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शनिवार, 31 अगस्त 2013

अल्फ़ाज़ दिल से...

हमने      तेरे    शहर    को     देखा  है
ज़िंदगी     के     क़हर     को   देखा  है

दिल   सलामत     युं  ही    नहीं  रक्खा
आग    देखी     शरर      को     देखा  है

हक़    हमें    यूं    है    शे'र   कहने  का
सामईं      पे     असर    को     देखा  है

ये:      शहर     दम-ब-दम     हमारा  है
रोज़       शामो-सहर      को     देखा  है

जब  भी  अल्फ़ाज़  दिल  से  निकले  हैं
हमने    अपनी     बहर    को    देखा  है

बाज़     आओ     मियां     मुहब्बत  से
तुमने    अपनी    उमर   को    देखा  है ?

सिर्फ़     रब     का    वजूद     पाया  है
जब  भी   अपनी   नज़र  को  देखा  है !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़हर: कोप; शरर: चिंगारी; सामईं: श्रोता गण; दम-ब-दम: प्रत्येक सांस से; शामो-सहर: संध्या और प्रात:काल; 
अल्फ़ाज़: शब्द (बहुव.); बहर: छंद; बाज़ आना: त्याग देना, दूर रहना; रब: ईश्वर; वजूद: अस्तित्व।

बुधवार, 28 अगस्त 2013

ख़ुदा नहीं होते !

हम  अगर   नाख़ुदा   नहीं  होते
साहिलों   से    जुदा   नहीं  होते

तीर  खुल  के  चलाइए  हम  पे
हम  किसी  से  ख़फ़ा नहीं  होते

रात  कटती  अगर  निगाहों  में
ख़्वाब  यूं    लापता   नहीं  होते

इश्क़  है  काम अह् ले-ईमां  का
जो   कभी    बेवफ़ा    नहीं  होते

रहरवी  के   उसूल   कामिल  हैं
मरहले     रास्ता       नहीं  होते

शबो-शब  वस्ल  हो  अगर  रहता
ज़ख़्म   बादे-सबा    नहीं    होते

हमने   फ़ाक़ाकशी   न  की  होती
मुफ़लिसों  की   दुआ   नहीं  होते

क़ातिलों  में    शुमार    हो  जाते
जो      शहीदे-वफ़ा     नहीं  होते

नाप     आए     बुलंदियां    सारी
लोग  फिर  भी  ख़ुदा  नहीं  होते !

                                        ( 2013 )

                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: नाविक; साहिलों: किनारों; जुदा: विलग, दूर; ख़फ़ा: नाराज़; अह् ले-ईमां: आस्तिक; रहरवी: यात्रा; उसूल: सिध्दांत;  कामिल: सर्वांग-सम्पूर्ण, अपरिवर्त्तनीय; मरहले: पड़ाव; शबो-शब: रात्रि-प्रतिरात्रि; ज़ख़्म: घाव; प्रातः काल की शीतल समीर;फ़ाक़ाकशी: भूखे रहने का अभ्यास; मुफ़लिसों: विपन्न, निर्धनों की ; बुलंदियां: ऊंचाइयां।

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

दिल कांपता है...

हैरतज़दा  हैं    हिंद   की    बुनियाद   देख  कर
हिलती  भी   नहीं    क़ुव्वते-फ़ौलाद   देख  कर

सीने  में  दर्द   चश्म  में   शबनम  तलक  नहीं
हम  हंस  पड़े  हैं  ख़ुद  को  यूं  बर्बाद  देख  कर

शे'रो -सुख़न     के    रास्ते    वीरान     हो  गए
क़ातिल  को    तेरे  शहर  में  आज़ाद  देख  कर

शीरीं   हो   सोहनी  हो   के:    लैला-ओ-हीर  हो
दिल    कांपता  है   इश्क़  की   रूदाद  देख  कर

आबो-हवा    बदल   गई   दहशत  में  हैं  परिंद
दरियादिली - ए- दामने-सय्याद      देख  कर !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हैरतज़दा: आश्चर्य-चकित; बुनियाद: नींव; क़ुव्वते-फ़ौलाद: इस्पात की सामर्थ्य; चश्म: आंख; शे'रो-सुख़न: काव्य-कला; वीरान: निर्जन; शीरीं, सोहनी, लैला, हीर: मध्य-कालीन प्रेम-गाथाओं की नायिकाएं; रूदाद: वृत्तांत, महागाथा; आबो-हवा: पर्यावरण; दहशत: आतंक; परिंद: पक्षी; दरियादिली-ए-दामने-सय्याद: बहेलिए की विशाल-हृदय  उदारता।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

