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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

चुप लगा रखिए...

दिल  बड़ी  चीज़  है  बचा  रखिए
हां,  मगर  रास्ता  खुला  रखिए

शर्त्त  है  वस्ल  के  लिए  उनकी
'घर  शहंशाह  से  बड़ा  रखिए'

दें  मुनासिब  जगह  रक़ीबों  को
बज़्म  का  क़ायदा  बना  रखिए

आज  पूरी  न  हों  तो  कल  होंगी
हसरतों  को  हरा-भरा  रखिए

गर  दुआ  चाहिए  फ़क़ीरों  की
घर  जलाने  का  हौसला  रखिए

रू  ब  रू  है  निज़ाम  क़ातिल  का
लड़  न  पाएं  तो  चुप  लगा  रखिए

आएं  तब  ही  हुसैन  की  सफ़  में
जब  शहादत  का  माद्दा  रखिए  !

                                                                   (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : वस्ल ; मिलन; मुनासिब : समुचित; रक़ीबों : प्रतिद्वंदियों; बज़्म : सभा, चर्चा करने का स्थान, संसद; क़ायदा : नियम; हसरतों : इच्छाओं; रू ब रू : प्रत्यक्ष, सम्मुख; निज़ाम : प्रशासन, सरकार; हुसैन : हज़रत इमाम हुसैन अ.स., कर्बला के न्याय युद्ध में जिन्हें यज़ीद की सेनाओं ने शहीद कर दिया था; सफ़ : नमाज़ पढ़ने के लिए लगाई जाने वाली पंक्ति; शहादत : बलिदान; माद्दा : क्षमता ।

बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

तिलिस्मे-आसमां....

जो  दानिशवर  परिंदों  की  ज़ुबां  को  जानते  हैं
यक़ीनन  वो   तिलिस्मे-आसमां    को  जानते  हैं

तू  कहता  रह  कि  तू  ख़ुद्दार  है  झुकता  नहीं  है
जहां   वाले     तेरे   हर  मेह्रबां    को  जानते  हैं

वही   बातें      वही   वादे       वही   बेरोज़गारी
वतन  के  नौजवां  सब  रहनुमां  को  जानते  हैं

कहां  नीयत  कहां  नज़रें  कहां  मंज़िल  सफ़र  की
सभी   रस्ते     अमीरे-कारवां     को  जानते  हैं

खिलेंगे  ख़ुद  ब  ख़ुद  दिल  में  किसी  दिन  आपके  भी
गुलो-.गुंचे    मुहब्बत   के   निशां     को  जानते  हैं

मेरी  आवाज़  पर  बंदिश  लगा  कर  देख  लीजे
फ़लक  तक  सब  मेरे  तर्ज़े-बयां  को  जानते  हैं

तेरे   अहकाम  पर  चलती  नहीं   मख़लूक़  तेरी
इलाही  !  हम  तेरे    दर्दे-निहां   को   जानते  हैं  !

                                                                                             (2016)

                                                                                      -सुरेश   स्वप्निल

शब्दार्थ: दानिशवर : विद्वान; परिंदों : पक्षियों; ज़ुबां : भाषा; यक़ीनन : निस्संदेह, विश्वासपूर्वक; तिलिस्मे-आसमां: आकाश की माया; ख़ुद्दार : स्वाभिमानी; जहां वाले : संसार के लोग; मेह्रबां : अनुग्रही; नौजवां : युवा; रहनुमां : नेताओं; नीयत : आशय; नज़रें : दृष्टि; मंज़िल : लक्ष्य; सफ़र : यात्रा; अमीरे-कारवां : यात्री समूह का नायक; गुलो-.गुंचे : फूल और कलियां; निशां : चिह्नों; आवाज़: स्वर; बंदिश : रोक, प्रतिबंध; तर्जे-बयां : कथन-शैली; अहकाम : आदेशों; मख़लूक़ : सृष्टि; इलाही : (हे) ईश्वर; दर्दे-निहां : गुप्त/आंतरिक पीड़ा ।

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

जिन्हें नाज़ है ....

