Translate

शनिवार, 30 अप्रैल 2016

ख़्वाब हूरों के...

जब्र  से  बंदा  बनाना  ठीक  है  ?
और  फिर  एहसां  जताना  ठीक  है  ?

रिंद  को  मजबूर  करके  ख़ुम्र  से
शैख़  को  सेहरा  सजाना  ठीक  है  ?

क्या  हक़ीक़त  है  सुने-समझे  बिना
ग़ैर  पर  तोहमत  लगाना  ठीक  है  ?

मुफ़्लिसो-मज़्लूम  की  छत  छीन  कर
ताजिरों  को  सर  चढ़ाना  ठीक  है  ?

आदमी  को  हाशिये  पर  डाल  कर
ज़ार  का  जन्नत  बसाना  ठीक  है  ?

शाह  का  सारे  फ़राईज़ भूल  कर
इशरतों  में  ज़र  लुटाना  ठीक  है  ?

जब  मज़ाहिब  में  अक़ीदत  ही  नहीं
ख़्वाब  हूरों  के  दिखाना  ठीक  है  ?

तूर  पर  हमको  बुला  कर  आपका
आस्मां  से  मुस्कुराना  ठीक  है  ?

                                                                              (2016)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जब्र : बल ; बंदा : भक्त, अनुयायी ; एहसां : अनुग्रह ; रिंद : मद्यप ; ख़ुम्र : मदिरा ; शैख़ : धर्मोपदेशक ; सेहरा : वर को पहनाया जाने वाला शिरो-वस्त्र, पगड़ी ; हक़ीक़त : यथार्थ, वास्तविकता ; ग़ैर : अन्य ; तोहमत : आरोप, दोष ; मुफ़्लिसो-मज़्लूम : वंचित-दलित ; ताजिरों : व्यापारियों ; हाशिये : सीमांत ; ज़ार : निरंकुश शासक ; जन्नत : स्वर्ग ; फ़राईज़ : कर्त्तव्य (बहुव.) ; इशरतों : विलासिताओं ; ज़र : धन, स्वर्ण ; मज़ाहिब : धर्म (बहुव.) ; अक़ीदत : आस्था ; ख़्वाब : स्वप्न ; हूरों : अप्सराओं ; तूर : एक मिथकीय पर्वत, ईश्वर के प्रकट होने का स्थान ; आसमां : आकाश, स्वर्ग ।

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

मैकदा है गवाह...

जब  हमें  रास्ता  नहीं  होता
दोस्तों  का  पता  नहीं  होता

सब  गुनहगार  हैं  मुहब्बत  के
अब  कोई  बे-ख़ता  नहीं  होता

खैंच  लाता  है  दिल  को  सीने  से
शे'र  यूं  ही  क़त्'.अ  नहीं  होता

रोग  दिल  का  न  हम  लगा  लेते
दर्द  भी  लापता   नहीं  होता

मुश्किलाते-ग़रीबो-मुफ़लिस  से
शाह  को  वास्ता  नहीं  होता

मैकदा  है  गवाह  सदियों  से 
शैख़  भी  देवता  नहीं  होता

तूर  पर  वो  दिखाई  देते  हैं
पर  कभी  राब्ता  नहीं  होता  !

                                                                       (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनहगार : अपराधी ; बे-ख़ता : निर्दोष, दोष-रहित ; क़त्'.अ : समाप्त ; मुश्किलाते-ग़रीबो-मुफ़लिस : निर्धन-वंचितों की कठिनाइयों ; वास्ता : संबंध, चिंता ; मैकदा : मदिरालय ; शैख़ : धर्मोपदेशक ; तूर :एक मिथकीय पर्वत, जहांईश्वर ने हज़रत मूसा अलैहि सलाम को दर्शन दिए थे ; राब्ता : संपर्क ।
 

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

होश क़ायम रहे ...

