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बुधवार, 25 सितंबर 2013

रहबरों के बयानात

क्या  कहें  और  कहने  को  क्या  रह  गया
क़िस्स-ए-दिल  अगर  अनसुना  रह  गया

आए   भी  वो:    पिला   के    चले  भी  गए
सिर्फ़  आंखों  में    बाक़ी     नशा  रह  गया

रहबरों      के      बयानात     चुभने    लगे
शोर    के    बीच    मुद्दा     दबा    रह  गया

ख़्वाब    फिर    से    दबे  पांव   आने  लगे
शब  का  दरवाज़ा  शायद  खुला  रह  गया

उसके   इसरार   पे    जल्व:गर    हम  हुए
शैख़  का  सर   झुका  तो   झुका  रह  गया

कुछ  अक़ीदत  में  शायद   कमी  रह  गई
मेरे   घर    आते-आते     ख़ुदा    रह  गया

ज़लज़ले  ने    मिटा  दी    मेरी   गोर  तक
नाम  दिल  पे  किसी  के  लिखा  रह  गया !

                                                             ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़िस्स-ए-दिल:मन की गाथा; रहबरों: नेताओं; बयानात: भाषण; मुद्दा: काम की बात; इसरार: आग्रह; 
               जल्व:गर: प्रकट; शैख़: अति-धर्म-भीरु; अक़ीदत: आस्था; ज़लज़ले: भूकम्प; गोर: क़ब्र, समाधि  !

रविवार, 22 सितंबर 2013

सनम न जाएं कहीं !

दूर  हमसे    सनम    न  जाएं  कहीं
खा  के  झूठी  क़सम  न  जाएं  कहीं

मंज़िलें    अब    मेरी  नज़र    में  हैं
छोड़  कर  हमक़दम  न  जाएं  कहीं

सांस   आती   है     सांस   जाती  है
ज़िंदगी  के    भरम   न  जाएं  कहीं

कर  रहे  हैं   वो:    बात    जाने  की
ख़्वाब  मेरे   सहम   न  जाएं  कहीं

आह  निकले   के:  मौत   आ  जाए
दर्द   सीने  में   जम  न  जाएं  कहीं

देख  कर  हुस्न   उस   परीवश  का
वक़्त  के  पांव  थम  न  जाएं  कहीं

दोस्ती   का      पयाम     आया  है
अपने  दीनो-धरम  न  जाएं  कहीं !

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हमक़दम: पग-पग के साथी; भरम: भ्रम; परीवश: परियों जैसे चेहरे वाला;   पयाम: संदेश।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हटाइए दिल को !

ख़ुदी  को  याद  रख  के  भूल  जाइए  दिल  को
तलाशे-हुस्न  में  क्यूं  कर  गंवाइए   दिल  को

रखा  है  बांध  के  यूं    ज़ुल्फे-ख़मीदा  में   उसे
सिला-ए-इश्क़     यही   है   सताइए  दिल  को

कोई  कमी  है  इस  शहर  में  हुस्न  वालों  की
यहां-वहां    जहां    चाहे     गिराइए   दिल  को

मेरे  मज़ार  पे   फिर   आज   रौशनी-सी  है
तुलू   हुई   हैं    उम्मीदें    बुझाइए  दिल  को

ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब   पे   जो  हुए  पैदा
सुख़नवरों  से  कहां  तक  बचाइए  दिल  को

ज़रा  बताए    क्या  बुराई  है    मयनोशी  में
उसी  से  पूछ  लें  ज़ाहिद  बुलाइए  दिल  को

बुला   रहा   है    ख़ुदा    अर्श  पे   ज़माने  से
ख़याले-यार  से  अब  तो  हटाइए  दिल  को !

