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शनिवार, 14 दिसंबर 2013

मना न पाए तो ?

ज़ीस्त  में  जी  लगा  न  पाए  तो
अज़्म  अपना  बचा  न  पाए  तो

तेज़    रफ़्तार    तिफ़्ल  हैं    सारे
हम  क़दम  ही  मिला  न  पाए  तो

रूठने  का    ख़याल    जायज़  है
वक़्त  रहते   मना    न  पाए  तो

एक  तस्वीर    साथ    रख  लेते
दूर  रह  कर  भुला  न  पाए  तो

ईद  अपनी  बिगाड़िए  क्यूं  कर
वो:  गले  से  लगा  न  पाए  तो

बंदगी  का    क़रार   कर  तो  लें
आप  रिश्ता  निभा  न  पाए  तो

रात  में  जल्व: गर  न  हों  साहब
ख़्वाब  में  सर  झुका  न  पाए  तो  ?

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अज़्म: अस्मिता; तिफ़्ल: बच्चे; जायज़: उचित, वैध; बंदगी का क़रार: भक्ति का अनुबंध; जल्व: गर: प्रकट।