दांव  उल्टा  पड़ा  हसीनों  का
दम  न  निकला  तमाशबीनों  का

इश्क़  दो  रोज़  में  नहीं  मिलता
सब्र  भी  चाहिए  महीनों  का

सांप  निकले  हैं  घर  बसाने  को
देखते  नाप  आस्तीनों  का

वक़्त  के  हाथ  पड़  गए  जिस  दिन
रंग  उड़  जाएगा  नगीनों  का

गिर  रहा  है  जम्हूर  का  रुतबा
होश  क़ायम  रहे   ज़हीनों  का


ज़ार  को  खींच  लाए  घुटनों  पर
ख़ूब  है  हौसला  कमीनों  का

ज़ीस्त  क्या  है  सराय  फ़ानी  है
दर्द  समझे  ख़ुदा  मकीनों  का  !

                                                                          (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हसीनों : सुंदर व्यक्तियों ; दम : प्राण ; तमाशबीनों : कौतुक देखने वालों ; सब्र : धैर्य ; नगीनों : रत्नों ; जम्हूर : लोकतंत्र ; रुतबा : स्थान, प्रतिष्ठा ; होश : चेतना, विवेक ; क़ायम : स्थिर, शास्वत ; जहीनों : बुद्धिमानों, विद्वानों ; ज़ार : इतिहास प्रसिद्ध अत्याचारी शासक ; हौसला : उत्साह ; कमीनों : लघु श्रमिक, कार्मिक ; ज़ीस्त : जीवन ; सराय : धर्मशाला, प्रवास-स्थान ; फ़ानी : विनाश्य ; मकीनों :प्रवासियों ।

मेहमां-ए-चंद रोज़

जीना  पड़ा  तो  दर्द  जबीं  पर  उभर  गए
ख़ुद्दार  ख़्वाब  टूट  ज़मीं  पर  बिखर  गए

मुश्किल  में  है  ज़मीर  तो  ईमान  दांव  पर
कुछ  बेहया  दरख़्त  जड़ों  से  उखड़  गए

मस्जिद  में  हो  पनाह  न  मंदिर  में  आसरा
किसका  क़ुसूर  है  कि  परिंदे  उजड़  गए

ग़म  इस  तरह  मिले  कि  दिलो-जान  हो  गए
मेहमां-ए-चंद  रोज़  अज़ल  तक   ठहर  गए

दिल   को   है  जिनकी  फ़िक्र  वही  बेनियाज़  हैं
कैसे  कहें  कि  ख़्वाब  हमारे  संवर  गए

देहक़ां  के  हाल-चाल  से  दिल्ली  है  बे-ख़बर
सीने  में  दिल  नहीं  है  कि  एहसास  मर  गए

जब-जब  किसी  ग़रीब  के  दिल  से  उठी  है  आह
वो  ज़लज़ले  हुए  कि  ज़माने  सिहर  गए  !

                                                                                             (2016)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जबीं : ललाट ; ख़ुद्दार ख़्वाब: स्वाभिमानी स्वप्न ; ज़मीं :धरा ; ज़मीर : विवेक ; ईमान : आस्था ; बेहया : निर्लज्ज ; दरख़्त : वृक्ष ; पनाह : शरण ; आसरा : आश्रय ; क़ुसूर :दोष; परिंदे : पक्षी गण ; दिलो-जान : हृदय और प्राण ; मेहमां-ए-चंद रोज़ : कुछ दिन के अतिथि ;  अज़ल : मृत्यु ; बेनियाज़ : निश्चिंत ; देहक़ां : कृषक गण ; ज़लज़ले : भूकंप ।







रविवार, 17 अप्रैल 2016

तश्न : लब अब्र ...

सर  झुका  कर  न  आऊंगा  दर  पर
मत  बुला  ऐ  ख़ुदा !  मुझे    घर  पर

वक़्त   किसको    हसीन    समझेगा
है    मुनहसर    मिज़ाजे-मंज़र   पर

कोई      मेहमां-ए -ख़ास     ही  होगा
रंग    जिसका    चढ़ा  है    चादर  पर

शैख़        ईमान      बेच       आए  हैं
आज    नीयत   लगी  है   साग़र  पर

आस्तीं      साफ़     कीजिए     साहब
ख़ून  कुछ  लिख  गया  है  ख़ंजर  पर

देख      लेंगे     ग़ुरूर           शाहों  का
जब    मिलेंगे  वो     रोज़े-महशर  पर

तश्न : लब     अब्र     क्या    सफ़ाई  दें
अब     भरोसा    नहीं      समंदर  पर  !