                                                           ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: अस्मिता, स्वाभिमान; तलाशे-हुस्न: सौंदर्य की खोज; ज़ुल्फे-ख़मीदा: घुंघराली लटें; सिला-ए-इश्क़: प्रेम का प्रतिदान; 
मज़ार: समाधि; तुलू: उदित; ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब: महान शायर मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमि; सुख़नवरों: रचनाकारों, शायरों; मयनोशी: मदिरा-पान; ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; अर्श: आकाश, परलोक; ख़याले-यार: प्रिय का विचार, प्रिय का मोह।

हंगामे आरज़ू

हाँ  बादे तर्के इश्क़   भी  इक  हादसा  हुआ
देखा  उन्हें  तो  हश्र सा  दिल  में  बपा  हुआ

अब  उसके  बाद  पूछ  न  क्या  माजरा  हुआ
अपनी  ख़ता  पे  सर  था  किसी  का  झुका  हुआ

ज़ुल्फों  में  ख़ाके राह  गिरेबां  फटा  हुआ
दूर  आ  गया  जुनूं  में  तुझे  ढूंढता  हुआ

पूछा  जो  उनसे  कौन  था  पहलू  में  ग़ैर  के
मारे  हया  के  फिर  न  उठा  सर  झुका  हुआ

हंगामे आरज़ू  न  हुआ  ख़त्म  जीते  जी
मर कर  के  ख़्वाहिशों  का  मेरी  फ़ैसला  हुआ

देखा  जो  उसने  लुत्फ़  से  'राजन'  रक़ीब  को
पहलू  से  ख़ून  हो  के  मेरा  दिल  जुदा  हुआ

                                                             -चित्रेन्द्र  स्वरूप  'राजन'

शब्दार्थ: बादे तर्के इश्क़: प्रेम-परित्याग के बाद; हादसा: दुर्घटना; हश्र: प्रलय; बपा: उठा हुआ; माजरा: घटना;  ख़ता: दोष, भूल; 
ख़ाके राह: रास्ते की धूल; गिरेबां: उपरिवस्त्र; जुनूं: उन्माद; पहलू: गोद; हया: लज्जा; हंगामे आरज़ू: इच्छाओं का शोर; लुत्फ़: रुचि;  
रक़ीब: प्रतिद्वंदी। 




बुधवार, 18 सितंबर 2013

ज़िंदगी यूं दर-ब-दर

अगर    उफ़क़  पे    हमारी  नज़र  नहीं  होती
सबा-ए-सहर   ख़ुश्बुओं  से   तर   नहीं  होती

हमीं ने  आपकी  आंखों  में  कशिश  पैदा  की
मगर  हमीं  पे    आपकी    नज़र  नहीं  होती

वक़्त  करता  है  बहुत  कोशिशें  मिलाने  की
कभी  तुम्हें  कभी  हमको  ख़बर  नहीं  होती

शबे-विसाल  भी  आती  है  शबे-हिजरां  भी
हरेक  रात  की   लेकिन    सहर  नहीं  होती

तेरी  दुआ  भी    हमें    यूं  फ़रेब  लगती  है
हमारे  ग़म  में  कभी  पुरअसर  नहीं  होती

तेरे    हुज़ूर   में    इंसान    गर     बराबर  हैं
तो  तेरी  नज़्रे-करम  क्यूं  इधर  नहीं  होती

ख़ुदा  अगर  हमारे  सर  पे  हाथ  रख  देता
हमारी  ज़िंदगी  यूं  दर-ब-दर  नहीं  होती  !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; सबा-ए-सहर: प्रभात-समीर; तर: भीगी; कशिश: आकर्षण; शबे-विसाल: मिलन-निशा; शबे-हिजरां: वियोग-निशा; सहर: उषा; फ़रेब: छल; पुरअसर: प्रभावकारी; हुज़ूर: दरबार, समक्ष; नज़्रे-करम: कृपा-दृष्टि; दर-ब-दर: द्वार-द्वार भटकती, यायावर।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

ये: गुनाहों का घर

दिल     अगर    बेख़बर    नहीं  होता
दर्द        शामो-सहर        नहीं  होता

हुस्न      तेरा     अगर    करामत  है
हम  पे  क्यूं  कर   असर  नहीं  होता

जिस्म  रहता  जो  रूह  से  मिल  के
ये:   गुनाहों    का   घर     नहीं  होता

पास       आतीं      न     मंज़िलें  मेरे
तू     अगर     हमसफ़र   नहीं  होता

जो    न    होती    दुआ    बुज़ुर्गों  की
शे'र           ज़ेरे-बहर       नहीं  होता

जल्वागर  हैं   नज़र  में   रख  लीजे
मोजज़ा      उम्र    भर     नहीं  होता

दूर     रहते     अगर     सियासतदां
ख़ाक    दिल  का  शहर   नहीं  होता !