ख़ुदा नहीं देंगे

वो:    मुझे   रास्ता   नहीं  देंगे
सर  कटा  लूं  वफ़ा  नहीं  देंगे

नफ़रतों  के  लिबास  पहने  हैं
प्यार  तो   ज़ाहिरा   नहीं  देंगे

कुर्सियों  की  महज़  लड़ाई  है
कैसे   मानें    दग़ा    नहीं  देंगे

साज़िशन   राम  बेचने  वालों
बाख़ुदा   हम  ख़ुदा   नहीं  देंगे

मौत  का   रक़्स   देखने  वाले
ज़िंदगी   को    दुआ  नहीं  देंगे

लोग  मासूमियत  के  दुश्मन  हैं
मुजरिमों   को   सज़ा   नहीं  देंगे

क़त्ल  कर  दें  अगर  मुहब्बत  से
हम     उन्हें     बद्दुआ     नहीं  देंगे

उनके  दिल  में  नमाज़  पढ़ते  हैं
क्या  हमें  इसलिए  मिटा  देंगे  ?

                                             ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वफ़ा: समुचित व्यवहार; नफ़रतों  के  लिबास: घृणाओं के वस्त्र; ज़ाहिरा: प्रकटतः; दग़ा: धोखा; साज़िशन: षड्यंत्रपूर्वक; बाख़ुदा: ख़ुदा की क़सम; रक़्स: नृत्य; दुआ: शुभकामना; मासूमियत: निर्दोषिता; मुजरिमों: अपराधियों। 

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

हिज्र में सब्र ...

दीद  का  दिन  गुज़र  न  जाए  कहीं
वक़्त  अपना  ठहर  न  जाए  कहीं

है  शबे-वस्ल   जागते  रहिए
ख़्वाब  कोई  बिखर  न  जाए  कहीं

इख़्तिलाफ़ात  घर  में  बेहतर  हैं
घर  से  बाहर  ख़बर  न  जाए  कहीं 

हिज्र  में  सब्र  यूं  ज़रूरी  है
ग़म  इधर  से  उधर   न   जाए  कहीं

दर्द  को  काफ़िया  बना  तो  लें
ये:  ख़िलाफ़े-बहर  न  जाए  कहीं

ज़िंदगी   का  ख़ुमार  बाक़ी  है
ये:  नशा  भी  उतर  न  जाए  कहीं

लोग  फिर  आ  रहे  हैं  सड़कों  पे
शाह  की  फ़ौज  डर  न  जाए  कहीं !

                                                ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दीद: दर्शन; शबे-वस्ल: मिलन की रात्रि; इख़्तिलाफ़ात: मतभेद ( बहुव.); हिज्र: वियोग; काफ़िया: शे'र में आने वाला तुकांत शब्द; ख़िलाफ़े-बहर: छंद के विरुद्ध; ख़ुमार: तंद्रा।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

शाह की शाम

दिल  किसी  दिन  मचल  न  जाए  कहीं
हाथ   से    ही   निकल     न  जाए  कहीं

देर      से      सज-संवर     रहे    हैं    वो
आईना    ही    पिघल    न    जाए  कहीं

शैख़     पीता     तो      है    सलीक़े    से
पीते-पीते      संभल     न     जाए  कहीं

वो        उतारू      हैं      नज़रसाज़ी    पे
तीर  हम  पे  भी    चल    न  जाए  कहीं

आज    है      यार      मेहरबां     हम  पे
उसकी  फ़ितरत    बदल  न  जाए  कहीं

मुद्दतों         बाद       हाथ      आया    है
वक़्त   फिर  से   बदल   न  जाए   कहीं

क़ौम       बेताब       है      बग़ावत   को
शाह  की    शाम    ढल    न  जाए  कहीं !

                                                  (2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शैख़: अति-धार्मिक; नज़रसाज़ी: आंख से इशारे, नैन-मटक्का; मेहरबां: कृपालु; फ़ितरत: स्वभाव; क़ौम: राष्ट्र; बग़ावत: विद्रोह।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

वो बात कब हुई ?