                                                                               (2016)

                                                                        - सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हसीन : सुंदर ; मुनहसर : निर्भर ; मिज़ाजे-मंज़र : दृश्य की प्रकृति, परिदृश्य ; मेहमां-ए -ख़ास : विशिष्ट अतिथि ; रंग : प्रभाव ; चादर : हृदय, हृदयावरण , स्वभाव ; शैख़ : धर्मोपदेशक ; ईमान : आस्था ; साग़र : मदिरा-पात्र ; आस्तीं : भुजा ; ख़ंजर : क्षुरा ; ग़ुरूर : अभिमान ; रोज़े-महशर : प्रलय के दिन ; तश्न : लब : प्यासे होंठ ; अब्र : मेघ ; सफ़ाई : स्पष्टीकरण ।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

रवानी इश्क़ मेरा ...

किसी  की  आह  दर  तक  आ  गई  है
कि  ख़ामोशी  असर  तक  आ  गई  है

बुज़ुर्गों  ने  रखा  था  दूर  जिसको
वो  वहशत  आज  घर  तक  आ  गई  है

पड़ोसी  के  मकां  की  हर  ख़राबी
मेरे  दीवारो-दर  तक  आ  गई  है

इरादा-ए-सफ़र  की  पुख़्तगी  है
कि  मंज़िल  ख़ुद  नज़र  तक  आ  गई  है

मैं  दरिया  हूं  रवानी  इश्क़  मेरा
ये  बेताबी  बहर  तक  आ  गई  है

उठी  जो  शान  से  बर्क़े-बग़ावत 
सियासत  के  शजर  तक  आ  गई  है

उठा  कर  अस्लहे  तैयार  रहिए
यज़ीदी  फ़ौज  सर  तक  आ  गई  है  !

                                                                                     (2016)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दर : द्वार ; ख़ामोशी : मौन ; असर : प्रभावोत्पादकता ; बुज़ुर्गों : पूर्वजों ; वहशत : उन्माद, पशु-वृति ; मकां : गृह ; दीवारो-दर : भित्ति एवं द्वार ; इरादा-ए-सफ़र : यात्रा का संकल्प ; पुख़्तगी : दृढ़ता ; मंज़िल : लक्ष्य ; दरिया : नदी ; रवानी : प्रवाह ; बेताबी : व्यग्रता ; बहर : समुद्र ; बर्क़े-बग़ावत : विद्रोह की तड़ित ; शजर : वृक्ष ; अस्लहे : अस्त्र-शस्त्र ; यज़ीदी फ़ौज : अरब के एक अत्याचारी, सिद्धांतविहीन शासक यज़ीद की सेना जिसने हज़रत अली अ. स. के उत्तराधिकारियों का वध किया ।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

हम गुलूकारे-अमन ...

तिश्नगी   क्या  है   गुलों  से   पूछिए
अंदलीबों   के       सुरों  से     पूछिए


होशमंदी    ताजिरों  का    वस्फ़  है
घर  जलाना   आशिक़ों  से  पूछिए


हम  गुलूकारे-अमन  हैं   क्या  कहें
तेग़  क्या  है   क़ातिलों  से   पूछिए


छोड़  दी  पतवार  दिल  की  हाथ  से
क्या  हुआ  फिर  साहिलों  से  पूछिए


आब्ले-पा     रास्तों  पर      नक़्श  हैं
दर्दे-पाऊँ        मंज़िलों  से       पूछिए


हम    बग़ावत  के  लिए   बदनाम  हैं
बे-ज़ुबानी      मोमिनों  से       पूछिए


फ़िक्रे-ईमां    मस्'.अला  है    रूह  का
मानिए-सज्दा     दिलों  से      पूछिए  !