तुझे    मुर्शिदो-मुस्तफ़ा  भी  कहेंगे
जिन्हें  ग़र्ज़  है  वो  ख़ुदा  भी  कहेंगे

न  जाने  मेरे  दोस्त  क्या  चाहते  हैं
मुहब्बत   करेंगे    बुरा  भी   कहेंगे

मेरे   मेज़्बां  के   इरादे    ग़ज़ब  हैं
बुलाएंगे  घर  तख़्लिया  भी  कहेंगे

अभी   तक  तेरा  नंग  ही  सामने  है
सबूते-हया   दे    हया  भी   कहेंगे

हुकूमत  से  तेरी  नहीं  मुत्मईं  हम
जिन्हें  नाज़  है  वो  भला  भी  कहेंगे

ज़माने  के  दुःख-दर्द  को  गर  समझ  ले
तो  कुछ  और  दिल  के  सिवा  भी  कहेंगे
;
तू  जन्नत  की  ज़द  से  निकल  आए  तो  हम
तुझे  शौक़  से  दिलरुबा   भी  कहेंगे  !

                                                                             (2016)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुर्शिद : संत; मुस्तफ़ा: पैग़म्बर, ईश्वरीय दूत; ग़र्ज़ : स्वार्थ; मेज़बां : आतिथ्य कर्त्ता; तख़्लिया : एकांत;
नंग : निर्लज्जता; सबूते-हया : लज्जा का  प्रमाण; मुत्मईं : संतुष्ट, आश्वस्त; नाज़ : गर्व; गर : यदि; जन्नत : स्वर्ग;
ज़द : पकड़, पहुंच; शौक़ : रुचि; दिलरुबा : मनमोहक।





रविवार, 2 अक्तूबर 2016

दास्ताने अली

शहादत  के  हक़  में  शियाने  अली
चले      कर्बला     आशिक़ाने  अली

उठें  ज़ुल्म  की  आंधियां  रात  दिन
रुकेगा    न   अब    कारवाने  अली

जहां  हक़-ओ-इंसाफ़  की  जंग  हो
लड़ेंगे       तुम्हारे   दिवाने      अली

हमें  डर  नहीं  मुश्किलों  का  ज़रा
हिफ़ाज़त  को  हैं  साहिबाने  अली

यज़ीदी  सितम    भी   निभा  जाएंगे
जियाले   हैं    सब    नौजवाने  अली

सदी  दर  सदी    लोग    कहते  रहे
जवां       ही   रही     दास्ताने  अली

इधर  फ़ातिमा   तो   उधर  मुस्तफ़ा 
खड़े   हैं      हमारे     सरहाने  अली  !

                                                                     (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शहादत : बलिदान; हक़ : पक्ष; शियाने अली: हज़रत अली हैदर मौला अ. स.के मित्र एवं शुभचिंतक;
कर्बला : सऊदी अरब का एक स्थान जहां हज़रत इमाम हुसैन और यज़ीद की सेनाओं के बीच इस्लाम का धर्म-युद्ध लड़ा गया था; आशिक़ाने अली : अली के प्रेमी जन; कारवाने अली : हज़रत अली अ. स. के साथियों का समूह; हिफ़ाज़त : सुरक्षा; साहिबाने अली : हज़रत अली अ.स. के कृपा पात्र; यज़ीदी सितम : यज़ीद की सेना के भयंकर अत्याचार; जियाले: साहसी; दास्ताने अली : हज़रत अली अ. स. के आख्यान; फ़ातिमा : हज़रत मोहम्मद स. अ. व. की सुपुत्री एवं हज़रत अली अ. स. की जीवन संगिनी; मुस्तफ़ा : पवित्र, पैग़ंबर ।




शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

हू ब हू क़िस्से ...

जंगजू  ख़्वाब  जंगजू  क़िस्से
लो  मियां  हो  गए  शुरू  क़िस्से

सुस्त  रफ़्तार  थी  हक़ीक़त  की
बन  गए  आज  जुस्तजू  क़िस्से

चंद  तब्दीलियां  ज़रूरी  हैं
कौन  दोहराए  हू  ब  हू  क़िस्से

नंग(ए)तहज़ीब  का  ज़माना  है
तो  उड़ें  क्यूं  न  चारसू  क़िस्से

काश ! रहती  ज़ुबान  क़ाबू  में
ले  गए  घर  की  आबरू  क़िस्से

कोई  ख़ामोशियां  बचा  रक्खे
पी  चुके  हैं  बहुत  लहू  क़िस्से


बाग़े  जन्नत  में  ख़ौफ़  तारी  है
कर  गए  क़त्ल  रंगो-बू  किस्से  !