मंज़ूर       मेरी      अर्ज़े-मुलाक़ात     कब  हुई
जो   पूछते  हो   तुम   के  मुनाजात  कब  हुई

मौसम   मेरी   तरह   सुख़न-नवाज़   तो  नहीं
क्या    पूछिए   हुज़ूर   के   बरसात    कब  हुई

मरते   रहे     ग़रीब    चमकता   रहा    बाज़ार
अह्दो-अमल    में   उसके  इंज़िबात  कब  हुई

तेरा    निज़ाम    है    फ़िदा     सरमाएदार    पे
मुफ़लिस   पे    तेरी   नज़्रे-इनायात   कब  हुई

इक़बाले-जुर्म    से   हमें     इनकार    तो  नहीं
जिस  बात  पे  ख़फ़ा  है  तू  वो  बात  कब  हुई ?

                                                                ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्ज़े-मुलाक़ात: भेंट की प्रार्थना; मुनाजात: पूजा-अर्चना; सुख़न-नवाज़: संवाद-प्रेमी; प्रतिज्ञा और आचरण; इंज़िबात: दृढ़ता; निज़ाम: प्रशासन;  सरमाएदार: पूंजीपति; मुफ़लिस: वंचित, निर्धन;   नज़्रे-इनायात: कृपा-दृष्टि; इक़बाले-जुर्म: अपराध-स्वीकार;  
ख़फ़ा: क्रोधित। 

रविवार, 18 अगस्त 2013

वो मसीहा बना न दे...

ज़िक्रे-यारां   रुला   न  दे  हमको
ख़ुल्द  से  भी  उठा  न  दे  हमको

ऐ लबे-दोस्त ! ज़ब्त कर दो दिन
ज़िंदगी  की  दुआ  न  दे  हमको

हम   ग़मे-रोज़गार  से   ख़ुश  हैं
ख़्वाब  कोई  नया  न  दे  हमको

क़ब्र   मेरी   सजा    रहा  है   यूं
वो  मसीहा  बना  न  दे  हमको

दोस्त   गिनने  लगें   रक़ीबों  में
वक़्त  ऐसी  सज़ा  न  दे  हमको

बेरुख़ी  ठीक    मगर    तर्के-वफ़ा ?
ज़ख्म  इतना  बड़ा  न  दे  हमको !

दोस्ती     का    पयाम    भेजा  है
शाह  फिर  से  हरा  न  दे  हमको !

                                             ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़िक्रे-यारां: मित्रों का उल्लेख; ख़ुल्द: स्वर्ग; ऐ लबे-दोस्त: मित्र के अधर; ज़ब्त कर: संयम रख;   ग़मे-रोज़गार: आजीविका का दुःख; मसीहा: ईश्वरीय दूत; रक़ीबों: शत्रुओं; बेरुख़ी: उदासीनता;   तर्के-वफ़ा: निर्वाह से मुंह मोड़ना; पयाम: संदेश।

शनिवार, 17 अगस्त 2013

यार से अर्ज़े-हाल ..

दिल  की  बातें  कमाल  की  बातें
ख़ूबसूरत    ख़याल       की  बातें

अर्श  पे     कर  रहे  हैं     सय्यारे
चांद  की  अल-हिलाल  की  बातें

कह  गए  सब  सहेलियों  में  वो:
बेख़ुदी  में    विसाल     की  बातें

दिल  को  कमज़ोर  बना  देती  हैं
फ़िक्रो-रंजो-मलाल    की     बातें

आख़िरत  तक  जवान  रहती  हैं
यार  से    अर्ज़े-हाल     की  बातें

शैख़ साहब का  दिल  धड़कता  है
सुन  के  हुस्नो-जमाल  की  बातें

झुर्रियां   भी    बयान    करती  हैं
हुस्न  के    माहो-साल  की  बातें

इस  ज़ईफ़ी   में  क्या  सुनाएं  हम
अपने    जाहो-जलाल    की  बातें  !