                                                                               (2016)


                                                                       -सुरेश  स्वप्निल


शब्दार्थ: तिश्नगी : सुधा; गुलों : पुष्पों ; अंदलीबों : कोयलों ; होशमंदी : स्थित-प्रज्ञता ; ताजिरों : व्यापारियों ; वस्फ़ : गुण ; गुलूकारे-अमन : शांति के गीत गाने वाले ; तेग़ : कृपाण ; साहिलों : तटों ; आब्ले-पा : पांव के छाले ; दर्दे-पाऊँ : पांवों की पीड़ा ; मंज़िलों : लक्ष्यों ; बग़ावत : विद्रोह ; बदनाम : कुख्यात ; बे-ज़ुबानी : मौन रहना ; मोमिनों : आस्तिकों ; फ़िक्रे-ईमां : आस्था की चिंता ; मस्'.अला : प्रश्न, समस्या ; रूह : आत्मा ; मानिए-सज्दा : भूमिवत प्रणाम का अर्थ ।


सोमवार, 11 अप्रैल 2016

उसूल के पुर्ज़े ...

हज़ार  हर्फ़  ग़रीबों  पे  लाए  जाते  हैं
क़ुसूर  हो  न  हो  लेकिन  सताए  जाते  हैं

सियासतों  के  ज़ख़्म  सूखते  नहीं   फिर  भी
अवाम  हैं  कि  उमीदें  सजाए  जाते  हैं

जम्हूरियत  के  इदारों  की  बात  मत  कीजे
वहां  उसूल  के  पुर्ज़े  उड़ाए   जाते  हैं

रहे-सहर  में  अभी  और  भी  मराहिल  हैं
मगर  चराग़  हैं  कि  दिल  बुझाए  जाते  हैं

रक़ीब  हैं  तो  करें  जंग  सामने  आ  कर
यहां-वहां  से  धमकियां  दिलाए  जाते  हैं

ये  मैकदा  है  यहां  शैख़  की  नहीं  चलती
यहां  शराब  नहीं  ग़म  पिलाए  जाते  हैं

जिन्हें  मुरीद  बनाना  नहीं  हुआ  मुमकिन
वो  अब  फ़साद  में  ज़िंदा  जलाए  जाते  हैं  !

                                                                                             (2016)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हर्फ़ : कलंक; क़ुसूर : दोष ; सियासतों : राजनैतिक क्रिया-कलापों ; ज़ख़्म : घाव ; अवाम : जन-साधारण ; उमीदें : आशाएं ; जम्हूरियत : लोकतंत्र ; इदारों : संस्थाओं ; उसूल : सिद्धांतों ; पुर्ज़े : धज्जियां ; रहे-सहर : उषा का मार्ग ; मराहिल : विराम स्थल ; चराग़ : दीपक ; रक़ीब : शत्रु, प्रतिद्वंदी ; जंग : युद्ध ; मैकदा : मदिरालय ;   शैख़ : धर्मोपदेशक ; मुरीद : भक्त ; मुमकिन : संभव ; फ़साद : उपद्रव, दंगा ।

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

अब्र ख़ामोश हैं...

बात  बनती  बिगड़ती  चली  जाएगी
दिल  गया  तो  लबों  की  हंसी  जाएगी

सर  झुका  कर  मिले  दिल  तो  तय  मानिए
शर्त्त  कल  ख़ुदकुशी  की  रखी  जाएगी

सिर्फ़  ईमां  नहीं  जाएगा  हाथ  से
साथ  में  रूह  की  रौशनी  जाएगी

अब्र  ख़ामोश  हैं  और  गुल  ख़ुश्क़  लब
देखिए  किस  तरह  तिश्नगी  जाएगी

आस्मां  भी  सियासत  दिखाने  लगा
चांद  घर  आए  तो  चांदनी  जाएगी

आज  मेहनतकशों  का  बुरा  वक़्त  है
कल  ये  दुनिया  दोबारा  गढ़ी  जाएगी

रिज़्क़  की  भीख  मत  लीजिए  शाह  से
आपसे  क्या  हतक  यह  सही  जाएगी  ?

                                                                            (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: लबों : ओष्ठाधर ; ख़ुदकुशी : आत्म-हत्या ; ईमां : आस्था, निष्ठा ; रूह : आत्मा ; रौशनी : प्रकाश ; अब्र : मेघ ; ख़ामोश : मौन ; गुल : पुष्प ; ख़ुश्क़ : शुष्क ; तिश्नगी : सुधा ; आस्मां : आकाश, ईश्वर ; सियासत : कूटनीति ; मेहनतकशों : श्रमिकों ; रिज़्क़ : भोजन, आजीविका ; हतक : अपमान ।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

ख़ुद्दारिए-अवाम...

