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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

आशिक़ी की उमर...

वक़्त    गुज़रा    सहर     नहीं  आई
आज     अच्छी   ख़बर    नहीं  आई

क़ैद          सरमाएदार      के  हाथों
रौशनी      लौट    कर     नहीं  आई

रूठ  कर मुफ़लिसी  से  निकली थी
ज़िन्दगी   फिर   नज़र   नहीं  आई

हुस्ने-बेताब      सब्र  तो        कीजे
आशिक़ी    की    उमर    नहीं  आई

शब  ने  मेरे  ख़िलाफ़  साज़िश  की
नींद    कल    रात  भर   नहीं  आई

ख़ुशनसीबी    प'   शेर  क्या  कहते
बात        ज़ेरे-बहर        नहीं  आई

ख़ुल्द  में    तश्न:काम  हैं    ग़ालिब
कोई    उम्मीद    बर    नहीं  आई !

                                          ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सहर: उष:काल; सरमाएदार: पूंजीपति; मुफ़लिसी: निर्धनता; हुस्ने-बेताब: अधीर सौन्दर्य; सब्र: धैर्य; 
प्रेम-प्रसंग; साज़िश: षड्यंत्र; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; ज़ेरे-बहर: छन्द में; ख़ुल्द: जन्नत, स्वर्ग;   तश्न:काम: प्यासे;
ग़ालिब: उर्दू शायरी के पीराने-पीर, हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, विजेता; बर: पूर्ण।