                                             ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: करामत: चमत्कारी; ज़ेरे-बहर: छंद में; जल्वागर: प्रकट, दृश्यमान; मोजज़ा: चमत्कार; सियासतदां: राजनेता।

रविवार, 15 सितंबर 2013

इनायत किया करें

चल  कर  किसी  फ़क़ीर  की  सोहबत  किया  करें
हम  सोचते  हैं  हम  भी  इबादत  किया  करें

फिरते  हैं  दिल  के  चोर  शहर  में  गली-गली
कब  तक  ज़रा-सी  शै  की  हिफ़ाज़त  किया  करें

रखते  हैं  अपने  दिल  में  हर  मुरीद  की  जगह
हम  वो:  नहीं  के:  दिल  पे  सियासत  किया  करें

चुन-चुन  के  बांटते  हैं  शबे-वस्ल  का  इनाम
वो:  हैं  ख़ुदा  तो  सब  पे  इनायत  किया  करें

अच्छा  नहीं  के:  बज़्म  में  इस्लाह  दे  कोई
बेहतर  है  दिल  में  आ  के  नसीहत  किया  करें

जी  तो  रहे  हैं  अपनी  ख़ुदी  को  संभाल  के
किस  बात  पे  ख़ुदा  से  शिकायत  किया  करें ?

                                                                 ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़क़ीर: साधु; सोहबत: संगति;  इबादत: पूजा-पाठ;  शै: वस्तु;  हिफ़ाज़त: सुरक्षा;   मुरीद: प्रशंसक;  शबे-वस्ल:मिलन-निशा;           इनायत: कृपा; बज़्म: गोष्ठी;  इस्लाह: परामर्श, सुझाव; नसीहत: समझाना; ख़ुदी: स्वत्व। 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

ये: ख़ूं-रेज़ी ये: वहशत..

चलो  बस  ठीक  है  हम  ही  क़दम  पीछे  हटाते  हैं
ज़रा  देखें  तो  हम  भी    आप    कैसे  दूर  जाते  हैं

हमारे   साथ    उनके  नाज़-ओ-अंदाज़    वाहिद  हैं
कभी  नज़रें    मिलाते  हैं    कभी  आंखें  दिखाते  हैं

बड़े    ख़ुद्दार   बनते  हैं    न  आएं     ख़्वाब  में  मेरे
यहां  क्या  दावतें  दे-दे  के  महफ़िल  में  बुलाते  हैं

सियासत  ने  ज़रा  सी  देर  में   ख़ू  ही  बदल  डाली
ज़िबह  करते  हुए  भी  आजकल  वो:  मुस्कुराते  हैं

इसी  को  लोग  अपना  धर्म  या  मज़हब  समझते  हैं
किसी  की  जान  लेते  हैं    किसी  का  घर  जलाते  हैं

ये:  ख़ूं-रेज़ी  ये:  वहशत  तो  महज़  तफ़रीह  है  उनकी
मगर   इस  ज़ौक़    में    लाखों     घरोंदे    टूट  जाते  हैं

बसाया  हमने  अपने  दिल  में  जबसे  नाम  मौला  का
फ़रिश्ते  भी     हमारे    घर  के  आगे    सर  झुकाते  हैं !

                                                                             ( 2013 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाज़-ओ-अंदाज़: भाव-भंगिमाएं; वाहिद: नितांत भिन्न, अनूठे; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; महफ़िल: सभा;
ख़ू: चारित्रिक विशिष्टता; ज़िबह: धर्म-सम्मत रूप से वध; ख़ूं-रेज़ी: रक्त-पात; वहशत: उन्माद; ज़ौक़: मनोरंजन।




