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शुक्रवार, 4 मई 2018

सर बचा कर...

सियासत  सीख  कर  पछताए  हो  क्या
सलामत  सर  बचा  कर  लाए  हो  क्या

उड़ी  रंगत   कहीं   सब   कह  न  डाले
हमारे    तंज़  से    मुरझाए      हो  क्या

लबों  पर    बर्फ़   आंखों  में      उदासी
कहीं  पर  चोट  दिल की  खाए हो  क्या

बहुत  दिन  बाद  ख़ुश  आए  नज़र   तुम
हमारे    ख़्वाब   से    टकराए   हो    क्या

तुम्हारी    नब्ज़    इतनी    सर्द     क्यूं  है
किसी  का  क़त्ल   करके  आए  हो  क्या

सितम   हर  शाह  करता  है   मगर   तुम
किसी  जल्लाद  के   सिखलाए  हो  क्या

नमाज़ें      पढ़    रहे    हो       पंजवक़्ता
ख़ुदा   के    ख़ौफ़  से    थर्राए    हो  क्या ?!

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : सियासत: राजनीति;  सलामत :सुरक्षित; तंज़: व्यंग्य; लबों: होंठों; नब्ज़: नाड़ी, स्पंदन; सर्द:ठंडी; सितम: अत्याचार; जल्लाद: वधिक; पंजवक़्ता: पांचों समय की; ख़ौफ़: भय ।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

करो हो क़त्ल ....

परेशां  हैं  यहां  तो  थे  वहां  भी
करे  है  तंज़  हम  पर  मेह्र्बां  भी

हमें  ज़ाया  न  समझें  साहिबे-दिल
हरारत  है  अभी  बाक़ी  यहां  भी

दिए  थे  जो  वफ़ा  के  ज़ख़्म  तुमने
लगे  हैं  फिर  नए  से  वो  निशां  भी
 लगा  है  मर्ज़  जबसे  दिलकशी  का
करो  हो  क़त्ल  जाओ  हो  जहां  भी

बुज़ुर्गों  ने    बहुत     बहलाए  रक्खा
मगर  बेताब  हैं     अब   नौजवां  भी

ख़बर  होगी  तभी  अह् ले  वतन  को
लुटेंगे     जब        अमीरे  कारवां  भी

जहां  को     नूर  वो     दे  जाएंगे  हम
करेगा  फ़ख़्र     हम  पर   आस्मां  भी !

                                                                             (2018)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तंज़: व्यंग्य; मेह्रबां: भले मानुस, कृपालु; ज़ाया: नष्टप्राय, व्यर्थ; साहिबे दिल: हृदयवान, संवेदनशील; हरारत: ऊष्मा, इच्छाएं; वफ़ा: निष्ठा; ज़ख़्म: घाव; निशां: चिह्न; मर्ज़: रोग; दिलकशी: मन जीतने, चित्ताकर्षक लगने; करो हो: करते हो; क़त्ल:  हत्या; जाओ हो: जाते हो; बुज़ुर्गों: वरिष्ठ जन; बेताब: व्याकुल; नौजवां: युवजन; ख़बर: बोध; अह् ले वतन: देशवासी; अमीरे कारवां: यात्री दाल के नायक, सत्ताधीश; जहां: संसार; नूर: प्रकाश; फ़ख़्र: गर्व; आस्मां: विधाता।  

रविवार, 22 अप्रैल 2018

बग़ावत का सैलाब ...

मोहसिनों   की    आह    बेपर्दा  न  हो
शर्म  से    मर  जाएं   हम  ऐसा  न  हो

इश्क़  का  इल्ज़ाम  हम  पर  ही  सही
तू   अगर    ऐ  दोस्त     शर्मिंदा  न  हो

ख़ाक   ऐसी  ज़ीस्त  पर    के:  ग़ैर  के
दर्द  का   एहसास  तक   ज़िंदा  न  हो

बेबसी  से     आस्मां   तक       रो  पड़े
ज़ुल्म    नन्ही  जान  पर   इतना  न  हो

अब     बग़ावत  का    उठे  सैलाब  वोः
जो  कभी     तारीख़   ने    देखा  न  हो

ऐहतरामे-नूर         यूं        कर  देखिए
सर  झुका  हो  और   बा-सज्दा  न  हो

कोई  तो    रक्खे  हमें    दिल  में  कहीं
आख़िरत  का  वक़्त  यूं  ज़ाया   न   हो !