अल्लाह  जानता  था  कि  बंदा  ग़रीब  है
फिर  क्या  वजह  है  आज  तलक  कमनसीब  है

ख़ुद्दारिए-अवाम  तरक़्क़ी  में  बिक  गई
फ़ाक़ाकशी  के  डर  से  परेशां  अदीब  है

बादे-सबा  है  चंद  अमीरों  की  क़ैद  में
सबको  ख़बर  है  कौन  गुलों  का  रक़ीब  है

दुश्वारियों  का  ज़िक्र  ज़ुबां  तक  न  आ  सके
साज़िश  निज़ाम  की  है  कि  अपना  नसीब  है

दिल  लूटना  सवाब  तो  दिल  मांगना  गुनाह
दुनिया-ए-इश्क़  का  ये  क़ायदा  अजीब  है

थामा  था  जिसने  हाथ  बड़े  एतबार  से
वो  शख़्स  वक़्ते-मर्ग़  भी  दिल  के  क़रीब  है

क्या  सोज़  है  कि  सब दरख़्त  झूमने लगे
तेरी अज़ां  है  या  सदा-ए-अंदलीब  है  !

                                                                                        (2016)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बंदा : सेवक, भक्त ; कमनसीब : अल्प-भाग्य ; ख़ुद्दारिए-अवाम : नागरिकों का स्वाभिमान ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; फ़ाक़ाकशी : भुखमरी ; अदीब : साहित्यकार ;  बादे-सबा : प्रभात समीर ; गुलों : पुष्पों ; रक़ीब : शत्रु ; दुश्वारियों : कठिनाइयों ; ज़िक्र : उल्लेख ; ज़ुबां : जिव्हा ; साज़िश : षड्यंत्र ; निज़ाम : शासन-व्यवस्था, सरकार ; नसीब : प्रारब्ध ; सवाब : पुण्य ; गुनाह : पाप, अपराध ; दुनिया-ए-इश्क़ : प्रेम-संसार ; क़ायदा : नियम ; ऐतबार : विश्वास ; शख़्स : व्यक्ति ; वक़्ते-मर्ग़ : मृत्यु के समय ; सोज़ : स्वर-माधुर्य ; दरख्त : वृक्ष ; अज़ां : अज़ान ; सदा-ए-अंदलीब : कोयल की पुकार।  

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

बग़ावत वक़्त से

सच  बताएंगे  भला  हुक्काम  क्या
तय  नहीं  हम  पर  रखें  इल्ज़ाम  क्या

जान  कर  की  है  बग़ावत  वक़्त  से
इब्तिदाए-जंग  क्या  अंजाम  क्या

दांव  पर  फ़तवे  नहीं  अब  क़ौम  है
फिर  पढ़ें  मुफ़्ती  कि  है  इस्लाम  क्या

क़द्रदां  को  हर  ख़ज़ाना  हेच  है
बोलिए  बादे-सबा  के  दाम  क्या

आप  मेहमां  हो  गए  सब  मिल  गया
दिलनवाज़ी  से  बड़ा  ईनाम  क्या

एक  मंज़िल  एक  मक़सद  एक  रू:
इश्क़  है  तो  गर्दिशे-अय्याम  क्या

और  क्या  तोहमत  लगाएगा  ख़ुदा
शायरों  का  नाम  क्या  बदनाम  क्या  !

                                                                                (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हुक्काम : शासक वर्ग, अधिकारी गण ; इल्ज़ाम : आरोप ; बग़ावत : विद्रोह ; इब्तिदाए-जंग : युद्ध का आरंभ ; अंजाम : परिणति ; फ़तवे : धार्मिक निर्देश ; क़ौम : धर्मानुयायी ; मुफ़्ती : धार्मिक निर्देश देने वाले ; क़द्रदां : मूल्य समझने वाले, पारखी ; ख़ज़ाना : कोश ;  हेच : तुच्छ , अपर्याप्त ; बादे-सबा : प्रभात समीर ; दाम : मूल्य ; दिलनवाजी : दूसरे के मन की मानना, मन रखना ; ईनाम : पुरस्कार ; मंज़िल : लक्ष्य ; मक़सद : उद्देश्य ; रू: : आत्मा ; गर्दिशे-अय्याम: काल-चक्र, समय का भटकाव ; तोहमत : कलंक ।