गुरुवार, 12 सितंबर 2013

ख़ुदकुशी का गुनाह

ख़्वाब  पर     ऐतबार    कर  लीजे
ज़िंदगी   को     बहार    कर  लीजे

ख़ुदकुशी  का   गुनाह   मत  कीजे
इश्क़  का    रोज़गार     कर  लीजे

दर्द  को   दीजिए   जगह  दिल  में
शाइ'री  को    क़रार     कर   लीजे

हम  भी  आख़िर  ख़ुदा  के  बंदे  हैं
दोस्तों   में     शुमार     कर  लीजे

रफ़्ता-रफ़्ता    पिघल  रहे  हैं   वो:
और  कुछ    इंतज़ार    कर  लीजे

है   सियासत   पसंद     तो  पहले
रूह   को     दाग़दार      कर  लीजे

छू   न   पाएंगे     अज़्मते-ग़ालिब
आप  कोशिश  हज़ार    कर  लीजे !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; गुनाह: पाप, अपराध; क़रार: सांत्वना का साधन;  बंदे: अनुयायी, मानने वाले;   
शुमार: सम्मिलित;   रफ़्ता-रफ़्ता: धीमे-धीमे;    सियासत: राजनीति, छल-कपट;    रूह: आत्मा;     दाग़दार: कलंकित; 
अज़्मते-ग़ालिब: महान शायर जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रतिष्ठा, उच्च स्थान ।

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

जहां साहिल नज़र आया...

सबा   आए    सहर   आए    परिंदों    की    सदा  आए
हमारा  दिल  खुला  है  जिसकी  मर्ज़ी  हो  चला  आए

दिया  करते  थे  हरदम  बद्दुआ  रस्मे-वफ़ा  को  हम
करम  की  इन्तेहा    ये:   है    हमारे  घर  ख़ुदा  आए

खड़े  हैं  तश्ना-लब   घर  फूंक  के   राहे-तसव्वुफ़  में
मिलें  गर  पीर  से  नज़रें  तो  जी-भर  के  नशा  आए

किया  गिर्दाब  से  गर  इश्क़  हमने  तो  निभाया  भी
जहां  साहिल    नज़र  आया   सफ़ीने  को  डुबा  आए

सभी  कुछ  सोच  के  थामा  है   हमने   दामने-मौला
जज़ा  आए   क़ज़ा  आए   के:  जीने  की  सज़ा  आए

ख़याले-यार  ने    जिस  दिन    ख़ुदा  से    दूर  बैठाया
उसी  दिन   हम    सुबूते-आशनाई   को    मिटा  आए

सियासत  के  दरिंदों  ने  शहर  को  ख़ाक़  कर  डाला
ख़ुदा  उतरे  दिलों  में  तो   उम्मीदों  की  शुआ  आए  !

                                                                       ( 2013 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सबा: प्रातः समीर; सहर: उषा; सदा: स्वर, पुकार; बद्दुआ: अभिशाप;  रस्मे-वफ़ा: निर्वाह-प्रथा; करम: कृपा; इन्तेहा: अति, सीमा;  तश्ना-लब: प्यासे होंठ; भक्ति-मार्ग, पूर्ण समर्पण का मार्ग; पीर: गुरु, ईश्वर-प्राप्ति का माध्यम; गिर्दाब: भंवर;  साहिल: किनारा; 
सफ़ीने को: नाव को; मौला: हज़रत मौला अली, ख़ुदा के सच्चे सेवक;जज़ा: पारितोषिक; क़ज़ा: मृत्यु; सज़ा: दंड; 
ख़याले-यार: प्रिय का ध्यान; सुबूते-आशनाई: प्रेम के प्रमाण; सियासत: राजनीति;   दरिंदों: हिंस्र पशुओं;   ख़ाक़: राख़; शुआ: किरण। 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

क़ौम से दग़ा...

तमाम   उम्र    गुज़ारी  है     ये:  दुआ  करते
हमारे  दोस्त   किसी  रोज़  तो  वफ़ा  करते

कहीं    सुराग़  तो  पाएं     के:    ऐतबार  करें
वो:  इश्क़  में  हैं  तो  क्यूं कर  न  राब्ता  करते

हमें  उम्मीद  नहीं  अब  किसी  शिफ़ाई  की
तबीब  थक  चुके  हैं  मुल्क  की  दवा  करते

ये:  हुक्मराने-वतन  हैं  के:  दुश्मने-जां  हैं
ज़रा  भी  शर्म  नहीं  क़ौम  से  दग़ा  करते

उन्हें  क़ुसूर  न  दीजे  के:  बदगुमां  हैं  वो:
हमीं  को  वक़्त  नहीं  था  के:  आशना  करते

वहां  वो:  बज़्मे-दुश्मनां  में  पढ़  रहे  हैं  ग़ज़ल
यहां    तड़प   रहे  हैं    हम     ख़ुदा-ख़ुदा  करते

