर्यास्त; 
नूर  की  सौग़ात: प्रकाश का उपहार; सोज़े - आशनाई: स्नेह का माधुर्य;  बारिशे-जज़्बात: भावनाओं की वर्षा; 
दौरे-मुश्किलात: कठिनाइयों का समय; रुस्वाइयों: अपमानों; आसां  रहे-निजात: मुक्ति का सरल मार्ग; ज़ौरो- जब्र: अत्याचार और बलात कृत्य; निज़ाम: शासन; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; कोहे-तूर: अंधकार का पर्वत; जल्वों  की करामात: ( ईश्वर के ) दर्शन का चमत्कार। 


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

मना न पाए तो ?

ज़ीस्त  में  जी  लगा  न  पाए  तो
अज़्म  अपना  बचा  न  पाए  तो

तेज़    रफ़्तार    तिफ़्ल  हैं    सारे
हम  क़दम  ही  मिला  न  पाए  तो

रूठने  का    ख़याल    जायज़  है
वक़्त  रहते   मना    न  पाए  तो

एक  तस्वीर    साथ    रख  लेते
दूर  रह  कर  भुला  न  पाए  तो

ईद  अपनी  बिगाड़िए  क्यूं  कर
वो:  गले  से  लगा  न  पाए  तो

बंदगी  का    क़रार   कर  तो  लें
आप  रिश्ता  निभा  न  पाए  तो

रात  में  जल्व: गर  न  हों  साहब
ख़्वाब  में  सर  झुका  न  पाए  तो  ?

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अज़्म: अस्मिता; तिफ़्ल: बच्चे; जायज़: उचित, वैध; बंदगी का क़रार: भक्ति का अनुबंध; जल्व: गर: प्रकट।


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

अपना अपना सराब !

अपनी  अपनी  शराब  है  यारों
अपना  अपना  सराब  है  यारों

रिज़्क़  हासिल  नहीं  फ़क़ीरों  को
वक़्त    ख़ाना- ख़राब  है  यारों 

अंदलीबे-चमन  को  होश  नहीं
और  सर  पर  उक़ाब  है  यारों

ज़िंदगी  मुख़्तसर  फ़साना  है
चंद  रोज़ा    हिसाब    है  यारों

अश्क  सीने  में  जम  गए  सारे
इसलिए    इज़्तेराब   है  यारों

जांच  लीजे  क़रीब  आ  के  भी
दिल  सरासर  गुलाब  है  यारों

वो:  हमारा  ख़ुदा  नहीं  हरगिज़
उसके  रुख़  पे  हिजाब  है  यारों

शौक़  से भूल  जाइए  इसको
यूं  ग़ज़ल  लाजवाब  है  यारों !

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सराब: मरुजल, छलावा; रिज़्क़: भोजन, दैनिक ख़ुराक़; फ़क़ीरों: भिक्षुकों, सन्यासियों; ख़ाना- ख़राब: बे-घर, भटकता हुआ; अंदलीबे-चमन: उपवन की कोयल; उक़ाब:  गरुड़, छोटे पक्षियों का शिकार करने वाला पक्षी; मुख़्तसर: संक्षिप्त;  फ़साना: मिथ्या कहानी; 
चंद रोज़ा: चार दिन का;  इज़्तेराब: व्याकुलता; रुख़: मुख;  हिजाब: आवरण। .




गुनहगार ख़ुश रहे !

इस  दौर  का  अमल  है  के:  सरकार  ख़ुश  रहे
अल्लाह    ख़ुश   रहे  न   रहे    ज़ार    ख़ुश  रहे

मरती   रहे     अवाम     अगर    भूख   से   मरे
हाकिम  है   फ़िक्रमंद    के:    बाज़ार  ख़ुश  रहे

इस  दौरे-सियासत    के    क़वायद  कमाल  हैं
कट  जाएं  सब  सिपाही  प'  सरदार  ख़ुश  रहे

एहसान   कीजिए   के:  चले  आएं    ख़्वाब  में
क्यूं  कर  न  कभी   आपका  बीमार  ख़ुश  रहे

करता  है   बंदगी  में   वफ़ा  की   अगर  उमीद
तेरा   भी   फ़र्ज़  है   के:   तलबगार    ख़ुश  रहे

क्या  तब  भी    इन्क़िलाब    ज़रूरी  नहीं  यहां
मासूम   क़ैद    में    हों    गुनहगार     ख़ुश  रहे

अब  कीजिए  अहद  के:  लौट  आएं  वही  दिन
जब  मुफ़लिसो-मज़ूर  का  घर-बार  ख़ुश  रहे  !

                                                                  ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अमल: आचरण; ज़ार: रूस के निर्दयी, जन-विरोधी शासक जो 1917 की  जन-क्रांति में परास्त हुए; 
अवाम: जनता; हाकिम: शासक; फ़िक्रमंद: चिंतित; दौरे-सियासत: राजनैतिक युग;  क़वायद: नियम (बहु.);
बंदगी: भक्ति; वफ़ा: आस्था, ईमानदारी; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; तलबगार: आशा रखने वाला; इन्क़िलाब: क्रान्ति; 
मासूम: निर्दोष; गुनहगार: अपराधी; अहद: संकल्प, प्रतिज्ञा; मुफ़लिसो-मज़ूर: निर्धन और श्रमिक-वर्ग।


गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

दावा पयम्बरी का ...!

ख़्वाब  अपना  ख़ता  न  हो  जाए
फिर  नया   हादसा   न   हो  जाए

दोस्त-एहबाब    फेर  लें     नज़रें
वक़्त    इतना    बुरा  न  हो जाए

भीड़     में     हुस्न      ढूंढने  वाले
दोस्त  से    सामना    न  हो  जाए

बाद   तर्के-वफ़ा    सलाम  न  कर
ज़ख़्म  फिर  से  हरा  न  हो  जाए

इश्क़  में  भी   वफ़ा  की  अफ़वाहें
ये:  सियासत   सज़ा  न  हो  जाए

आज     दावा      पयम्बरी  का  है
कल  कहीं   वो:  ख़ुदा  न  हो  जाए !