                                           ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श: आकाश; सय्यारे: नक्षत्र; अल-हिलाल: नए चांद के ठीक ऊपर शुक्र ग्रह के दिखाई पड़ने का दृश्य; विसाल: मिलन; फ़िक्रो-रंजो-मलाल: चिंता, दुःख और क्षोभ; अर्ज़े-हाल: ( प्रेम की ) स्वीकारोक्ति; हुस्नो-जमाल: सौंदर्य और यौवन; माहो-साल: महीने और साल; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; तेज-प्रताप।


गुरुवार, 15 अगस्त 2013

बहक न जाए नज़र...

इश्क़    ईमान    हुआ  जाता  है
दर्द      तूफ़ान    हुआ    जाता  है

चल  दिए  दोस्त  बदगुमां  हो  के
शहर   वीरान    हुआ    जाता  है

बहक  न  जाए  नज़र  महफ़िल में
दिल  निगहबान  हुआ    जाता  है

ख़ुदकुशी  कर  न  लें  मियां  ग़ालिब
घर    परेशान     हुआ    जाता  है

खुल  गया  राज़  हमसे  उल्फ़त  का
वो:    पशेमान    हुआ    जाता  है

हाले-दिल    पे    ग़ज़ल   कहें  कैसे
दाग़     उन्वान     हुआ    जाता  है 

देख   के    रंग    सियासतदां    के
मुल्क    हैरान    हुआ    जाता  है !

                                     ( 2013 )

                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   ईमान: एक मात्र आस्था; बदगुमां हो के : बुरा मान कर; निगहबान: प्रहरी; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  
मियां  ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, 19 वीं शताब्दी के महान शायर; उल्फ़त: लगाव, प्रेम; पशेमान: लज्जित;
हाले-दिल: मनःस्थिति; दाग़: कलंक;    उन्वान: शीर्षक;  सियासतदां: राजनीतिज्ञ। 

क़ैद है रिज़्क़ ...!

मुल्क  उलझा  है  सौ  सवालों  में
क़ैद  है  रिज़्क़  कितने  तालों  में

इत्तेफ़ाक़न   नज़र  में   आए   वो
और  बस, बस  गए  ख़यालों  में

हुक्मरां      मस्त   हुए     बैठे  हैं
हर  तरफ़  से   घिरे   दलालों  में

भूख    जब  इंतेहा  पे    आती  है
आग लगती है दिल के छालों  में

आज  भी   बाज़   नहीं  आए  वो
मुब्तिला  हैं    तमाम   चालों  में

लूट   लेते   हैं    एक   मिसरे  में
है हुनर अब  भी  बा-कमालों  में

छटपटाता   है  छूटने   के   लिए
फंस गया मुल्क किनके जालों  में !


                                            ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन, रोज़ी-रोटी; इत्तेफ़ाक़न: संयोग से; हुक्मरां: शासक-वर्ग; इंतेहा: अति; बाज़: छोड़ना; मुब्तिला: व्यस्त; 
मिसरे  में: वाक्य, पंक्ति में;   बा-कमालों: प्रतिभावानों।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

पानी हराम है ...

वाइज़  को  ख़राबात  में  आने  का  हक़  नहीं
हम  मैकशों  पे   रंग  जमाने   का   हक़  नहीं

मुद्दा-ए-दोस्ती       है      दोस्तों    में    ही  रहे
ग़ैरों  को    हमें    ख़ुम्र  पिलाने  का  हक़  नहीं

ख़ामोश  हैं    हम   उसके  एहतेराम  में  मगर
उसको  हमें    यूं  रोज़  सताने  का   हक़  नहीं

ज़ाहिद   हमें    उस  शहर  का  पानी  हराम  है
मोमिन  को  जहां  जाम  उठाने  का  हक़  नहीं

इस     शहरे-आशिक़ान  के    आदाब   फ़र्क़  हैं
हूरों  को    यां    हिजाब  निभाने  का  हक़  नहीं

नफ़रत    किया  करे  है   जो  अपने अवाम  से
उस  शाह  को  सरकार  चलाने  का  हक़  नहीं !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वाइज़: धर्मोपदेशक; ख़राबात: मदिरालय; मैकशों: मदिरा-रसिक; मुद्दा-ए-दोस्ती: मित्रता का विषय; ग़ैरों: अन्यों;   ख़ुम्र: नशीला पदार्थ, मदिरा; एहतेराम: सम्मान; ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; मोमिन: आस्तिक; हराम: धर्म-विरुद्ध; जाम: मदिरा-पात्र; शहरे-आशिक़ान: प्रेमियों का नगर;  आदाब: शिष्टाचार;  फ़र्क़: भिन्न; हूरों: अप्सराओं;   यां: यहां; हिजाब: पर्दा; नफ़रत: घृणा; अवाम: नागरिक गण। 

सोमवार, 12 अगस्त 2013

हाथ बढ़ाओ तो सही !