बग़ावत वक़्त से

बग़ावत वक़्त से

सच  बताएंगे  भला  हुक्काम  क्या
तय  नहीं  हम  पर  रखें  इल्ज़ाम  क्या

जान  कर  की  है  बग़ावत  वक़्त  से
इब्तिदाए-जंग  क्या  अंजाम  क्या

दांव  पर  फ़तवे  नहीं  अब  क़ौम  है
फिर  पढ़ें  मुफ़्ती  कि  है  इस्लाम  क्या

क़द्रदां  को  हर  ख़ज़ाना  हेच  है
बोलिए  बादे-सबा  के  दाम  क्या

आप  मेहमां  हो  गए  सब  मिल  गया
दिलनवाज़ी  से  बड़ा  ईनाम  क्या

एक  मंज़िल  एक  मक़सद  एक  रू:
इश्क़  है  तो  गर्दिशे-अय्याम  क्या

और  क्या  तोहमत  लगाएगा  ख़ुदा
शायरों  का  नाम  क्या  बदनाम  क्या  !

                                                                                (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ : हुक्काम : शासक वर्ग, अधिकारी गण ; इल्ज़ाम : आरोप ; बग़ावत : विद्रोह ; इब्तिदाए-जंग : युद्ध का आरंभ ; अंजाम : परिणति ; फ़तवे : धार्मिक निर्देश ; क़ौम : धर्मानुयायी ; मुफ़्ती : धार्मिक निर्देश देने वाले ; क़द्रदां : मूल्य समझने वाले, पारखी ; ख़ज़ाना : कोश ;  हेच : तुच्छ , अपर्याप्त ; बादे-सबा : प्रभात समीर ; दाम : मूल्य ; दिलनवाजी : दूसरे के मन की मानना, मन रखना ; ईनाम : पुरस्कार ; मंज़िल : लक्ष्य ; मक़सद : उद्देश्य ; रू: : आत्मा ; गर्दिशे-अय्याम: काल-चक्र, समय का भटकाव ; तोहमत : कलंक ।

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

शर्मसार हो गए !

खुल  कर  अज़ान  दी  तो  गिरफ़्तार  हो  गए
ख़ामोश    भी    रहे    तो    गुनहगार  हो  गए

मक़्तूल  के    अज़ीज़    सलाख़ों  में    क़ैद  हैं
क़ातिल    फ़रेब  करके     ताजदार    हो  गए

जिन पर  यक़ीन था  कि वो  हक़ बात  कहेंगे
अब  वो  भी   क़ातिलों  से  शर्मसार   हो  गए

मैदान  का  शऊर     न   रफ़्तार  पर     पकड़
मा'फ़िक़  हवा  चली   तो   शहसवार   हो  गए

जिनकी  दुआ  से   क़ब्र    मयस्सर   हुई  हमें
बेजान      हमें    देख      बेक़रार        हो  गए

लगता  न था  कि  आएंगे  वो  बज़्म में  कभी
लेकिन  वो    इक  सदा  पे    नमूदार  हो  गए

क़ारीन     इत्र  ले  के     चले  आए    साथ  में
अश्'आर  मेरे    इस  क़दर    बीमार  हो  गए !

                                                                                        (2016)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   गुनहगार : अपराधी; मक़्तूल : मृतक, वधित ; अज़ीज़: प्रियजन, संबंधी ; क़ातिल : हत्यारा/रे ; फ़रेब : छल ; ताजदार : मुकुटधारी, शासक ; यक़ीन : विश्वास ; हक़ बात :सत्य साक्ष्य, शर्मसार: लज्जित; क़ब्र :समाधि; मयस्सर : प्राप्त , उपलब्ध ; बेजान : निष्प्राण ; बेक़रार : व्यथित, विचलित ; बज़्म : सभा, यहां मस्जिद ; सदा : आव्हान ; नमूदार : सशरीर प्रकट, उपस्थित ; क़ारीन : पाठक गण ; इत्र : सुगंधि ; अश्'आर : शे'र का बहुव., छंद-पद ।