                                         

                                              ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ता: अपराध; हादसा: दुर्घटना; दोस्त-एहबाब: मित्र-गण; बाद तर्के-वफ़ा: सम्बंध-विच्छेद के बाद; 
पयम्बर :ईश्वरीय सन्देश ले कर आने वाला देव-दूत।

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

दिल का ऊंचा मेयार

इश्क़  जब    बेक़रार    होता  है
दिल  का  ऊंचा  मेयार  होता  है

यार  आए  न  आए  क़िस्मत  है
ख़्वाब   में    इंतज़ार    होता  है

सिर्फ़  मय  ही  नशा  नहीं  देती
दर्द  में   भी    ख़ुमार    होता  है

जब  इबादत   क़ुबूल  हो  जाए
तिफ़्ल  भी  शहसवार  होता  है

आसमां  से  क़हर  बरसता  है
इश्क़  जब   दाग़दार   होता  है

नूरे-अल्लाह  जब  बिखरता  है
वक़्त  के   आर-पार    होता  है

सामना  जब  ख़ुदा  से  होता  है
हर  अमल  का  शुमार  होता  है !

                                            (2013)

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बेक़रार: व्याकुल; मेयार: स्थिति, स्थान; ख़ुमार: तन्द्रा, उन्माद; तिफ़्ल: छोटा बच्चा, शिशु; शहसवार: घुड़सवार
क़हर: ईश्वरीय प्रकोप; दाग़दार: कलंकित; अमल: कर्म, आचरण; शुमार: गिनती।


सोमवार, 9 दिसंबर 2013

तेरे निज़ाम में जज़्बात ...

तेरे   ग़ुरूर    के    आगे    बिखर    गए  होते
ज़मीर    साथ  न   देता    तो  मर  गए  होते

तेरे  निज़ाम  में  जज़्बात  की  जगह  होती
हमारे   ख़्वाब  भी  शायद   संवर  गए  होते 

किसी  ने  काश  हमें  आज़मा  लिया  होता
तो  हम   जहां  में  कई  रंग  भर  गए  होते 

रहे-अज़ल   में    अगर  आप   सदा  दे  देते
जहां    क़दम   थे    हमारे    ठहर गए  होते

हुए  न    कर्बला  में   हम   हुसैन  के  साथी
वगरन:   हम    हुदूद   से   गुज़र  गए  होते 

ख़ुदा  यक़ीन  न  करता  अगर  अक़ीदत  पर
तो  हम  कभी  के  नज़र  से  उतर  गए  होते !

                                                           (2013)

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 


  शब्दार्थ: ग़ुरूर: घमण्ड; ज़मीर: विवेक; निज़ाम: राज; भावनाएं;मृत्यु का मार्ग;  
  सदा: आवाज़, पुकार;  वगरन:: वर्ना, अन्यथा; हुदूद: सीमाएं;  अक़ीदत: आस्था। 



रविवार, 8 दिसंबर 2013

दोबारा सफ़र में

अब  क़यामत  शहर  में  हो  तो  हो
वो:  हमारे  असर  में  हो  तो  हो

आशिक़ों  के  भरम  निराले  हैं
दाग़  माहो-क़मर  में  हो  तो  हो

खोल  रक्खी  हैं  खिड़कियां  हमने
रौशनी  उनके  घर  में  हो  तो  हो

उम्र  भर  लोग  दिल  लगाते  हैं
फ़ैसला  इक  नज़र  में  हो  तो  हो

मंज़िलों  से  पुकार  आई  है
दिल  दोबारा  सफ़र  में  हो  तो  हो

हम  न  तूफ़ां  से  हार  मानेंगे
फिर  सफ़ीना  भंवर  में  हो  तो  हो

हम  के:  बामे-नुहुम  पे  आ  पहुंचे
ज़िक्र  अपना  ख़बर  में  हो  तो  हो !

                                                 (2013)
                                   
                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़यामत: प्रलय; माहो-क़मर: चंद्रमा; सफ़ीना: नाव; बामे-नुहुम: नौवां आकाश,परलोक का प्रवेश-द्वार। 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

मलाल अपना...!

नींद  उनकी  ख़याल  अपना  है
ज़िंदगी  का  सवाल  अपना  है

चश्मे-नम  राज़  फ़ाश  करती  है
दर्द  उनका    मलाल    अपना  है

रहबरी      की  है     ख़ूब  लूटेंगे
मुल्क  रैयत  का  माल  अपना  है

सहर  के   हुस्न  में   नया  जो है
वो:  नज़र  का  कमाल  अपना  है

बात  दिल  पर  कहीं  लगे  उनके
शे'र   तो   बेमिसाल    अपना  है

कुछ  कमी  रह  गई  है  दावत  में
आजकल  ख़स्त: हाल  अपना  है

शान  से  कीजिए  न  बिस्मिल्लाह
दाना  दाना     हलाल      अपना  है !

                                                  ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चश्मे-नम: भीगी आंख; राज़  फ़ाश: रहस्योद्घाटन;  मलाल: विषाद, खेद; मार्गदर्शन, नेतृत्व; रैयत: जन-साधारण; 
सहर: उष: काल; बेमिसाल: अद्वितीय;  ख़स्त: हाल: बुरी हालत; बिस्मिल्लाह: शुभारंभ; हलाल: धर्मानुमत।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

ख़ेराजे-अक़ीदत

                                               ख़ेराजे-अक़ीदत
               
                                      जनाब  मरहूम  नेल्सन  मंडेला 


                         उसके  क़दमों  के  निशां  वक़्त  के  सीने  पे  हैं 

                         चला  ज़रूर  गया  है  वो:  शख़्स  दुनिया  से  …



                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  ज़िंदाबाद !  ज़िंदाबाद !
                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  अमर  रहें!  अमर  रहें !