श'मे-उम्मीद  कभी  दिल  में  जलाओ  तो  सही
स्याहिए-ग़म  से  शबे-नूर  में   आओ  तो  सही

कर  चुके  उम्र  इक  क़ुर्बान  ज़माने  के  लिए
अब  बचे  वक़्त  को  ख़ुद  पे  भी  लगाओ  तो  सही

बे-रहम  भी  हो  सितमगर  भी  जफ़ा-पेशा  भी
हम  ख़ुदा  तुम  को  बनाएंगे  तुम  आओ  तो  सही

कब  तलक  ग़ैब  में  रह  के  दुआ-सलाम  करें
रू-ब-रू  हों  के  न  हों  ख़्वाब  सजाओ  तो  सही

डूबना  तय  है  तो  क्यूं  साथ  न  डूबें  हम-तुम
एक  गुंज़ाइश  है  तुम  हाथ  बढ़ाओ  तो  सही

दरिया-ए-वक़्त  का  रुख़  तुम  भी  बदल  सकते  हो
हौसला  रख  के  क़दम  हमसे  मिलाओ  तो  सही  !

                                                                      ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: श'मे-उम्मीद: आशा-दीप; स्याहिए-ग़म: दुःख की कालिमा; शबे-नूर: प्रकाशित रात्रि, पूर्णिमा; क़ुर्बान: बलि, न्यौछावर;  
बे-रहम: निर्दय, सितमगर: पीड़ा देने वाला; जफ़ा-पेशा: छल करने का व्यवसाय करने वाला;ग़ैब: अदृश्य-लोक; रू-ब-रू: आमने-सामने; गुंज़ाइश: संभावना; दरिया-ए-वक़्त: समय की नदी; रुख़: दिशा।

रविवार, 11 अगस्त 2013

इंक़लाब बाक़ी है

लहू  में  रंग   दिल  में    इज़्तेराब  बाक़ी  है
तेरे   ख़िलाफ़     मेरा    इंक़लाब    बाक़ी  है

मेरी  नज़र  में   एहतेरामे-हुस्न   है  उतना 
तेरी  निगाह  में  जितना  हिजाब  बाक़ी  है

लिपट  गए  थे  किसी  रौ  में  वो:  कभी  हमसे
ज़हन  में  अब  भी  वो:  इत्रे-गुलाब  बाक़ी  है

बढ़ा  रहे  हैं    वो:    ग़ुस्ताख़ियां    बयानों  में
मेरी  ज़ुबां  में   मगर   'जी-जनाब'  बाक़ी  है

अवामे-क़ौम  के   दिल  में   सवाल  हैं  लाखों
निज़ामे-मुल्क  से  इक-इक  जवाब  बाक़ी  है

अवामे-हिंद  को    तारीकियों   से    डर  कैसा
हरेक  दिल  में   जहां     आफ़ताब    बाक़ी  है

मुहब्बतों  के  सिपाही  को  चैन  हो  क्यूं  कर
अगर  दिलों  में    कहीं    एहतेसाब  बाक़ी  है

तू  अपने  असलहो-लश्कर  सजा-संवार  ज़रा
ग़रीब  क़ौम   का    तुझसे    हिसाब  बाक़ी  है  !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: इज़्तेराब: बेचैनी, व्याकुलता;   इंक़लाब: क्रांति; एहतेरामे-हुस्न: सौंदर्य का सम्मान; हिजाब: लज्जा, पर्दा; 
रौ: भावनात्मक बहाव; ज़हन: मस्तिष्क;  इत्रे-गुलाब: गुलाब का इत्र;  ग़ुस्ताख़ियां: अशिष्टता; ज़ुबां: भाषा; अवामे-क़ौम: राष्ट्र की जनता; निज़ामे-मुल्क: देश की सरकार;   अवामे-हिंद: भारत के नागरिक; तारीकियों: अंधेरों; आफ़ताब: सूर्य;  एहतेसाब: वैमनष्य; 
असलहो-लश्कर: अस्त्र-शस्त्र और सेनाएं। 

शनिवार, 10 अगस्त 2013

संग-मरमर हूं मैं ...