मेरे  शहर  में  नफ़रतों  के  बीज  मत  बोना
यहां  ज़मीं  में    असलहे    नहीं  उगा  करते  !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वफ़ा: निर्वाह; चिह्न, संकेत, सूत्र; ऐतबार: विश्वास; राब्ता: संपर्क; शिफ़ाई: आरोग्य; तबीब: चिकित्सक;
हुक्मराने-वतन: देश के शासक; दुश्मने-जां: प्राण-शत्रु; क़ौम: राष्ट्र; दग़ा: धोखाधड़ी; क़ुसूर: दोष; बदगुमां: भ्रमित, बहके हुए; 
आशना: संगी-साथी; बज़्मे-दुश्मनां: शत्रुओं के आयोजन, सभा; नफ़रतों: घृणाओं; असलहे: अस्त्र-शस्त्र।

रविवार, 8 सितंबर 2013

तूफ़ां कहां ठहरते हैं ?

लोग  न  जाने    क्या  क्या    बातें  करते  हैं
हम  तो  लब  की  ज़ुम्बिश  से  भी  डरते  हैं

तंज़ीमें    मज़हब  को    खेल    समझती  हैं
जाहिल  इन्सां    आपस  में   लड़  मरते  हैं

हम  मुफ़लिस  तो   ईंधन  हैं   सरमाए  का
ज़िंदा     रहने     का     जुर्माना     भरते  हैं

बेबस  अक्सर    चट्टानी  दिल    रखते  हैं
अपने     आगे     तूफ़ां     कहां    ठहरते  हैं

ज़र्फ़  समंदर  का  जब  भी  कम  होता  है
साहिल  के    सीने  पे     क़हर  गुज़रते  हैं  !

                                                          ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: लब की ज़ुम्बिश: होंठ की थिरकन; तंज़ीमें: राजनैतिक दल, संगठन; मज़हब: धर्म; जाहिल: अनपढ़, अल्प-बुद्धि; 
मुफ़लिस: निर्धन; सरमाए: पूँजी; जुर्माना: अर्थ-दण्ड; ज़र्फ़: गहराई, धैर्य; साहिल: तटबंध। 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

रुख़ बदल ही गया ...

ज़ब्त    करते  हैं   मुस्कुराते  हैं
हिज्र  में   भी   वफ़ा  निभाते  हैं

हम  किसी  को  दग़ा  नहीं  देते
सब  यही    फ़ायदा    उठाते  हैं

ख़ाक़  हो  जाएं  तो   होने  दीजे
आप  ही   तो    हमें  जलाते  हैं

हम   हक़ीक़त-पसंद   हैं  यारों
वक़्त  को   आइना  दिखाते  हैं

नींद  आने   लगी    हमें  जबसे 
ख़्वाब आ-आ  के लौट  जाते  हैं

रुख़ बदल ही गया  हवाओं  का
रूठ  के    वो:    हमें  मनाते  हैं

जिसको बंदों की फ़िक्र होती  है
हम  उसी  को   ख़ुदा  बताते  हैं  !

                                         ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ब्त: संयम; हिज्र: वियोग; वफ़ा: आस्था; दग़ा: धोखा; ख़ाक़: राख;  हक़ीक़त-पसंद: यथार्थवादी;  
 मुद्द'आ: विवाद का विषय; रुख़: दिशा;  बंदों: भक्तों। 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

ख़्वाब बेसहारे हैं !

दोस्त    यूं    तो    कई    हमारे  हैं
आप   लेकिन   सभी  से  प्यारे  हैं

आज  फिर  नींद  ने  फ़रेब  किया
आज  फिर    ख़्वाब     बेसहारे  हैं

चोट    गहरी   हुई  सी    लगती  है
तीर  ये:  किस   नज़र  ने  मारे  हैं

लोग    वो:    ख़ुशनसीब    हैं  सारे
जो    ग़मे-ज़ीस्त    के   सहारे  हैं

हमको  तारीकियां  मिटा   न  सकीं
हम   फ़क़त   रौशनी  से   हारे  हैं

आपकी    हर  निगाह   के  सदक़े
क़र्ज़      हमने     कई    उतारे  हैं

शुक्रे-अल्लाह     मौत     आई  है
मेरे  अश'आर   अब   तुम्हारे  हैं !

                                             ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेब: छल; जीवन-दुःख; तारीकियां: अंधकार; फ़क़त: मात्र;  सदक़े: न्यौछावर; शुक्रे-अल्लाह: अल्लाह की कृपा; 
अश'आर: शे'र का बहुवचन। 

ख़ुदा को जवाब ?