                                                                            (2018)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मोहसिनों: कृपालु जन; बेपर्दा: प्रकट, अनावृत्त; इल्ज़ाम: आरोप; शर्मिंदा: लज्जित; ख़ाक: धूल; ज़ीस्त: जीवन; ग़ैर: अन्य; एहसास: अनुभूति; बग़ावत: विद्रोह; सैलाब: बाढ़; तारीख़: इतिहास; बेबसी: विवशता; आस्मां: नियति; ज़ुल्म: अन्याय, अत्याचार; ऐहतरामे-नूर: (ईश्वरीय) प्रकाश का सम्मान, सम्बोधि का सम्मान; बा-सज्दा: श्रद्धावनत; आख़िरत: अंतिम समय; ज़ाया: व्यर्थ।  

गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

क्या मिल गया ?

गर्दिशे-ऐयाम  से            दिल  हिल  गया
आज  का  दिन  भी  बहुत  मुश्किल  गया

देख  कर  हमको              परेशां  दर्द  से
आसमानों  का  कलेजा            हिल  गया

चाहते  थे        रोक  लें           तूफ़ान  को
सब्र  टूटा        हाथ  से         साहिल  गया

क़ातिलों  की             पैरवी      करते  हुए
साफ़  कहिए  रहबरों !     क्या  मिल  गया

शाह  की       लफ़्फ़ाज़ियों  में       यूं  फंसे 
नौजवां  से      दूर            मुस्तक़्बिल  गया

राह    मुश्किल  थी     बग़ावत  की    मगर
हर  जियाला              जानिबे-मंज़िल  गया

हालते-अत्फ़ाले-दुनिया               देख  कर
क्या  बताएं      रूह  में     क्या  छिल  गया !

                                                                                   (2018)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर्दिशे-ऐयाम : दिनों का फेर; सब्र: धैर्य; साहिल: तट, किनारा; क़ातिलों: हत्यारों; पैरवी : पक्ष रखना, बचाव; रहबरों : नेता गण; लफ़्फ़ाज़ियों : शब्दजाल; मुस्तक़्बिल : भविष्य; बग़ावत : विद्रोह; जियाला : साहसी; जानिबे-मंज़िल : लक्ष्य की ओर; हालते-अत्फ़ाले-दुनिया : संसार के बच्चों की स्थिति; रूह : आत्मा।  


मंगलवार, 20 मार्च 2018

नरगिस और हम

हर  तरफ़  मौजे हवादिस  और  हम
सामने      सुल्ताने बेहिस  और  हम

आज फिर उम्मीद का  सर झुक गया
फिर  वही गुस्ताख़ इब्लीस  और हम

क्या  मुक़द्दर  है   वफ़ा  का    देखिए
गर्दिशों  में  ख़्वाबे नाक़िस  और  हम

फिर   ज़ुबानी   जंग  में  हैं   मुब्तिला
शाह  के  मुंहज़ोर  वारिस  और   हम

तोड़  डालेंगे  सितम  का  सिलसिला 
साथ में  दो चार  मुफ़लिस  और  हम

गुल  खिलाते  हैं  मुनासिब  वक़्त पर
नूर  के    शैदाई    नरगिस  और  हम

कोई    तो   पढ़  दे   हमारा   मर्सिया
दर्दमंदों   की   मजालिस   और  हम !

                                                       (2018)

                                                  -सुरेश स्वप्निल

शब्दार्थ : मौजे हवादिस: दुर्घटनाओं की लहर; सुल्ताने बेहिस: असंवेदनशील, निश्चेत शासक; गुस्ताख़: धृष्ट;
इब्लीस: ;शैतान, ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी; मुक़द्दर: भाग्य;  वफ़ा: निष्ठा; गर्दिश: भटकाव; ख़्वाबे नाक़िस: अपूर्ण स्वप्न;
ज़ुबानी जंग: मौखिक युद्ध; मुब्तिला: फंसे हुए, ग्रस्त; मुंहज़ोर: वाग्वीर; वारिस: उत्तराधिकारी; सितम: अत्याचार; सिलसिला: क्रम, श्रृंखला; मुफ़लिस: निर्धन; मुनासिब: समुचित; नूर:प्रकाश; शैदाई: अभिलाषी, प्रेमी; नरगिस: एक पुष्प, लिली; मर्सिया: शोकगीत; दर्दमंद: सहानुभूतिशील; मजालिस: सभाएं।

सोमवार, 12 मार्च 2018

हमारे ज़ख़्म उरियां...