कभी  तो  कोई  हक़ीक़त  तुम्हें  बता  देगा
मेरे   मयार   की    ऊंचाइयां     दिखा  देगा

वक़्त अकबर है  इस शै का एहतेराम करो
तुम्हें  उठा  के   कहीं  से  कहीं  बिठा  देगा

तेरा   नफ़ा    है   ये   बेताब  निगाही  मेरी
मेरा   ख़याल    तेरी  अंजुमन  सजा  देगा

तू आज़मा तो हमें  सब्र कर के  देख  ज़रा
हमारा साथ तुझे क्या से क्या   बना  देगा

संग-मरमर हूं मैं नाख़ून से कट  जाता  हूं
तुम्हारा  तीरे-नज़र  तो  मुझे  मिटा  देगा

भटक रहे हैं तेरे शहर में ये सोच  के  हम
खुदा  हमें  भी  राहे-रास्त   पे  लगा  देगा  !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मयार: प्रास्थिति; अकबर: सर्व शक्तिमान; शै: प्रकृति की रचना; एहतेराम: समादर;  नफ़ा: लाभ; बेताब  निगाही: आकुल दृष्टि; ख़याल: चिंतन; अंजुमन: सभा; राहे-रास्त: उचित मार्ग। 


गुरुवार, 8 अगस्त 2013

क्या मज़ा ईद यूं मनाने से ?

चांद     देखा     नहीं     ज़माने   से
क्या    मज़ा    ईद    यूं  मनाने  से

ग़ैर   के   हाथ   भेजते   हैं  सलाम
आ   ही   जाते   किसी   बहाने  से

ये  अमल   दोस्ती  में   ठीक  नहीं
बाज़   आएं   वो   दिल  दुखाने  से

ईद   मिलने    सुबह   से    बैठे  हैं
उनको    फ़ुर्सत   नहीं  ज़माने  से

आप  कहिए  के  किसने  रोका  है
पास   आ   के   क़बे    मिलाने  से

बा-वुज़ू  हैं  मियां  गले  मिल  लें
कुछ  न  होगा  क़रीब  आने  से  !

                                           ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़माने से: लम्बे समय से; ग़ैर: पराए; अमल: व्यवहार; बाज़ आना: दूर रहना;  क़बे: कंधे; बा-वुज़ू: स्वच्छ, शुचित। 

ख़ुदा याद आता है

करूं  मैं  याद  तुझे  तो  ख़ुदा  याद  आता  है
मगर ये हद  है  के  तू बारहा  याद  आता  है

हुआ  रक़ीब  मेरा   वो   तो    बा-ईमान  हुआ
के  बद्दुआ  में  भी  नामे-ख़ुदा  याद  आता  है

अज़ां-ए-फ़ज़िर से अज़ां-ए-इशा तक  मुझको
वादिए-सीन:  का  वो  मोजज़ा  याद  आता  है

तेरा  वो  सोज़े-सुख़न  वो  तेरा  अंदाज़े-बयां
हरेक  लफ़्ज़  पे  सौ  सौ  दफ़ा  याद  आता  है

सजा   जहाज़    मेरा     आ  गए  फ़रिश्ते  भी
सफ़र  के  वक़्त  तेरा  रास्ता  याद  आता  है !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

अर्थ-संदर्भ: बारहा: बार-बार; रक़ीब: शत्रु; बा-ईमान: आस्थावान;   बद्दुआ: अ-शुभेच्छा; अज़ां-ए-फ़ज़िर: सूर्योदय-पूर्व की अज़ान; दिन की पांचवीं और अंतिम अज़ान; वादिए-सीन: का  वो  मोजज़ा : सीना की घाटी में हज़रत मूसा अ.स. की पुकार पर ख़ुदा का जलवा होने का चमत्कार; सोज़े-सुख़न: साहित्यिक समझ; वक्तृत्व की शैली;   लफ़्ज़: शब्द;  जहाज़: अर्थी; फ़रिश्ते: मृत्यु-दूत; 