                                                                                          6  दिसं  2013


                                                             -सुरेश  स्वप्निल  और  इंसानियत  के  तमाम  सिपाही
                                                                       

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

सिला - ए - इंतज़ार

रुख़  - ए - बहार   मेरे  शह्र  ने    नहीं  देखा
सिला - ए - इंतज़ार    सब्र   ने    नहीं  देखा

तू  बदगुमाँ  है   ग़रीबां  पे   ज़ुल्म  ढाता है
मेरा   जलाल    तेरे  जब्र  ने     नहीं   देखा

फ़रेब-ओ-मक्र  की   इफ़रात  है  जहाँ  देखो
ये:  दौर   और  किसी  उम्र  ने    नहीं  देखा

तू संगदिल तो नहीं है   मगर कभी तुझको
मेरे  मकां  पे   शब् - ए -क़द्र  ने  नहीं देखा !

हर एक सिम्त  आसमां से नियामत बरसी
सहरा-ए-दिल की तरफ़  अब्र ने नहीं देखा।

                                                  (2010)

                                       -सुरेश स्वप्निल  

शब्दार्थ: रुख़  - ए - बहार: बसंत का मुख; सिला - ए - इंतज़ार: प्रतीक्षा का पुरस्कार; बदगुमाँ: भ्रमित, बुरे विचार वाला; ग़रीबां: कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अ. स. के साथी; ज़ुल्म: अत्याचार; जलाल: तेज; जब्र: अन्याय, विवश करना; फ़रेब-ओ-मक्र: छल-छद्म; 
इफ़रात: बहुतायत; संगदिल: पाषाण-हृदय; मकां: क़ब्र, समाधि; शब् - ए -क़द्र: मृतात्माओं के सम्मान की रात; सिम्त: ओर; आसमां: स्वर्ग, परलोक; नियामत: कृपा; सहरा-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल; अब्र: मेघ।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

आरज़ू होती नहीं ...

जश्ने-जिस्मां  की  किसी  दम  जुस्तजू  होती  नहीं
ख़ाक   दिल    में    रौशनी-ए-आरज़ू     होती  नहीं

यूं  बहारें   इस  शहर  में    मुस्तक़िल  रहने  लगीं
क्यूं   मगर    बादे-सबा   में    रंगो-बू    होती  नहीं

अश्कबारी  का    इबादत  से    कोई    रिश्त:  नहीं
आबे-नमकीं  से    मुसलमां  की   वुज़ू  होती  नहीं

लो  तुम्हारी  ही  सही  हम  भी  मुसलमां  हो  गए
अब  न  कहियो    के:  हमारी   आरज़ू  होती  नहीं

क्या  मुअज़्ज़िन  सो  गया  है  ख़ुम्र  पी  के  दैर  में
जो  जुहर  तक   भी    सदा-ए-अल्लहू   होती  नहीं

देख  ली     हमने   इबादत  आपकी  भी   शैख़  जी
जिस्म  सज्दे  में  पड़ा  है     रू:    निगू  होती  नहीं

जब  तलक  थे  आसमां  पे  रोज़  करते  थे  कलाम
सामने   बैठे   हैं   अब   वो:    गुफ़्तगू     होती  नहीं  !

                                                                      (1996-'13)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जश्ने-जिस्मां: शरीरोत्सव; दम: क्षण; जुस्तजू: खोज; ख़ाक: बुझा हुआ; रौशनी-ए-आरज़ू: इच्छाओं का प्रकाश; मुस्तक़िल: स्थायी रूप से; बादे-सबा: प्रभात समीर;  रंगो-बू : रंग और सुगंध; अश्कबारी: रोना-धोना;  इबादत: पूजा; आबे-नमकीं: नमकीन पानी, आंसू; मुसलमां: आस्तिक;  वुज़ू: देह-शुद्धि; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; ख़ुम्र: मद्य; दैर: मस्जिद; जुहर, जुह्र: दोपहर की नमाज़; सदा-ए-अल्लहू: ईश्वर की पुकार, अज़ान; शैख़: ढोंगी धर्म-भीरु; सज्दा:नतमस्तक  प्रणाम; रू: : आत्मा; निगू: नत, झुकी हुई; कलाम:संवाद;  गुफ़्तगू:वार्तालाप। 

सोमवार, 25 नवंबर 2013

है परेशान ख़ुदा...!

चाक  दामन  उठे  हैं  महफ़िल  से
हाथ    धोते    हुए      रग़े-दिल  से

बेगुनाही         सुबूत        मांगेगी
रू-ब-रू  है   शिकार    क़ातिल  से

चांद   कैसे   तिलिस्म    करता  है
पूछ   लीजे    निगाहे-ग़ाफ़िल   से

वो:  सरे-बज़्म  लग  गए  दिल  से
बात  हमने   निभाई  मुश्किल  से

कोशिशों  में   कमी   उन्हीं  की  है
दूर  जो    रह  गए  हैं   मंज़िल  से

बोल    कश्ती    कहां     डुबोनी  है
नाख़ुदा     पूछता  है    साहिल  से

रोज़  इक  ज़ख़्म  उठा  लाता  है
है  परेशान   ख़ुदा   बिस्मिल  से !