तबाही  के    ये:  मंज़र    देख  लीजे
कहां  धड़  है  कहां  सर  देख  लीजे

बुतों के  साथ क्या क्या  ढह  गया है
ज़रा    गर्दन  घुमा  कर    देख  लीजे

चले  हैं  लाल  परचम  साथ  ले  कर
कहां  पहुंचे   मुसाफ़िर    देख  लीजे

खड़े  हैं  रू ब रू    मज़्लूमो-ज़ालिम
गिरेगी  बर्क़    किस पर   देख  लीजे

हमारे  ज़ख़्म    उरियां    हो  गए   हैं
यही  है  वक़्त   जी-भर   देख  लीजे

किसी  ने   आपको  बहका  दिया  है
मैं  शीशा  हूं   न  पत्थर   देख  लीजे

कहेगा कौन  दिल की  बात  खुल कर
मेरे    सीने  के    नश्तर    देख  लीजे  !

शब्दार्थ : तबाही : विध्वंस; मंज़र : दृश्य; बुतों : मूर्त्तियों ; परचम : ध्वज; मुसाफ़िर :यात्री; रू बरू: आमने-सामने; मज़्लूमो-ज़ालिम : पीड़ित और अत्याचारी; बर्क़: आकाशीय बिजली; ज़ख़्म : घाव; उरियां: अनावृत, उघड़े हुए; शीशा : कांच; नश्तर : शल्यक्रिया का उपकरण, क्षुरी।

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

ख़ामुशी बेज़ुबां ...

ख़ुश्बुए-दिल  जहां  नहीं  होती
कोई  बरकत  वहां  नहीं  होती

हौसले   साथ- साथ    बढ़ते  हैं
सिर्फ़  हसरत  जवां  नहीं  होती

ज़र्फ़  है   तो    निगाह   बोलेगी
ख़ामुशी    बेज़ुबां    नहीं   होती

ज़िंदगी  दर -ब- दर  भटकती  है
और  फिर  भी   रवां  नहीं  होती

ज़ीस्त  जब जब  फ़रेब  करती  है
मौत  भी     मेह्रबां     नहीं   होती

फ़र्ज़  है  दिल  संभाल  कर  रखना
बेक़रारी        कहां       नहीं  होती

रूह  से    जो  दुआ    निकलती  है
वो:  कभी      रायग़ां     नहीं  होती !

                                                             (2018)
         
                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ुश्बुए-दिल : मन की सुगंध; बरकत : अभिवृद्धि, श्री वृद्धि; हौसले :साहस,उत्साह; हसरत : अभिलाषा; जवां: युवा; ज़र्फ़ : गंभीरता; निगाह :दृष्टि;  ख़ामुशी :मौन; दर ब दर:द्वार द्वार;  रविं:सुचारु, प्रवाहमान;ज़ीस्त :जीवन; फ़रेब: कपट; मेह्रबां : दयावान;  फ़र्ज़: कर्त्तव्य;  बेक़रारी :व्यग्रता;  रूह: आत्मा, अंतर्मन;  दुआ: प्रार्थना;  रायग़ां :व्यर्थ ।

रविवार, 4 फ़रवरी 2018

सोचते नहीं बाग़ी ...

आजकल  ज़माने  में    ऐतबार  किसका  है
बेवफ़ा  हवाओं  पर  इख़्तियार  किसका  है

क्यूं  बताएं  दुनिया  को  राज़  गुनगुनाने  का
लोग  जान  ही  लेंगे  ये;  ख़ुमार  किसका  है

इश्क़  ही  तरीक़ा  है  रंजो-ग़म   भुलाने  का
सामने  खड़े  हैं  हम     इंतज़ार  किसका  है

शुक्रिया  हमें  अपनी   बज़्म  में  बिठाने  का
आपने  दिया  है  जो  वो:  मयार  किसका  है

वक़्त  तोड़  डालेगा  हर  तिलिस्म  साहिर  का
ये:  हसीन  लम्हा  भी    राज़दार  किसका  है

इंक़िलाब  के  आशिक़    मौत  से  नहीं  डरते
सोचते  नहीं  बाग़ी       इक़्तिदार  किसका  है

ख़ाक  में  पड़े  हैं  सब  शाह  भी  भिखारी  भी
कौन  जानता  है  अब  ये;  मज़ार  किसका  है !