दर्द   देंगे    वो:    या      दवा  देंगे
हम  तो  हर  हाल  में  निभा  देंगे

आज  नूरे-नज़र  हैं  हम  जिनके
कल  वही    आंख  से   गिरा  देंगे

कौन  जाने  के:  क्या  करेंगे  हम
वो:  अगर   बज़्म  से     उठा  देंगे

रफ़्ता-रफ़्ता  करें  वो:  क़त्ल  हमें
नफ़्स  दर  नफ़्स   हम   दुआ  देंगे

हम  तभी     ख़ूं-बहा     करेंगे  तय
आप    जिस   रोज़    मुस्कुरा  देंगे

बस  वज़ारत  उन्हें  मिली  समझो
रिश्तेदारों       को      फ़ायदा   देंगे

हम  ख़िलाफ़त  अगर  करें  दिल  की
तो  ख़ुदा  को    जवाब    क्या  देंगे ?!

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नूरे-नज़र: दृष्टि; बज़्म: सभा, महफ़िल; रफ़्ता-रफ़्ता: धीमे-धीमे; नफ़्स दर नफ़्स: हर सांस में;   
ख़ूं-बहा  : प्राणों का मूल्य, वध-मूल्य;   वज़ारत: मंत्रि-पद;  ख़िलाफ़त: विरोध। 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

रहम होता अगर ...

ख़ुदा  को  थी   शिकायत    तो  हमें  बतला  नहीं  देते
हमें  ज़ाहिद  के  घर  का    रास्ता  दिखला  नहीं  देते

हमारी  फ़िक्र  थी  तो  तुम  हमारा  ग़म  समझ  लेते
बहानों  से  हमें   तुम    इस  तरह    बहला  नहीं  देते

ज़रा  सा    दर्द  था    नज़रें  मिला  के    दूर  कर  देते
नक़ब  में    मुंह  छुपा  के    यूं  हमें  टहला  नहीं  देते

बड़े  मुर्शिद  बना  करते  हो    ये:  भी  हम  ही  समझाएं
के:  सर  पे  हाथ  रख  के    क्यूं  ज़रा   सहला  नहीं  देते

ग़लत  थे  हम  अगर   तो  भी तुम्हारा  फ़र्ज़  बनता  था
हमें    दिल  से  लगा  के    प्यार  से    समझा  नहीं  देते

गए   हम   जब   ख़ुदा   के   घर    हमारे  हाथ   ख़ाली  थे
रहम  होता  अगर  दिल  में  तो  वो:  क्या-क्या  नहीं  देते !

                                                                              ( 2013 )

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; नक़ब: नक़ाब, मुखावरण; मुर्शिद: धर्म-गुरु, पीर; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; रहम: दया।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

शाह को नज़ला !

नए   अहद     नई   वफ़ा     तलाश    करते  हैं
रहे-अज़ल    नया   ख़ुदा     तलाश    करते  हैं

यहां  की   आबो-हवा   अब   हमें  मुफ़ीद  नहीं
नई   सहर     नई   सबा     तलाश     करते  हैं

मेरे    हबीब   दुश्मनों  से   मिल  गए    शायद
मेरे     ख़िलाफ़    मुद्द'आ    तलाश    करते  हैं

मुहब्बतों  के   शहर  में    जिया  किए    तन्हा
सफ़र   के    वास्ते     दुआ    तलाश  करते  हैं

बना   लिया   है   तेरा  नाम   तख़ल्लुस  हमने
तेरे   लिए    भी     मर्तबा    तलाश    करते  हैं

ज़रा  सी   देर   कहीं   ख़ुद  से   रू-ब-रू   हो  लें
भरे   शहर   में    तख़्लिया   तलाश   करते  हैं

हुआ  है  शाह  को  नज़ला  अजब  मुसीबत  है
तबीबे-दो जहां      दवा      तलाश      करते  हैं !   

