उर्दू शायरी के पीराने-पीर, अज़ीम-तरीन शाहकार हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब ( 27 दिस. 1797- 15 फ़र.1869 ) का आज 216 वां यौमे-पैदाइश है। उनके लिए ख़ेराजे-अक़ीदत के तौर पर उन्हीं की एक बेहद मक़बूल ग़ज़ल आज आपके लिए पेश है, मुलाहिज़ा फ़रमाएं:
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतिज़ार होता
तिरे वा'दे पर जिए हम तो यह जान, झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर ए'तबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था 'अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे, तिरे तीरे-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
यह कहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त, नासेह
कोई चार: साज़ होता, कोई ग़म-गुसार होता
रग-ए-संग से टपकता, वह लहू, कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, यह अगर शरार होता
ग़म अगरचे: जाँ गुसिल है, प' कहाँ बचें, कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किससे मैं कि क्या है, शबे-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
हुए मरके हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़े-दरिया
न कभी जनाज़: उठता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यगान: है वह यकता
जो दुई की बू भी होती, तो कहीं दुचार होता
यह मसाइल-ए-तसव्वुफ़, यह तिरा बयान, ग़ालिब
तुझे हम वली समझते, जो न बाद: ख़्वार होता
-मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ां 'ग़ालिब'
शब्दार्थ: विसाल-ए-यार: पिया-मिलन; वा'दे: वचन; ए'तबार: विश्वास; 'अहद: प्रतिज्ञा, वचन; बोदा: कच्चा; उस्तुवार: दृढ़, पुष्ट; तीरे-नीमकश: आधा खिंचा हुआ तीर; ख़लिश: खटक, चुभन; नासेह: उपदेशक; चार: साज़: उपचारक; ग़म-गुसार: हितैषी,
दुःख का सहभागी; रग-ए-संग: पत्थर की नस; शरार: चिंगारी; जाँ गुसिल: जानलेवा, प्राणघातक; ग़म-ए-इश्क़: प्रेम का दुःख; ग़म-ए-रोज़गार: आजीविका का दुःख; शबे-ग़म: दुःख की निशा; रुस्वा: अपमानित; ग़र्क़े-दरिया: नदी या पानी में डूबा; जनाज़: : अर्थी; मज़ार: समाधि; यगान: : अनुपम; यकता: अद्वितीय; दुई: द्वैत; दुचार: दो-चार, आमने-सामने; मसाइल-ए-तसव्वुफ़: भक्ति की समस्याएं; बयान: वर्णन; वली: ऋषि, ज्ञानी; बाद: ख़्वार: मद्यप।
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतिज़ार होता
तिरे वा'दे पर जिए हम तो यह जान, झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर ए'तबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था 'अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे, तिरे तीरे-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
यह कहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त, नासेह
कोई चार: साज़ होता, कोई ग़म-गुसार होता
रग-ए-संग से टपकता, वह लहू, कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, यह अगर शरार होता
ग़म अगरचे: जाँ गुसिल है, प' कहाँ बचें, कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किससे मैं कि क्या है, शबे-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
हुए मरके हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़े-दरिया
न कभी जनाज़: उठता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यगान: है वह यकता
जो दुई की बू भी होती, तो कहीं दुचार होता
यह मसाइल-ए-तसव्वुफ़, यह तिरा बयान, ग़ालिब
तुझे हम वली समझते, जो न बाद: ख़्वार होता
-मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ां 'ग़ालिब'
शब्दार्थ: विसाल-ए-यार: पिया-मिलन; वा'दे: वचन; ए'तबार: विश्वास; 'अहद: प्रतिज्ञा, वचन; बोदा: कच्चा; उस्तुवार: दृढ़, पुष्ट; तीरे-नीमकश: आधा खिंचा हुआ तीर; ख़लिश: खटक, चुभन; नासेह: उपदेशक; चार: साज़: उपचारक; ग़म-गुसार: हितैषी,
दुःख का सहभागी; रग-ए-संग: पत्थर की नस; शरार: चिंगारी; जाँ गुसिल: जानलेवा, प्राणघातक; ग़म-ए-इश्क़: प्रेम का दुःख; ग़म-ए-रोज़गार: आजीविका का दुःख; शबे-ग़म: दुःख की निशा; रुस्वा: अपमानित; ग़र्क़े-दरिया: नदी या पानी में डूबा; जनाज़: : अर्थी; मज़ार: समाधि; यगान: : अनुपम; यकता: अद्वितीय; दुई: द्वैत; दुचार: दो-चार, आमने-सामने; मसाइल-ए-तसव्वुफ़: भक्ति की समस्याएं; बयान: वर्णन; वली: ऋषि, ज्ञानी; बाद: ख़्वार: मद्यप।
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