                                             (2013)

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चाक  दामन: विदीर्ण हृदय; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; रग़े-दिल: हृदय-पिण्ड; बेगुनाही: निर्दोषिता; तिलिस्म: मायाजाल; 
निगाहे-ग़ाफ़िल: सिरफिरे, भ्रमित व्यक्ति की दृष्टि; सरे-बज़्म: भरी सभा में;   कश्ती: नौका; नाख़ुदा: नाविक;   साहिल: तट; 
ज़ख़्म: घाव; बिस्मिल: घायल। 

शनिवार, 23 नवंबर 2013

हुस्ने-हूर की बातें !

अल्लः  अल्लः  हुज़ूर  की  बातें
मुफ़लिसी  में   ग़ुरूर  की   बातें

शिद्दते-इश्क़   का   करिश्मा  है
पास  लगती  हैं    दूर  की  बातें

दाल-रोटी    यहां    नसीब  नहीं
ख़ाक  सुनिए   फ़ुतूर  की  बातें

जाम  पीकर  सिखा  गए  ज़ाहिद
आसमानी     शऊर    की   बातें

नाम  ग़ालिब  युं ही  नहीं  उनका
ख़ुल्द  में  भी     सुरूर  की  बातें

बाग़े-रिज़वां   तलाश  आए  हम
झूठ  हैं    हुस्ने-हूर     की   बातें

आज   मेहमां  हैं  वो:  हमारे  घर
याद  करते  हैं    तूर  की    बातें !

                                           (2013)

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुफ़लिसी: विपन्नता ; ग़ुरूर: घमंड; शिद्दते-इश्क़: प्रेम की तीव्रता; करिश्मा: चमत्कार;  फ़ुतूर: मनोविकार; ज़ाहिद: तपस्वी, संयमी, उपदेशक; आसमानी शऊर: स्वर्गिक, पारलौकिक शिष्टाचार; ग़ालिब: महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब; ख़ुल्द: स्वर्ग;  
सुरूर: नशा, उन्माद; बाग़े-रिज़वां: रिज़वान का बाग़, स्वर्ग का वह बाग़ जिसका रक्षक रिज़वान है; हुस्ने-हूर: अप्सराओं का सौंदर्य; 
तूर: अरब का एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा अ. स. ने ख़ुदा के प्रकाश की झलक देखी। 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

फ़िक्रे-दुनिया...!

बात     पूरी     अगर    न  हो  पाए
आज    शायद    सहर  न  हो  पाए

ख़्वाब  जो   साथ  छोड़  दें  अपना
रात  फिर   उम्र  भर   न   हो  पाए

बात  हो    इस  तरह    निगाहों  में
दुश्मनों  को    ख़बर     न  हो  पाए

इश्क़    करते    हुए    ख़याल   रहे
ज़िंदगी    ये:    ज़हर    न  हो  पाए

यार  की    नींद  में    पनाह  न  हो
ख़्वाब  यूं   शब-बदर   न  हो  पाए

अहले-ईमां  को  इश्क़  का  हक़  है
दिल   इधर  से  उधर   न  हो  पाए

फ़िक्रे-दुनिया  भी  कीजिए  लेकिन
जां  पे    बेजा  असर     न  हो  पाए

रूह    को     मग़फ़िरत    ज़रूरी  है
बस   ख़ुदा    बेख़बर    न  हो  पाए !

                                            (2013)

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ईमानदार, आस्थावान; फ़िक्रे-दुनिया: सांसारिक चिंता; रूह: आत्मा; मग़फ़िरत: मोक्ष।

जवां-उम्र में कीजे तौबा

जिसे    फ़रेबे -जहां    से    गिला   नहीं  होता
वो:  शख्स  अपने-आप  से  ख़फ़ा  नहीं  होता

देख   नासेह     गरेबां  में    झांक   कर   अपने
वक़्त  मुंसिफ़  है  किसी  का  सगा  नहीं  होता

हर   गुनहगार     ज़माने  से    मुंह  छुपाता  है
जब  तलक  आग  न  हो  तो  धुंवा  नहीं  होता

शोर    करता  है     वही    दूर  रह  के  मैदां  से
जिसमें   लड़ने   का    कोई   माद्दा  नहीं  होता

झूठ-ओ-मक्र  जो  दिल  में  छुपाए  रखता  हो
ऐसे   इंसान   के    हक़  में    ख़ुदा  नहीं  होता

ये:  सियासत  है  यहां  काम  क्या  शरीफ़ों  का
दूध  का    कोई    यहां  पर  धुला  नहीं  होता

बात  तब  है  के:  जवां-उम्र  में   कीजे  तौबा
मौत  के  बाद    कोई    रास्ता     नहीं  होता

अहले-ईमां  ही   सचाई  की   क़द्र  करते  हैं
बे-ईमानों  का  कोई  फ़लसफ़ा  नहीं  होता !

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेबे -जहां: दुनिया के छल; गिला: शिकायत; नासेह: धार्मिक शिक्षा देने वाला; मुंसिफ़: न्यायकर्त्ता; 
गुनहगार: अपराधी; माद्दा: शक्ति; मक्र: छद्म; अहले-ईमां: ईमानदार लोग; फ़लसफ़ा: दर्शन, सिद्धांत।

बुधवार, 20 नवंबर 2013

नशा नज़र का...!