                                                                                             (2017)

                                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; बेवफ़ा: आस्थाहीन; इख़्तियार: अधिकार; राज़: रहस्य; ख़ुमार: तंद्रा, मद; रंजो-ग़म: खेद एवं शोक; बज़्म: सभा; मयार: स्थान; तिलिस्म: मायाजाल, रहस्य; साहिर: मायावी; हसीन: सुंदर; लम्हा: क्षण; राज़दार: रहस्य छुपाने वाला; इन्क़िलाब: क्रांति; आशिक़: उत्कट प्रेमी; बाग़ी: विद्रोही; इक़्तिदार: शासन, राज, सत्ता; ख़ाक: धूल; मज़ार: समाधि।  

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

होकर शहीदे-अम्न...

नाक़ाबिले-यक़ीं   है     अगर      दास्तां  मेरी
बेहतर  है  काट ले  तू   इसी  दम  ज़ुबां  मेरी

देखी  तेरी  दिल्ली    तेरी  सरकार   तेरा  दर
सुनता  नहीं  है  कोई   शिकायत   जहां  मेरी

सच  बोलना   गुनाह  हो   जिस  इक़्तेदार  में
नाराज़गी      ज़रूर     दर्ज  हो      वहां  मेरी

बढ़ता ही जा रहा  है बग़ावत  का  सिलसिला
देखें  कि  जा  रही  है  कहां  तक  अज़ां  मेरी

यूं  ही  नहीं  मैं  कूच:-ए-क़ातिल  में  आ  गया
हर  ज़ुल्म  के  ख़िलाफ़   लड़ी  है   ज़ुबां  मेरी

होकर  शहीदे-अम्न    मुझे    अज़्म  वो  मिला
हर  ज़र्र:    कर  रहा  है    कहानी  बयां  मेरी

जो  है      क़ुसूरवार     उसे  दे     ख़ुदा  सज़ा
मय्यत  बिगड़  रही  है   अगर   बे-मकां  मेरी  !

                                                                                                (2018)

                                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाक़ाबिले-यक़ीं : अविश्वसनीय; दास्तां : गाथा, आख्यान; ज़ुबां : जिव्हा; इक़्तेदार: राज, सरकार; नाराज़गी : अप्रसन्नता, असहमति; दर्ज : अंकित; बग़ावत : विद्रोह; सिलसिला : क्रम; अज़ां : पुकार; कूच:-ए-क़ातिल : वधिक की गली; ज़ुल्म : अन्याय; शहीदे-अम्न : शांति की बलि; अज़्म : पहचान, प्रतिष्ठा; ज़र्र : कण; बयां : व्यक्त; क़ुसूरवार : दोषी, अपराधी; सज़ा : दंड; मय्यत : शव; बे-मकां : समाधि के बिना।

बुधवार, 24 जनवरी 2018

बाज़ को आस्मां...

हम  ख़ुदा  के  क़रीब  रहते  हैं
वां,  जहां  बदनसीब   रहते   हैं

बन  रही  है  वहां  स्मार्ट  सिटी
जिस जगह सब ग़रीब रहते  हैं

कर रहे हैं गुज़र  जहां पर हम
हर  मकां  में  रक़ीब  रहते  हैं

बाज़ को आस्मां  मिला  जबसे
ख़ौफ़  में   अंदलीब    रहते  हैं

शाह कुछ अहमियत नहीं  देते
किस वहम में  अदीब  रहते हैं

हम  परस्तारे-दिल  कहां  बैठें
दूर    हमसे   नजीब   रहते  हैं

ख़ुल्द   बीमारे-इश्क़  क्यूं  जाएं
क्या  वहां  पर  तबीब  रहते  हैं  ?!

                                                                 (2018)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल   

शब्दार्थ: वां: वहां; बदनसीब: अभागे; बाज़: श्येन, एक शिकारी पक्षी; आस्मां: आकाश, सर्वोच्च स्थान; ख़ौफ़: आतंक, भय; अंदलीब: कोयलें; अहमियत: महत्व; वहम: भ्रम, संदेह; अदीब: साहित्यकार; परस्तारे-दिल: हृदय के पुजारी; नजीब: श्रेष्ठि जन, उच्च कुलीन; ख़ुल्द: स्वर्ग; तबीब: औषधि देने वाले, वैद्य।       

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

हाथ हमने जलाए...