                                                             (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जंगजू : युद्धोन्मादी, आक्रामक; क़िस्से : आख्यान, कथा, मिथक; रफ़्तार : गति; हक़ीक़त : यथार्थ; जुस्तजू: खोज; तब्दीलियां : परिवर्त्तन; हू ब हू : यथावत; नंग(ए)तहज़ीब : सभ्यता का अभाव; चारसू : चारों ओर; क़ाबू : नियंत्रण; आबरू : सम्मान; ख़ामोशियां : मौन, शांति; लहू : रक्त; बाग़े  जन्नत : स्वर्ग का उद्यान; ख़ौफ़ : भय, आतंक; तारी : व्याप्त ।


गुरुवार, 29 सितंबर 2016

शो'अरा की नियाज़

वो  तसव्वुफ़  पे  वाज़  करते  हैं
एहतरामे - अयाज़       करते  हैं

दिल  किसी  काम  आए  तो  रख  लें
हम     कहां    ऐतराज़  करते  हैं

सिर्फ़   इमदाद   ही     नहीं  देते
ज़ुल्म  भी   दिलनवाज़  करते  हैं

मुफ़्त  इस्लाह    छोड़िए   साहब
नौजवां   कब  लिहाज़  करते  हैं

शाह   दिलदार  हो  गए  जब  से 
शो'अरा   की   नियाज़  करते  हैं

आड़  ले  कर  सफ़ेद  दाढ़ी  की
बदज़नी    सरफ़राज़    करते  हैं

बाग़े-रिज़्वां  में  बैठ  कर  मोमिन
आशिक़ी  का   रियाज़   करते  हैं  !

                                                                  (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : तसव्वुफ़ : सूफ़ी मत, मानव से प्रेम के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति संभव मानने वाला पंथ, सृष्टि की सभी रचनाओं में ईश्वर का वास मानने वाला संप्रदाय; वाज़ : प्रवचन, उपदेश; एहतरामे-अयाज़ : अयाज़ का सम्मान, अयाज़ सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने वाले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी का दास था जिसके सौंदर्य पर मुग्ध हो कर महमूद ने उसे दासता से मुक्त कर अपनी मृत्यु तक साथ में रखा; ऐतराज़ : आपत्ति; इस्लाह : सुझाव देना; लिहाज़ : आदर, मर्यादा का ध्यान रखना; दिलदार : उदार; शो'अरा : शायरों; नियाज़ : मृतकों की आत्मा की शांति के लिए दिया जाने वाला दरिद्र भोज, भंडारा; बदज़नी : कुकर्म; सरफ़राज़ ; प्रतिष्ठित जन; बाग़े-रिज़्वां : जन्नत या स्वर्ग का उद्यान, जिसकी रक्षा रिज़्वान नाम का रक्षक करता है; मोमिन : ईश्वर के प्रति आस्तिक; रियाज़: अभ्यास ।







मंगलवार, 27 सितंबर 2016

तेरा टूट जाना ....

मिज़ाजे  ज़माना  हमें  तोड़  देगा
तेरा  आज़माना  हमें  तोड़  देगा

निगाहें  मिलाना  ज़रूरी  नहीं  है
निगाहें  चुराना  हमें  तोड़  देगा

नज़र  में  बनाए  रखें  तय  जगह  पर
उठाना  गिराना  हमें  तोड़  देगा

ख़बर  है  हमें  तेरी  मस्रूफ़ियत  की
मगर  अब  बहाना  हमें  तोड़  देगा

सहारा  वो  बेशक़  न  दें  मुफ़लिसी  में
तमाशा  बनाना  हमें  तोड़  देगा

अगर  मश्क़  कम  है  तो  सीना  खुला  है
वफ़ा  पर  निशाना  हमें  तोड़  देगा

बग़ावत  के  ऐलान  से  ऐन  पहले
तेरा  टूट  जाना  हमें  तोड़  देगा  !