तेरा  ख़याल  निगाहों  में  फिर  संवर  आया
यहां  वहां  से    लौट  के   परिंद:  घर  आया

हमें  वो:  अजनबी   जो  तूर  पर   नज़र  आया
ख़याल  क्यूं  उसी  का  फिर  शबो-सहर  आया

असर  तेरा  है    के:  बस   ख़ाम-ख़याली  मेरी
रग़े-जिगर  में  तेरा  अक्स  फिर  उभर  आया

मिले तो इस तरह  के:  नाम तक न पूछ  सके
नशा  नज़र  का  मगर  रूह  तक  उतर  आया

नफ़स-नफ़स  में  तेरा  नाम  लिए  जाते  थे
तुझे   ख़याल    हमारा    लबे-सफ़र    आया

उतर  गया  जो  शख़्स    एक  बार   नज़रों  से
हमारे  दिल  में  पलट  के   न  उम्र  भर  आया

ख़ुदा  क़सम  ये:  तेरा  शहर  छोड़  देंगे  हम
दिलों  के  बीच  कहीं  फ़ासला  अगर  आया !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तूर: अरब में सीना की वादी में स्थित एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा को ख़ुदा के नूर की एक झलक मिली; 
शबो-सहर: रात और प्रात:; ख़ाम-ख़याली: व्यर्थ भ्रम; रग़े-जिगर: हृदय की पेशी; अक्स: छाया, प्रतिबिम्ब; 
नफ़स-नफ़स: सांस-सांस; लबे-सफ़र: (अंतिम) यात्रा पर निकलते समय; फ़ासला:अंतराल। 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

तोड़ दें सब तिलिस्म !

शोख़  जज़्बात    पर  यक़ीन  नहीं
आपकी   बात     पर  यक़ीन  नहीं

यूं  यक़ीं  है    वफ़ाओं  पर  उनकी
बाज़  अवक़ात   पर  यक़ीन  नहीं

ख़्वाब  आएं  न  आएं  अब  हमको
रात  की  ज़ात   पर    यक़ीन  नहीं

तोड़  दें  सब  तिलिस्म  हम  उनके
गो    ख़ुराफ़ात    पर   यक़ीन  नहीं

पैदलों   ने     क़िला    तबाह  किया
शाह  को    मात  पर   यक़ीन  नहीं

था     भरोसा     कभी    ख़ुदाई  पर
आज    हालात  पर    यक़ीन  नहीं

ख़ाक    कर  दें     ज़मीर  को   मेरे
उन   इनायात  पर   यक़ीन  नहीं !

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़  जज़्बात: चंचल भावनाएं;   वफ़ाओं;आस्थाओं; बाज़  अवक़ात: कुछ अवसर/समय; तिलिस्म: मायाजाल; गो: यद्यपि; ख़ुराफ़ात: उद्दंडता, बदमाशी; ख़ुदाई: ईश्वरीय कृति; ख़ाक: राख़;  ज़मीर: स्वाभिमान; इनायात: कृपाएं। 

सोच का दायरा

रास्तों  की  शम'अ  बुझा  लीजे
आज    ईमान    आज़मा  लीजे

है  दिमाग़ी  फ़ितूर  हुस्न  अगर
हो  सके  तो   नज़र   हटा  लीजे

आप  वाईज़  हैं  कीजिए  इस्ला:
मैकदे     से     हमें    उठा  लीजे

ख़ौफ़  है  गर  तुम्हें  ज़माने  का
तो  हमें   ख़्वाब  में   बसा  लीजे

शायरी   की    दूकान  से    आगे
सोच  का    दायरा     बढ़ा  लीजे

दूसरों   के   लिए     दुआ  करके
रूह   को    सुर्ख़रू:     बना  लीजे !

                                            ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिमाग़ी  फ़ितूर: मानसिक भ्रम; वाईज़: धर्मोपदेशक, विद्वान; इस्ला::परामर्श; मैकदे: मदिरालय; ख़ौफ़: भय;  सुर्ख़रू:: सफल। 

रविवार, 17 नवंबर 2013

हज़ारों दाग़ हैं ...!

हमारे  पास  है  ही  क्या  किसी  का  दिल  लुभाने  को
हज़ारों  दाग़  हैं     दिल  पे     ज़माने  से     छुपाने  को

न  जाने  क्या     समझ  बैठे   के:  हंगामा  मचा  डाला
ज़रा  सी  बात  थी     हमने  कहा  था     मुस्कुराने  को

न  पूछो    सामने  सब  के   हमारी  कैफ़ियत  क्या  है
सफ़ेदी  ही    बहुत  है    बज़्म  में    नज़रें  झुकाने  को

हमारी  नज़्म  पढ़  आते  हैं  वो:   अपने  तख़ल्लुस  से
नई    ईजाद     लाए      हैं    हमें     नीचा  दिखाने   को

हमीं   पे    चोट   करते   हैं     हमीं   से    रूठ   जाते  हैं
ज़रा   सा    पास   होता   तो    चले  आते    मनाने  को

अज़ीयतदेह  हैं   आमाल   अब     अहले-सियासत  के
ख़ुदा   का    नाम    लेते  हैं    जहां  को    बरग़लाने  को

हमारे   ही     पड़ोसी   हैं     खड़े   हैं    असलहे    ले  कर
हमारी   जान    लेने   को    तुम्हारा   घर    जलाने  को !

                                                                             ( 2013 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कैफ़ियत: हाल-चाल; सफ़ेदी: वृद्धावस्था, सफ़ेद बाल; बज़्म: महफ़िल, गोष्ठी; नज़्म: गीत; तख़ल्लुस: कवि-नाम;  
ईजाद: आविष्कार;  पास: चिंता; अज़ीयतदेह: कष्टदायक; आमाल: आचरण;   अहले-सियासत: राजनैतिक लोग; जहां: संसार;   
बरग़लाने: भ्रमित करने; असलहे: शस्त्रास्त्र। 

शनिवार, 16 नवंबर 2013

नींद आए न तुझे !

