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सोमवार, 29 दिसंबर 2014

गहरा कुहासा ...

यूं  ज़ुबां  फिसली  तमाशा  हो  गया
हर  हक़ीक़त  का  ख़ुलासा  हो  गया

बाम  पर  आकर  खड़े  वो  क्या  हुए
चांद  का  चेहरा  ज़रा-सा  हो  गया

ख़्वाब  में  तस्वीर  उनकी  देख  ली
चश्मे-तश्ना  को  दिलासा  हो  गया

दाम    आटे-दाल   के    इतने  बढ़े
क़र्ज़  में  नीलाम  कासा  हो  गया

शाह  मुजरिम  है  गुलों  के  क़त्ल  का
तितलियों  पर    इस्तगासा   हो  गया

उफ़ !  निज़ामे-स्याह  की  बदकारियां
अर्श  तक    गहरा  कुहासा    हो  गया

मज़हबी  तकरीर  सुन  कर  ख़ुल्द  में
दर्दे-सर    फिर    बेतहाशा    हो  गया  !

                                                              (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुबां: जिव्हा, शब्द; हक़ीक़त: यथार्थ, सच्चाई; ख़ुलासा: उद्घाटन; बाम: वातायन; चश्मे-तश्ना: तृषित नयन; दिलासा: सांत्वना, आश्वस्ति; दाम: मूल्य; क़र्ज़: ऋण; कासा: भिक्षा-पात्र; मुजरिम: अपराधी; गुलों: पुष्पों; क़त्ल: हत्या; इस्तगासा: वाद; निज़ामे-स्याह: अंधेर का राज्य; बदकारियां: कुकर्म; अर्श: आकाश; मज़हबी: धार्मिक; तकरीर: भाषण; ख़ुल्द: स्वर्ग; दर्दे-सर: सिर की पीड़ा; बेतहाशा: अत्यधिक, असीम ।