                                                                           (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मिज़ाजे ज़माना : समय/स्वभाव; मस्रूफ़ियत : व्यस्तता; मुफ़लिसी : कठिन समय, निर्धनता; मश्क़ : अभ्यास; वफ़ा : आस्था; बग़ावत : विद्रोह; ऐलान : घोषणा; ऐन : ठीक ।

सोमवार, 26 सितंबर 2016

बुरा मान बैठे ....

न  जाने  किसे  रहनुमा  मान  बैठे
फ़रेबे  ख़ुदा  को  ख़ुदा   मान  बैठे

मेरे  दर्द  को  वो  कभी  दर्द  समझे
कभी  दर्दे  दिल  की  दवा  मान  बैठे

तेरी  दिलनवाज़ी  से  मायूस  हो  कर
तेरे  दोस्त  हमसे  बुरा  मान  बैठे

मियां  जी  कहां  होश  रख  आए  अपना
अदा  को  सुबूते  वफ़ा  मान  बैठे

ग़ज़ब  हैं  तेरी  बज़्म  के  सब  सुख़नवर
कि  ख़ैरात  को  ही  जज़ा  मान  बैठे

उन्हें  भी  बहुत  फ़ैज़  हासिल  हुआ  जो
मेरे  मर्सिये  को  दुआ  मान  बैठे

वो  इंसाफ़  कैसे  किसी  का  करेगा
जो  मुजरिम  को  मुश्किलकुशा  मान  बैठे !

                                                                                 (2016)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : रहनुमा: पाठ प्रदर्शक; फ़रेबे  ख़ुदा : ईश्वर का भ्रम; दर्दे दिल : मन की पीड़ा; दिलनवाज़ी : घनिष्ठ मैत्री; मायूस : निराश; अदा : अभिनय; सुबूते वफ़ा : आस्था का प्रमाण; ग़ज़ब : अद् भुत; बज़्म : सभा, गोष्ठी; सुख़नवर : साहित्यकार; ख़ैरात : भिक्षा; जज़ा : कर्म फल, प्रारब्ध; फ़ैज़ : यश; मर्सिया : शोक गीत, श्रद्धांजलि; दुआ : प्रार्थना; इंसाफ़ : न्याय; मुजरिम: अपराधी; मुश्किलकुशा: संकट मोचक।

शनिवार, 24 सितंबर 2016

हम ख़ुद बताएं

न  तुम  कुछ  कहोगे  न  हम  कुछ  कहेंगे
यहां  सिर्फ़  अह् ले-सितम   कुछ  कहेंगे

जहां  तुमको  एहसासे-तनहाई  होगा
वहां  मेरे  नक़्शे-क़दम  कुछ  कहेंगे

ज़ुबां  को  जहां  पर  इजाज़त  न  होगी
वहां  पर  तेरे  चश्मे-नम  कुछ  कहेंगे

अभी  आपका  वक़्त  है  आप  कहिए
किसी  रोज़  बीमारे-ग़म  कुछ  कहेंगे

न  कहिए  हमें  आप  सच  बोलने  को
य.कीं  कुछ  कहेगा  वहम  कुछ  कहेंगे

मुनासिब  नहीं  है  कि  हम  ख़ुद  बताएं
हमारे  चलन  पर  सनम  कुछ  कहेंगे

हमें  क्यूं  न  उमराह  की  हो  इजाज़त
कभी  इस  पे  शाहे-हरम  कुछ  कहेंगे ?

                                                                    (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ ;





सोमवार, 19 सितंबर 2016

दिल पे बंदिश ...

दिल  पे  बंदिश  तो  कुछ  बह्र  की  है
कुछ  इनायत      तेरी       नज़्र  की  है

आज  साक़ी      सलाम      कर  बैठा
सारी    मस्ती     उसी     अस्र  की  है

कोई     इन्'.आम    क्या    हमें  देगा
फ़िक्र   अश्'आर   की   क़द्र  की  है

अर्श  ने     जो     हमें     पिलाया  था
रुख़  पे     रंगत    उसी  ज़ह्र  की  है

बर्क़   कब    घर   जला   सकी  मेरा
बात    सरकार   के    क़ह्र     की  है

गिर  गई    जो   ग़रीब  के    ग़म  से
छत     शहंशाह  के    क़स्र   की  है

शाह  की   रूह   स्याह  अब  भी  है
रौशनी     तो    चराग़े  क़ब्र     की है  !