बुधवार, 7 अगस्त 2013

ख़ुदकुशी हल नहीं

रूठ  जाते  हैं  प्यार  करते  हैं
वार  क्यूं  बार  बार  करते  हैं

हो  चुकी  उम्र  टूट  जाने  की
आप क्यूं ज़ार ज़ार करते  हैं

तीर-तलवार क्या करेंगे हम
बात  को   धारदार  करते  हैं

तर्के-उल्फ़त के बाद वो: हमको
दोस्तों    में   शुमार    करते  हैं

हमपे हर्ग़िज़ यक़ीं नहीं उनको
ग़ैर    का     ऐतबार  करते  हैं

ख़्वाब में क्यूं  सताइए आ  के
हम हक़ीक़त से प्यार करते हैं

ख़ुदकुशी हल नहीं किसी ग़म का
ज़िंदगी    से     क़रार    करते  हैं

शे'र  कहिए  तो  रूह  से  कहिए
जिस्म को क्यूं सितार करते  हैं

लौट  पाना  हमें  नहीं  मुमकिन
अर्श   पे     इंतज़ार    करते  हैं !

                                             ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ार ज़ार: क्षरित; तर्के-उल्फ़त: प्रेम-भंग;   शुमार: गणना;  हर्ग़िज़: किंचित भी; यक़ीं: विश्वास;   ऐतबार: भरोसा;  
हक़ीक़त: यथार्थ; ख़ुदकुशी: आत्महत्या;  क़रार: अनुबंध; जिस्म: शरीर;  मुमकिन: संभव;अर्श: आकाश, परलोक। 

सोमवार, 5 अगस्त 2013

सज्द: मंज़ूर हुआ...

यार     मग़रूर  हुआ  जाता  है
इश्क़   मशहूर  हुआ  जाता  है

ख़्वाब फिर आज उस परीवश का
ख़्वाबे-मख़्मूर    हुआ    जाता  है

आज  तो  ख़त्म  हो  ग़मे-हिजरां
आज  दिल  चूर  हुआ  जाता  है

मेरी सोहबत का असर ही कहिए
दोस्त   ग़य्यूर   हुआ    जाता  है

दूरियां    रूह   की     मिटा  लीजे
दिल से  दिल  दूर  हुआ जाता  है

छू    रहे    हैं    वो:  मेरी   पेशानी
दर्द     काफ़ूर     हुआ    जाता  है

आज  की शब विसाल   होगा  ही
सज्द:   मंज़ूर     हुआ  जाता  है !

                                          ( 2013 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मग़रूर: गर्वोन्मत्त; परीवश: परियों जैसे चेहरे वाला; ख़्वाबे-मख़्मूर: मदोन्मत्त का स्वप्न; ग़मे-हिजरां: वियोग का दुःख; 
सोहबत: संगति;  ग़य्यूर: स्वाभिमानी; पेशानी: माथा;  काफ़ूर: कपूर, शीघ्र अदृश्य होना; विसाल: संयोग, मिलन; सज्द:: साष्टांग प्रणाम। 

दिल में ख़ुदा के कौन...

दिल  में  ख़ुदा  के  कौन  मकीं  है  मेरे  सिवा
ऐसा   तो    ख़ुशनसीब   नहीं  है    मेरे  सिवा

राहे-ख़ुदा    में    सिर्फ़    मदीना    पड़ाव  था
हर  शख़्स  काफ़िले  का  वहीं  है  मेरे  सिवा

ख़ालिक़  है  मेरा  दोस्त  मेरा  हमनवा  भी  है
इक  तू  ही   यहां    शाहे-ज़मीं    है  मेरे  सिवा

आ-आ  के  मेरे  ख़्वाब  में  इस्लाह  जो  करे
ग़ालिब  का  वो:  सज्जाद:नशीं  है  मेरे  सिवा

बेहद सुकूं से  कर लिया सर  दरिय: ए  चनाब
कच्चे  घड़े  पे  किसको  यक़ीं  है  मेरे  सिवा ?