आपको  शौक़  है  सताने  का
तो  हमें   मर्ज़  है  निभाने  का

सीख  लें  नौजवां  हुनर  हमसे
रूठती   उम्र  को   मनाने  का

इश्क़  भी  क्या  हसीं  तरीक़ा  है
दुश्मनों  को   क़रीब  लाने  का

शायरी  सिर्फ़  एक  ज़रिया  है
ज़ीस्त  के  रंजो-ग़म  भुलाने  का 

हाथ   हमने   जलाए   दानिश्ता
था  जहां  फ़र्ज़  घर  बचाने  का

शाह  की  फ़ौज  शाह  के  गुंडे
काम  है  बस्तियां   जलाने  का

आ  गया  वक़्त  ताजदारों  को
खैंच  कर  तख़्त  से  गिराने  का !

                                                                          (2018)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ज़: रोग; हुनर: कौशल; इश्क़: उत्कट प्रेम; हसीं: सुंदर, मोहक; ज़ीस्त: जीवन; रंजो-ग़म: दुःख-दर्द; दानिश्ता: जान-बूझ कर; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; फ़ौज: सेना; ताजदारों: सत्ताधारियों; तख़्त: आसन।  






सोमवार, 22 जनवरी 2018

तजुर्बाते-जम्हूर...

नई     आरज़ू  की     शुआएं  नई
गुलों  को   मिली  हैं    हवाएं  नई

अभी  दोस्तों  को  बुरा  मत  कहो
अभी    आ  रही  हैं     दुआएं  नई

न मुजरिम रहे  हम  न मुल्ज़िम हुए
लगाते  रहे       वो:       दफ़ाएं  नई

इधर  लोग       बेज़ार  हैं     आपसे
कहीं  और     रखिए     अदाएं  नई 

तजुर्बाते-जम्हूर  का          शुक्रिया
नहीं  चाहिए     अब     वफ़ाएं  नई

रग़ों  में  सिमटना    मुनासिब  नहीं
लहू      चाहता  है        ख़ताएं  नई

ख़ुदा की गली से  निकल आए हम
कि  जी    चाहता  है    ख़लाएं  नई  !

                                                                           (2018)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आरज़ू: अभिलाषा; शुआएं; किरणें; गुलों: फूलों; दुआएं: शुभ कामनाएं; मुजरिम: आरोपी; मुल्ज़िम: अपराधी; दफ़ाएं: धाराएं; बेज़ार: तंग, परेशान; अदाएं: -भंगिमाएं; तजुर्बाते-जम्हूर: लोकतंत्र के अनुभव; वफ़ाएं: निष्ठाएं; रग़ों: शिराओं; मुनासिब: उचित; लहू: रक्त; ख़ताएं: अपराध, दोष, उपद्रव; ख़लाएं: एकांत ।  

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

ये: शौक़े-क़त्ल बुरा...

ये: एहतरामे-वफ़ा  है  कि  कम  नहीं  होता
अजीब  मर्ज़  लगा  है  कि  कम  नहीं  होता

इधर-उधर  के  कई  ग़म  उठा  लिए  सर  पर
मगर  ये:  बार  बड़ा  है  कि  कम  नहीं  होता

बिखर  रहा  है    मेरा  ज़ह्र    गर्म  झोंकों  से
बग़ावतों  का  नशा  है  कि  कम  नहीं  होता

तेरे  रसूख़  के   क़िस्से    कभी  नहीं  थमते
इधर  वो:  रंग  चढ़ा  है  कि  कम  नहीं  होता

कहां  कहां  से  लहू  रिस  गया  रिआया  का
फ़ुसूं-ए-शाह  नया  है  कि  कम  नहीं  होता

अभी  तो  दाग़  हज़ारों  जबीं  पे  उभरेंगे
ये:  शौक़े-क़त्ल  बुरा  है  कि  कम  नहीं  होता

तेरा  ग़ुरूरे-अना  है  कि  सर  से  ऊपर  है
मेरा  ये:   ख़ौफ़े-ख़ुदा  है  कि  कम  नहीं  होता !