क्या ख़बर  किसकी दुआ  लग  जाए
 यार    को      मर्ज़े-वफ़ा   लग  जाए

कौन  बचता  है    घाट  का   घर  का
जो   ज़माने   की    हवा    लग  जाए

शायरी    के      सिवा      पनाह  नहीं
जो  दिल  पे    संगे-जफ़ा   लग  जाए

हो   शिफ़ा    इश्क़   की     हरारत  से
शैख़  साहब    की     दवा   लग  जाए

जान     बच     जाए      बेगुनाहों  की
काश!  क़ातिल  को   हया  लग  जाए

वो:  तेरा  अक्स  लगेगा   जिस  दिन
चांद    को     रंगे-हिना      लग  जाए

नींद   आए   न     तुझे   भी    या  रब
क़ैस   की      आहो-सदा    लग  जाए !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ज़े-वफ़ा: निर्वाह का रोग; पनाह: शरण; संगे-जफ़ा: बे-ईमानी/अन्याय का पत्थर; शिफ़ा: आरोग्य;
हरारत: गर्मी, बुख़ार; शैख़: धर्म-भीरु, मद्यपान-विरोधी;हया: लज्जा; अक्स: प्रतिबिम्ब; रंगे-हिना: मेंहदी का रंग;
क़ैस: लैला का प्रेमी, मजनूं, प्रेमोन्मादी; आहो-सदा: चीख़-पुकार।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

क़द्र करते हैं !

हम  जियालों  की  क़द्र  करते  हैं
बा-कमालों     की  क़द्र  करते  हैं

दर्दमंदों       पे    जां     लुटाते   हैं
दिल के छालों  की  क़द्र  करते  हैं

जो   उतरते   हैं    रूह  से     सीधे
उन  ख़यालों   की  क़द्र  करते  हैं

आप  खुल  कर  उठाइए  हम  पे
हम  सवालों   की  क़द्र  करते  हैं

जो   शबे -तार   को    उजाले  दें
उन  मशालों  की  क़द्र  करते  हैं

हम  रईसों  को   दिल  नहीं  देते
ग़म  के पालों की  क़द्र  करते  हैं

हैं  हमारे  ख़ुदा    जो    ग़ुरबा  के
आहो-नालों    की  क़द्र  करते  हैं!

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जियालों: बहादुरों; बा-कमालों: प्रतिभाशालियों; दर्दमंदों: संवेदनशीलों; शबे -तार: अंधेरी रात; 
ग़ुरबा: निर्धनों; आहो-नालों: आर्त्तनाद। 

रविवार, 10 नवंबर 2013

बग़ावत इसी में है !

हो     एहतरामे-उम्र     शराफ़त    इसी  में  है
ढहते  हुए    मज़ार  की    इज़्ज़त इसी  में  है 

हो      वक़्ते-ज़रूरत   तो     मुंह  न  दिखाइए
नादान    दोस्तों  की    नदामत    इसी  में  है

हो  निगहबां  तेरा   वही  अव्वल  वही  आख़िर
दुनिया  के    दांव-पेच  से    राहत  इसी  में  है

इज़्ज़त  का  रिज़्क़  हो  न  झुकानी  पड़े  नज़र
अल्लाह  की    इंसां  पे     इनायत   इसी  में  है

हथियार    हाथ  में    न  उठा  फ़तह  के  लिए
ऐ     आशिक़े-हुसैन     बग़ावत   इसी  में  है !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   एहतरामे-उम्र: आयु का सम्मान; मज़ार: क़ब्र, यहां भावार्थ जर्जर शरीर; वक़्ते-ज़रूरत: आवश्यकता के समय; नदामत: विनम्रता, पश्चाताप; निगहबां: संरक्षक, ध्यान रखने वाला; अव्वल-आख़िर : आदि-अंत, ब्रह्म; रिज़्क़: आहार; इनायत: कृपा; फ़तह: विजय; नृशंस शासक यज़ीद के विरुद्ध अहिंसात्मक प्रतिरोध करने वाले, हज़रत इमाम हुसैन अ. स. के अनुयायी; बग़ावत: विद्रोह। 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

घोंसले परिंदों के

नोंच   कर     फेंक   दिए     घोंसले    परिंदों  के
अब  भी     अरमान  अधूरे  हैं   कुछ  दरिंदों  के

लोग  तूफ़ान  से  बच-बच  के  निकल  जाते  हैं
क्या  फ़रिश्ते  भी  मुहाफ़िज़  नहीं  चरिन्दों  के

जाम  में   अक्से-ज़ुल्फ़   बाम  पे  निगाहे-ख़ुदा
होश  क्यूं  कर  न  फ़ाख़्ता  हों  आज  रिंदों  के !

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                                                                          ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; दरिंदों: हिंस्र पशुओं; फ़रिश्ते: देवदूत; मुहाफ़िज़: रक्षक; चरिन्दों: घास चरने वाले पशुओं; जाम: मदिरा-पात्र; अक्से-ज़ुल्फ़: लट का प्रतिबिम्ब; बाम: झरोखा; रिंदों: मद्यपों।
* ग़ज़ल फ़िलहाल नामुकम्मल है, वजह है क़ाफ़ियात का दायरा बेहद तंग होना …
** ऐतिहासिक मिथक के अनुसार, सोमनाथ मंदिर को लूटने वाले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी का एक बेहद सुंदर ग़ुलाम था, अयाज़। एक रात जब अयाज़ महमूद के प्याले में शराब ढाल रहा था तो महमूद को उसकी ज़ुल्फ़ों की परछाईं शराब में दिखाई पड़ी.... महमूद उसी क्षण अयाज़ पर मोहित हो गया और फिर उसे दिन-रात साथ रखे रहा, अपनी मृत्यु होने तक ! इसी को लेकर अज़ीम शायर अल्लामा इक़बाल ने एक लाजवाब ग़ज़ल कही है, जिस का मक़ता है:
'न  वो:  हुस्न  में    रही  शोख़ियां     न  वो: इश्क़  में  रही  गर्मियां
न  वो:  ग़ज़नवी में  तड़प  रही  न  वो:  ख़म  है  ज़ुल्फ़े-अयाज़  में !'

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

ये: नुक़तए-नज़र ...