                                                             ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मकीं: मकान में रहने वाला; हमनवा: सह-भाषी; शाहे-ज़मीं: पृथ्वी का शासक;इस्लाह: सुझाव; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, 
19 वीं सदी के महान शायर;  सज्जाद:नशीं: गद्दी पर बैठने वाला, उत्तराधिकारी; सर: विजय;  दरिय: ए चनाब: चनाब नदी।  

रविवार, 4 अगस्त 2013

दोस्त मुद्दआ

दोस्त  को  जब  ग़लत  कहा  जाए
हाथ   सीने  पे    रख    लिया  जाए

जब   हमारी   वफ़ाएं  भी  कम  हों
दोस्त  को    क्यूं  बुरा   कहा  जाए

दोस्ती   तर्क    हो    उसके   पहले
दिल से कुछ मश् वरा लिया  जाए


दोस्त  जब  दुश्मनी  पे  आ  जाएं
आईना     साथ    में     रखा  जाए

दोस्ती    बार  जब  लगे  दिल  को
सिलसिला फिर नया किया  जाए

फ़र्क़    जब   दोस्ती   में  आता  हो
क्यूं  न  खुल  के  कहा  सुना  जाए

भीड़   में    दोस्त   मुद्दआ  जब  हो
सोच  कर   तज़्किरा   किया  जाए

क्या  ये:  लाज़िम  नहीं  हसीनों  को
दोस्त का दिल भी रख  लिया  जाए ?!

                                                     ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वफ़ाएं: निष्ठाएं;  तर्क: टूटना; मश् वरा: परामर्श;  सिलसिला: क्रम, आरंभ;   मुद्दआ: विषय;  तज़्किरा: चर्चा, उल्लेख। 


शनिवार, 3 अगस्त 2013

सुर्ख़ाब क्या हुए ?

शेरो-सुख़न  के   शहर  में   आदाब   क्या  हुए
वो: नाज़   वो: अंदाज़   वो: अहबाब   क्या  हुए

ढूंढा   करे  हैं     जिनको     बहारें    गली-गली
वो:    रश्क़े-माहताब     गुले-आब    क्या  हुए

हालात  की  ग़र्दिश  से  थक  के  चूर  हो  गए
नींदों  के   दरमियान   तेरे  ख़्वाब   क्या  हुए

हम  जन्नतुल-फ़िरदौस  में  हैरान  रह  गए
क़व्वे   हैं    बेशुमार    पे    सुर्ख़ाब  क्या  हुए

निकले  थे  घर  से   हस्रते-तूफ़ां   लिए   हुए
कश्ती  हमारी  देख  के  गिरदाब  क्या  हुए ?

                                                          ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शेरो-सुख़न: काव्य और साहित्य; आदाब: शिष्टाचार;नाज़: गर्व; अंदाज़: शैली; अहबाब: प्रिय-जन, मित्र;
चन्द्रमा के ईर्ष्या-पात्र; गुले-आब: गुलाब, शोभायमान पुष्प; हालात की ग़र्दिश: समय के फेर;  दरमियान: मध्य;
मनमोहक स्वर्ग; सुर्ख़ाब: लाल पंखों वाले दुर्लभ पक्षी; हस्रते-तूफ़ां: तूफ़ान से मिलने की इच्छा; गिरदाब: भंवर।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

दर पे तेरे बैठे हैं

कितने आसान से अल्फ़ाज़ में  ना करते हो 
वाह  जी  वाह !  दोस्तों को  मना  करते हो !

हसरते-दीद   में   हम   दर  पे   तेरे   बैठे  हैं 
और तुम  ग़ैर के घर जा के   वफ़ा  करते हो 

कल कहा दोस्त आज हमसे दुश्मनी कर ली 
लोग हैरत में हैं क्या कहते हो क्या करते हो 

ये: भी माना के: अब दोस्त नहीं हम तो फिर 
कौन  से  हक़  से  मेरे दिल में  रहा करते हो 

ख़ूब हैं  आपकी  ख़ामोशियां सुब्हान अल्लाह 
तोड़   के  सैकड़ों  दिल   सूम   बना  करते हो 

हम  दीवाने   तुम्हें   बेकार  ही   दिल  दे  बैठे 
तुम  तो  हर  एक  के अश्'आर सुना करते हो 

क़ब्र   में   भी   हमें   तुम   चैन  न   लेने दोगे 
क़त्ल कर फिर से जी उठने की दुआ करते हो !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अल्फ़ाज़: शब्द ( बहुव.);हसरते-दीद: दर्शन की अभिलाषा;दर: द्वार;  ग़ैर: पराए; वफ़ा: निर्वाह;  हक़: अधिकार; सूम: घुन्ना, मौनी।