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बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

ख़ाना-ख़राब की बातें

छोड़िए  भी    किताब    की  बातें
ये:     गुनाहो-सवाब     की   बातें

आप  जो  बिन  पिए  बहकते  हैं
क्या  सुनें  हम  जनाब  की  बातें

उलझे-उलझे   सवाल  हैं   उनके
हम  कहें  क्या  जवाब  की  बातें

भूल  ही  जाएं  तो  बुरा  क्या  है
सूरतों  की    हिजाब    की  बातें

मुद्द'आ  मत  बनाइए  दिल  का
एक    ख़ाना-ख़राब     की  बातें

कोई  कम्बख़्त   ना  करे  हमसे
मुफ़लिसी  में   शराब  की  बातें

बेशक़ीमत  है    तोहफ़:-ए-यारी
छोड़    दीजे    हिसाब  की  बातें

पी   रहे   हैं   शराब    आंखों  से
सोचते  हैं     अज़ाब    की  बातें  !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: किताब: धर्म-ग्रंथ, क़ुर'आन;  गुनाहो-सवाब: पाप-पुण्य;  हिजाब: पर्दा, मुखावरण; मुद्द'आ: बिंदु, विषय;  ख़ाना-ख़राब: गृह-त्यागी; कम्बख़्त: अभागा; मुफ़लिसी: विपन्नता; बेशक़ीमत: अति-मूल्यवान; तोहफ़:-ए-यारी: मित्रता का उपहार;  अज़ाब: पाप का फल। 

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