हमको    तीरे-नज़र  क़ुबूल  नहीं
बेशऊरों  का    दर    क़ुबूल  नहीं


दुश्मने-हुस्न   हम  नहीं  लेकिन
दिल पे  बेजा  असर  क़ुबूल  नहीं

अज़मते-मुल्क    बेचने     वालों
ये:   नुक़तए-नज़र   क़ुबूल  नहीं

चंद   सरमायदार   की     ख़ातिर
मुफ़लिसों  पे  क़हर  क़ुबूल  नहीं

कोई  समझाओ   इन  दरिंदों  को
नफ़रतों   का  ज़हर   क़ुबूल  नहीं

हमको   दोज़ख़  क़ुबूल है लेकिन
शाह    तेरा  शहर     क़ुबूल  नहीं

इब्ने-हैदर   को    छीन  ले  जाए
हमको  ऐसी  सहर  क़ुबूल  नहीं

आज   मातम   हुसैन  का  होगा
ज़िक्रे-माहो-क़मर  क़ुबूल  नहीं !

                                          ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:



अल्लः मियां बुलाते हैं !


जब  भी  तूफ़ां  क़रीब  आते  हैं
नाख़ुदा    साथ    छोड़  जाते  हैं

देख  के  लोग  साथ-साथ  हमें
संखिया  खा  के  बैठ  जाते  हैं

ज़िल्लते-हिंद  हैं  सियासतदां
क़ौम  की  बोटियां   चबाते  हैं

गर  सियासत  हमें  पसंद  नहीं
मुद्द'आ    क्यूं   इसे    बनाते  हैं

वो:  अगर शाम तक न आ पाएं
रात  भर  ख़्वाब   छटपटाते  हैं

आ   रहें    वो:     ज़रा    मदीने  से
फिर  कोई  सिलसिला  जमाते  हैं

आपके  नाम  रहा    शौक़े-सुख़न
हमको  अल्लः  मियां  बुलाते  हैं !

                                            (  2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाख़ुदा: नाविक; संखिया: एक घातक विष; ज़िल्लते-हिंद: भारत के कलंक; क़ौम: राष्ट्र; मुद्द'आ: विवाद का विषय; 
सिलसिला: मिल बैठने की युक्ति;  शौक़े-सुख़न: रचना-कर्म। 




मंगलवार, 5 नवंबर 2013

आपका जामे-नज़र ...

जी    बड़ा   तेज़    ज़हर   पीते  हैं
आजकल    आठ  पहर    पीते  हैं

जब  कोई  ज़ख़्म  उभर  आता  है
भूल   के    अपनी    उम्र   पीते  हैं

जाम   उमरा   नहीं    छुआ  करते
ख़ूने-इंसान        मगर      पीते  हैं

जीत   के    आए   हैं     अंधेरों  को
जश्न   में     जामे-सहर     पीते  हैं

उज्र  क्यूं  हो  किसी  फ़रिश्ते  को
अपने  हिस्से  की  अगर  पीते  हैं

ईद    पे     आप     बग़लगीर  हुए
उस  इनायत  का   असर  पीते  हैं

तूर   पे    त'अर्रुफ़    हुआ   जबसे
आपका     जामे-नज़र     पीते  हैं  !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जाम: मदिरा-पात्र; उमरा: अमीर ( बहुव. ), संभ्रांत-जन; ख़ूने-इंसान: मनुष्य-रक्त; जामे-सहर: उष: काल के प्रकाश की मदिरा; उज्र: आपत्ति; फ़रिश्ते: देवदूत;  बग़लगीर: गले लगना;  इनायत: कृपा; तूर: अरब का एक पहाड़ जहां हज़रत मूसा अ. स. को ख़ुदा के प्रकाश की झलक मिली; त'अर्रुफ़: परिचय; जामे-नज़र: दृष्टि-रूपी मदिरा। 


रविवार, 3 नवंबर 2013

दुश्मने-चैनो-अमन

ख़्वाब  पलकों  का  वतन  छोड़  गए
सुर्ख़   आंखों  में     जलन  छोड़  गए

चार   पत्ते      हवा   से       क्या  टूटे
सारे    सुर्ख़ाब     चमन     छोड़  गए

ख़ूब   मोहसिन   हुए     मेरे   मेहमां
चंद    अंगुश्त    क़फ़न     छोड़  गए

ख़ार    दिल  से    निकल  गए   सारे
ज़िंदगी  भर  की   चुभन   छोड़  गए

हिंद  को      अज़्म      बख़्शने  वाले
दुश्मने-चैनो-अमन          छोड़  गए

ले      गए       रूह       आसमां  वाले
जिस्म   मिट्टी  में   दफ़्न  छोड़  गए

मीरो-ग़ालिब       हमारे      हिस्से  में
सिर्फ़      आज़ारे-सुख़न     छोड़  गए !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुर्ख़: लाल; परिंद: पक्षी; मोहसिन: कृपालु-जन; चंद  अंगुश्ते-क़फ़न: चार अंगुल शवावरण; ख़ार: कांटे; अज़्म: महत्ता; 
दुश्मने-चैनो-अमन: सुख-शांति के शत्रु; रूह: आत्मा; आसमां वाले : परलोक-वासी, मृत्यु-दूत; जिस्म: शरीर; 
मीरो-ग़ालिब: हज़रात मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू  के  महानतम शायर; आज़ारे-सुख़न: रचना-कर्म का रोग।

शनिवार, 2 नवंबर 2013

सौग़ाते-नूर !

