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शनिवार, 12 दिसंबर 2015

हम हैं ख़ानाबदोश ...



दिल  किसी  का  उधार  ले  आए
मुफ़्त  का   रोगार    ले  आए

वाद:-ए-सह्र    पर    यक़ीं  करके
हम     शबे-इंतेज़ार     ले  आए

आरज़ू-ए-फ़रेब      के      सदक़े
नफ़रतों  के     ग़ुबार    ले  आए

इंतेख़ाबात      के      तमाशे  से
मुश्किलें     बे-शुमार     ले  आए

क़र्ज़    उतरा    नहीं    बुज़ुर्ग़ों का
आप  भी    बार बार     ले  आए

दाल  औक़ात  में    थी   अपनी
सूंघने    को    अचार    ले  आए 

महफ़िले-बाद:कश    मुनक़्क़िद    थी 
शैख़     परहेज़गार        ले  आए 

आए  जब  वो  तो  चश्म  ख़ाली  थे 
रफ्त: रफ्त:     ख़ुमार     ले  आए 

हम  हैं     ख़ानाबदोश     मुद्दत  से 
लोग   घर   में   बहार     ले  आए

शह्रे-ग़ालिब    सुकूं     दे    पाया
दर्दे-सर     हम    हज़ार    ले  आए !

                                         (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रोगार:व्यवसाय, आजीविका, व्यस्तता; वाद:-ए-सह्र: नव प्रातः का वचन; यक़ीं:विश्वास;  शबे-इंतेज़ार:प्रतीक्षा की निशा;  शबे-इंतेज़ार:छल/षड्यंत्रपूर्ण अभिलाषा; सदक़े:बलिहारी जाना; नफ़रतों:घृणाओं; ग़ुबार:अंधड़; इंतेख़ाबात:चुनावों; तमाशे: नाट्य, प्रदर्शन; मुश्किलें: कठिनाइयां;   बे-शुमार:असंख्य; क़र्ज़:ऋण; बुज़ुर्ग़ों:पूर्वजों; औक़ात:सामर्थ्य; महफ़िले-बाद:कश:पियक्कड़ों की गोष्ठी; मुनक़्क़िद:आयोजित; शैख़:धर्मभीरु; परहेज़गार:अपथ्य का अभ्यास करने वाला; चश्म:नयन; ख़ाली: रिक्त; रफ्त: रफ्त:: धीरे धीरे; ख़ुमार: मदालस्य; ख़ानाबदोश: गृह-विहीन; मुद्दत: लंबा समय; बहार: बसंत; शह्रे-ग़ालिब: उर्दू के महानतम शायर हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब का नगर, दिल्ली; सुकूं: आश्वस्ति; दर्दे-सर: शिरो-पीड़ा।   



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