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  अहद: संकल्प;  वफ़ा: निर्वाह करने वाले; रहे-अज़ल: मृत्यु का मार्ग; आबो-हवा: हवा-पानी, पर्यावरण; मुफ़ीद: लाभदायक;  
सहर: उषा; सबा: ठंडी पुरवाई;  हबीब: प्रिय-जन; ख़िलाफ़: विरुद्ध; मुद्द'आ: बिंदु, विवाद का विषय; तख़ल्लुस: कवि या शायर का उपनाम; मर्तबा: पदवी;  रू-ब-रू: साक्षात्कार; तख़्लिया: एकांत; नज़ला: सर्दी-ज़ुकाम; तबीबे-दो जहां: दोनों लोक- इहलोक, परलोक के चिकित्सक।           

शराफ़त की हद !

हम  तेरे  ख़्वाब  में  जब  से  आने  लगे
दोस्त     हम  से    निगाहें   चुराने  लगे

दी  हमीं ने  तुम्हें  दिलकशी  की  नज़र
तुम  हमीं  को    निशाना    बनाने  लगे

यार, ये:  तो  शराफ़त  की  हद  हो  गई
फिर    हमें    छेड़  के    मुस्कुराने  लगे

बेवक़ूफ़ी   हुई    जो   उन्हें   दिल  दिया
वो:      हमारा   तमाशा      बनाने  लगे

हाथ   पकड़ा   नहीं  था   अभी  ठीक  से
ज़ोर     सारा    लगा   के    छुड़ाने  लगे

शे'र  कहने  का  हमसे  हुनर  सीख  के
बुलबुलों   की    तरह    चहचहाने  लगे

ये:   असर  है  हमारा   के:  बस  बेख़ुदी
वो:    हमारी   ग़ज़ल    गुनगुनाने  लगे

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिलकशी: चिताकर्षण; हुनर: कौशल; बेख़ुदी: आत्म-विस्मरण।

सोमवार, 2 सितंबर 2013

हमें मुद्द'आ बनाते हैं...

हम  अगर  खुल  के मुस्कुराते  हैं
क्या  बताएं   के:  क्या  छुपाते  हैं

दिल तो महफ़ूज़ रख नहीं  पाए
दांव      ईमान    पे    लगाते  हैं

जो    शबे-ग़म    गुज़ार  लेते  हैं
अपनी  तक़दीर   ख़ुद  बनाते हैं

मांगते  हैं   दुआ   मुहब्बत  की
मौत    का    दायरा    बढ़ाते  हैं

जब कभी दिल पे बात आती है
वो:    हमें    मुद्द'आ   बनाते  हैं

मश्वरा    चाहिए    मुहब्बत  पे
मीरवाइज़     हमें     बुलाते  हैं

अर्श  जब-जब  फ़रेब  देता  है
ग़म  हमें    रास्ता  दिखाते  हैं  !

                                     ( 2013 )

                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: महफ़ूज़: सुरक्षित; ईमान: आस्था; शबे-ग़म: दुःख की रात्रि; मुद्द'आ: विषय; मश्वरा: परामर्श; 
मीरवाइज़: प्रमुख धर्मोपदेशक; अर्श: आसमान, भाग्य। 

 

रविवार, 1 सितंबर 2013

बुतों से अर्ज़े-हाल

लोग    क्या-क्या    कमाल   करते  हैं
मुफ़लिसों      से     सवाल    करते  हैं

हम  बुज़ुर्गों   के   बस  की  बात  नहीं
काम      जो      नौनिहाल    करते  हैं

बदज़ुबानी      हमें      भी     आती  है
बस,    अदब   का   ख़याल   करते  हैं

हुक्मरां       सिर्फ़       जेब    भरते  हैं
काम        सारा     दलाल     करते  हैं

वक़्त    हर   दिन    बुरा    नहीं  होता
आप    क्यूं   कर    मलाल   करते  हैं

दोस्त        देखे      नए     ज़माने  के
दोस्त   को    ही     हलाल    करते  हैं

दर्द     हमसे     कहें    तो    बात  बने
बुतों      से      अर्ज़े-हाल     करते  हैं  !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कमाल: अजीब, अटपटे काम; मुफ़लिसों: निर्धनों;   सवाल: मांग, कुछ पाने का प्रयास; नौनिहाल: बालक; बदज़ुबानी: कटु-भाषिता; अदब: शिष्टाचार; हुक्मरां: शासनाधिकारी; मलाल: विषाद;   हलाल: धर्मानुमत विधि से गला काटना; बुतों: मूर्त्तियों;  अर्ज़े-हाल: स्थिति का वर्णन।