एक      सौग़ाते-नूर     ले  आए
देखिए     क्या    हुज़ूर  ले  आए

तिफ़्ल  हमसे  उम्मीद  रखते  हैं
कुछ  न  कुछ  तो  ज़ुरूर  ले  आए

ज़िद  पे   आए  हैं   दुश्मने-तौबा
चश्म  भर  के    सुरूर    ले  आए

ख़ूब  ग़म  का    इलाज    ढूंढा  है
मयकदे   में     तुयूर     ले  आए

क्या  अदा  पाई  मोहसिने-जां  ने
दो-जहां   का    ग़ुरूर     ले  आए

शाह    सुनता  नहीं    ग़रीबों  की
लोग      आवाज़े-सूर     ले  आए

हम   फ़क़ीरों के  पास  है  भी  क्या
शायरी   का     शऊर     ले  आए  !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सौग़ाते-नूर: प्रकाश का उपहार; हुज़ूर: स्वामी, ईश्वर; तिफ़्ल: बच्चे; दुश्मने-तौबा: शराब न पीने की प्रतिज्ञा के शत्रु;  
चश्म: आंख; सुरूर: नशा, मदिरा; मयकदा: मदिरालय; तुयूर: चहकने वाली चिड़िएं; मोहसिने-जां: प्राणों पर अनुग्रह करने वाला;  
दो-जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; ग़ुरूर: घमण्ड;  आवाज़े-सूर: दुंदुभि का स्वर; फ़क़ीर: संत; शऊर: शिष्टाचार।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

डूबेगा ज़माना !

तरब  से  शौक़  से  ज़िंदादिली  से
कभी  गुज़रो  मेरे  दिल  की  गली से

गरेबां  चाक  कर  लें  दिल  जला  दें
मिले  आराम  शायद   काहिली  से

हमारे     साथ      डूबेगा     ज़माना
करेगा  साज़िशें  गर  बुजदिली  से

बिगड़  जाए  न  बनती  बात  अपनी
ज़रा  कह  दो  निगाहे-आजिली  से

न  रोज़ी  का  ठिकाना  है  न  घर  का
जिए  जाते  हैं  बस  दरियादिली  से

न  जाने  कब  रुकें  मंहगाईयां  ये:
परेशां  हो  गए  सब  बेकली  से

हमें  उस  मोड़  तक  पहुंचा  न  देना
के:  दुनिया  छोड़  दें  हम  बेदिली  से

रहें  वो:  साथ  तूफ़ां  में  हमारे
गुज़ारिश  है  यही  मौला  अली  से !

                                                    ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरब: प्रसन्नता; शौक़: रुचि; ज़िंदादिली: जीवंतता; गरेबां: गला; चाक करना: काटना; काहिली: अकर्मण्यता; साज़िशें: षड्यंत्र;  
गर: यदि; बुजदिली: कायरता; निगाहे-आजिली: जल्दबाज़ी करने वाली दृष्टि;रोज़ी: आजीविका;  दरियादिली: नदी-जैसा, उदार स्वभाव; 
बेकली: बेचैनी; गुज़ारिश: प्रार्थना; मौला  अली: हज़रत अली अ. स., इस्लाम के ख़लीफ़ा, एक मत से पहले और दूसरे मत से चौथे। 

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

बंदगी का इम्तेहां

बड़े  सुकूं  से  मेरा  यार  दिलो-जां  मांगे
मगर  ये:  बात  न  हुई  के:  वो:  ईमां  मांगे

हमें  हंसी  न  आएगी  के:  जब  कोई  क़ासिद
पयामे-यार  से  पहले  कोई  निशां   मांगे

मेरी  परवाज़  पे  हंसते  हैं  जो  जहां  वाले
उन्हीं  से  आज  मेरा  अज़्म  आस्मां  मांगे

मेरे  ख़यालो-ओ-तसव्वुर  की  हद  नहीं  कोई
मेरा  वक़ार  कई  और  भी  जहां  मांगे

हमारे  इश्क़  की  तौहीन  और  क्या  होगी
ख़ुदा  हमीं  से  बंदगी  का  इम्तेहां  मांगे  !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुकूं: शांति;   ईमां: आस्था; क़ासिद: पत्र-वाहक; पयामे-यार: प्रेमी का संदेश, निशां: पहचान-चिह्न; परवाज़: उड़ान; जहां: दुनिया; अज़्म: अहम्मन्यता; आस्मां:आकाश; विचार और कल्पना-शक्ति; हद: सीमा; वक़ार: प्रतिष्ठा; जहां: ब्रह्माण्ड; तौहीन: अपमान; बंदगी: भक्ति।

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

ख़ाना-ख़राब की बातें

छोड़िए  भी    किताब    की  बातें
ये:     गुनाहो-सवाब     की   बातें

आप  जो  बिन  पिए  बहकते  हैं
क्या  सुनें  हम  जनाब  की  बातें

उलझे-उलझे   सवाल  हैं   उनके
हम  कहें  क्या  जवाब  की  बातें

भूल  ही  जाएं  तो  बुरा  क्या  है
सूरतों  की    हिजाब    की  बातें

मुद्द'आ  मत  बनाइए  दिल  का
एक    ख़ाना-ख़राब     की  बातें

कोई  कम्बख़्त   ना  करे  हमसे
मुफ़लिसी  में   शराब  की  बातें

बेशक़ीमत  है    तोहफ़:-ए-यारी
छोड़    दीजे    हिसाब  की  बातें

पी   रहे   हैं   शराब    आंखों  से
सोचते  हैं     अज़ाब    की  बातें  !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: किताब: धर्म-ग्रंथ, क़ुर'आन;  गुनाहो-सवाब: पाप-पुण्य;  हिजाब: पर्दा, मुखावरण; मुद्द'आ: बिंदु, विषय;  ख़ाना-ख़राब: गृह-त्यागी; कम्बख़्त: अभागा; मुफ़लिसी: विपन्नता; बेशक़ीमत: अति-मूल्यवान; तोहफ़:-ए-यारी: मित्रता का उपहार;  अज़ाब: पाप का फल।