                                                                                                  (2018)

                                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: एहतरामे-वफ़ा : आस्था के प्रति सम्मान; अजीब : विचित्र; मर्ज़ : रोग; ग़म : शोक, दुःख; बार : बोझ, भार; ज़ह्र : विष; बग़ावतों : विद्रोहों; नशा : उन्माद; रसूख़ : प्रभाव; फ़ुसूं : जादू, मायाजाल; दाग़ : कलंक; जबीं : मस्तक; शौक़े-क़त्ल : हत्या की अभिरुचि; ग़ुरूरे-अना : अहंकार का गर्व;  ख़ौफ़े-ख़ुदा : ईश्वर का भय।







गुरुवार, 18 जनवरी 2018

दुश्मनों की कमी...

वफ़ा  में  ज़रा  सी  कमी  पड़  गई
हमें  दुश्मनों  की   कमी  पड़  गई

दरिंदे    गली  दर  गली    छा  गए
कि  इंसां की  भारी कमी  पड़ गई

चला  शाह   घर  लूटने   रिंद   का
ख़ज़ाने  में   थोड़ी  कमी  पड़  गई

कभी   ज़ब्त  की   इन्तेहा  हो  गई
कभी जोश की भी  कमी  पड़ गई

फ़रिश्ते   उठा  ले  गए   बज़्म  से
हमें  जब  तुम्हारी  कमी  पड़  गई

ख़ुदा  रोज़   हमको   बुलाता  रहा
मगर  वक़्त की ही  कमी  पड़ गई

अभी तो  जनाज़ा  उठा  तक  नहीं
अभी  से   हमारी   कमी  पड़  गई !

                                                                        (2018)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: वफ़ा : आस्था; दरिंदे : हिंसक प्राणी; रिंद : पियक्कड़; ख़ज़ाने : कोष; ज़ब्त : धैर्य; इंतेहा : अति; जोश : उत्साह; फ़रिश्ते : देवदूत; बज़्म : सभा; जनाज़ा : अर्थी।



बुधवार, 17 जनवरी 2018

आसां -सी मुश्किल...

यूं  ही  हमको  दिल  मत  देना
आसां  सी  मुश्किल  मत  देना

कश्ती  तूफां  की  आशिक़  है
मिटने  को   साहिल  मत  देना

दुश्मन  वो:   जो    ईमां  ले  ले
कमज़र्फ़  मुक़ाबिल  मत  देना

मंज़िल  के  सदक़े     गर्म  लहू
सरसब्ज़   मराहिल   मत  देना

जम्हूर     बग़ावत     कर  देगा
उमरा   ना -क़ाबिल  मत  देना

सदियां    हम  पर  शर्मिंदा  हों
ऐसा    मुस्तक़बिल   मत  देना

हक़  से   लेंगे   लड़  कर   लेंगे
तोहफ़े  में   हासिल   मत  देना !

                                                              (2019)
                                                 
                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसां : सरल; कश्ती : नाव; तूफ़ां : झंझावात; आशिक़ : आसक्त; साहिल : तट; ईमां : आस्था; कमज़र्फ़ : ओछा; मुक़ाबिल : समक्ष, प्रतिद्वंदी; मंज़िल : लक्ष्य; सदक़े : न्यौछावर; लहू : रक्त; सरसब्ज़ : हरे -भरे , छायादार; मराहिल : विश्राम-स्थल; जम्हूर : लोकतंत्र; बग़ावत : विद्रोह; उमरा : मंत्रिगण; ना-क़ाबिल : अयोग्य; शर्मिंदा : लज्जित; मुस्तक़बिल : भविष्य; हक़ : अधिकार; तोहफ़े : उपहार; 
हासिल : अभिप्राप्ति।
                                                   

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

नाजायज़ डर....

दिल  ही  न  दिया  तो  क्या  देंगे
ज़ाहिर  है      आप      दग़ा  देंगे

हम      दीवाने     हो  भी    जाएं
क्या  घर  को   आग  लगा  देंगे ?

सब  नफ़रत  अपनी   ले  आएं
हम  सबको   प्यार  सिखा  देंगे

ख़ामोश    मुहब्बत  है   अपनी
वो  पूछें        तो     बतला  देंगे

नाजायज़  डर  भी    जायज़  है
वैसे  भी      वो       झुटला  देंगे

मुंसिफ़  ख़ुद  दिल  के काले  हैं
मुजरिम  को   ख़ाक  सज़ा  देंगे

आ  जाए  ख़ुदा  दफ़्तर  ले कर 
हम  सारे    क़र्ज़      चुका  देंगे !

                                                              (2018)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : ज़ाहिर : स्पष्ट; दग़ा : छल; नफ़रत : घृणा; ख़ामोश : मूक; नाजायज़ : अवैध, अनुचित; जायज़ : वैध; मुंसिफ़ : न्यायाधीश; 
मुजरिम : अपराधी; ख़ाक : न कुछ, नाम मात्र; सज़ा : दंड; दफ़्तर : खाता-बही; क़र्ज़ : ऋण।

सोमवार, 15 जनवरी 2018

मग़रिब हुई हमारी...

बीमारे-आरज़ू  से        कितने        सवाल  कीजे
पुर्सिश  को  आए  हैं  तो    कुछ  देखभाल  कीजे

चुपचाप  दिल  उठा  कर  चल  तो  दिए  मियांजी
इस  बेमिसाल  शय  का    कुछ  इस्तेमाल  कीजे

मायूस  रहते-रहते               मग़रिब  हुई  हमारी
ख़ुशियां   ग़रीब  दिल  की  अब  तो  बहाल  कीजे

फ़ाक़ों  में      मर  रही  हैं    दहक़ान  की  उमीदें
अय  शाहे-वक़्त  आख़िर  कुछ  तो  कमाल  कीजे

भर  जाए  सल्तनत  से  दिल  आपका  कभी  जब
मेरी  तरह    सड़क  पर     आ  कर  बवाल  कीजे

आमाल  के  मुताबिक़    जो  मिल  गया   बहुत  है
किस  बात  पर    ख़ुदा  का    जीना  मुहाल  कीजे

फिर  आएंगे    पलट  कर    हम   क़ैदे-आस्मां  से
इस      हिज्रे-चंद  रोज़ा  का     क्या  मलाल  कीजे  !

                                                                                                  (2018)

                                                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बीमारे-आरज़ू : इच्छाओं के रोगी; पुरसिश : हाल-चाल पूछना; शय: वस्तु ; इस्तेमाल : प्रयोग; फ़ाकों : उपवासों; दहक़ान : कृषक (बहु.); उमीदें : आशाएं; शाहे-वक़्त : वर्त्तमान शासक; कमाल : चमत्कार; आमाल : कर्मों; मुताबिक़ : अनुसार; मुहाल : दुरूह, कठिन; क़ैदे-आस्मां : ईश्वर/स्वर्ग की कारा; हिज्रे-चंद रोज़ा : चार दिन के वियोग; मलाल : खेद।

रविवार, 14 जनवरी 2018

टूट कर रो...

बेख़ुदी    गो    बहुत  ज़रूरी  है
ज़र्फ़  भी  तो  बहुत  ज़रूरी  है

दोस्तों  को  दुआ  न  दे  लेकिन
दुश्मनों  को  बहुत  ज़रूरी  है

जल  न  जाए  फ़सल  उमीदों  की
ग़म  नए  बो  बहुत  ज़रूरी  है

लोग    इस्लाह  तो   करेंगे  ही
वो  करें जो   बहुत  ज़रूरी  है

क्यूं  रहे    इज़्तिराब   सीने  में
दाग़े-दिल  धो  बहुत  ज़रूरी  है

सर्द ख़ूं     संगदिल    ज़माने  में
तान  कर  सो  बहुत  ज़रूरी  है

मर  गया  है  ज़मीर  मुंसिफ़ का
टूट  कर  रो   बहुत  ज़रूरी  है  !

                                                       (2018)

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : बेख़ुदी : आत्म-विस्मरण; गो : यद्यपि; ज़र्फ़ : गंभीरता, गहनता; दुआ : शुभकामना; उमीदों : आशाओं; ग़म : दु:ख; इस्लाह : मार्गदर्शन, सुझाव देना; इज़्तिराब : विकलता; दाग़े-दिल : मन के कलंक, लांछन; सर्द : ऊष्मा-विहीन; ख़ूं :रक्त; संगदिल: पाषाण-ह्रदय; ज़मीर :अंतरात्मा, विवेक;मुंसिफ़ : न्यायाधीश।