                                                                   (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थः बंदिश : बंधन; बह्र : छंद,धड़कन; इनायत : कृपा; नज़्र : नज़र, दृष्टि; साक़ी : मदिरा पिलाने वाला; अस्र : प्रभाव; इन्'.आम : पुरस्कार; अश्'आर : शे'र का बहुवचन; अर्श: आकाश, देवता गण; रुख़ : मुख; ज़ह्र : ज़हर, विष; बर्क़: आकाशीय बिजली; क़ह्र : ;अत्याचार; ग़म: दुःख; क़स्र : महल;  रूह: आत्मा; स्याह: कृष्णवर्णी, काली; रौशनी: प्रकाश; चराग़े  क़ब्र ; समाधि पर रखा हुआ दीपक।



मंगलवार, 13 सितंबर 2016

अखर जाएगी ज़िंदगी ...

रेज़ा  रेज़ा  बिखर  जाएगी  ज़िंदगी
ग़म  न  हों  तो  ठहर  जाएगी  ज़िंदगी

चार  दिन  बेबसी  के  अगर  निभ  गए
पांचवें  दिन  संवर   जाएगी  ज़िंदगी

हिज्र  में  दोस्तों  की  दुआ  लीजिए
हर  भंवर  से  उबर  जाएगी  ज़िंदगी

भूख  से  तिफ़्ल  घर  में  तड़पते  मिलें
तो  सभी  को  अखर  जाएगी  ज़िंदगी

ख़ून  के  रंग  में  गर  बग़ावत  न  हो
दहशतों  में  गुज़र  जाएगी  ज़िंदगी

नाम  लेंगे  ख़ुदा  का  उसी  रोज़  हम
जब  ज़ेहन  से  उतर  जाएगी  ज़िंदगी

अब  जो  तूफ़ान  से  इश्क़  कर  ही  लिया
देख  लेंगे  जिधर  जाएगी  ज़िंदगी  !

                                                                            (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : रेज़ा रेज़ा : टुकड़े टुकड़े; बेबसी : विवशता; हिज्र : वियोग; दुआ : शुभाकांक्षा; तिफ़्ल : शिशु, छोटे बच्चे; गर : यदि; बग़ावत : विद्रोह; दहशतों : आतंक, भयों; ज़ेहन : मस्तिष्क ।



शनिवार, 10 सितंबर 2016

बदल दे रूह ...

कहीं  ज़्यादा  कहीं  कम  है
जहां    देखो    वहीं   ग़म  है

तुम्हारे     सौ     ठिकाने   हैं
हमारा     कौन   हमदम  है

मरीज़े  इश्क़     की  ख़ातिर
न  पुरसा  है    न  मरहम  है

जहां       उम्मीद      है  तेरी
वहां  की   राह    पुरख़म  है

बुला  लो    या    चले  आओ
तुम्हारा      ख़ैरमक़्दम      है

वतन   की   नौजवानी      में
कहीं      पैबस्त     मातम  है

बग़ावत  कर   कि  रोता  रह
निज़ामे     ज़ुल्म    क़ायम  है

बदल  दे    रूह   'जन्नत'  की
अगर    शद्दाद   में    दम  है  !

                                                                   (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ठिकाने : संपर्क; हमदम: साथी, सहयात्री; मरीज़े-इश्क़ : प्रेम का रोगी, ख़ातिर : हेतु; पुरसा : सांत्वना; पुरख़म : मोड़ों से भरा, घुमावदार;   ख़ैरमक़्दम: स्वागत; नौजवानी: युवा वर्ग; पैबस्त: टंकित, बंधा हुआ; मातम:निराशा, शोक, अवसाद; बग़ावत : विद्रोह; निज़ामे-ज़ुल्म : अत्याचार का शासन; क़ायम: वर्त्तमान, स्थापित; 'जन्नत': स्वर्ग, यहां कश्मीर; शद्दाद : एक अहंकारी शासक जो अपने को ईश्वर मानता था और जिसने एक कृत्रिम स्वर्ग बनाने का प्रयास किया ।



गुरुवार, 8 सितंबर 2016

'ख़ुदा' को गिला नहीं !

एहसासे  कमतरी  से  किसी  का  भला  नहीं
क्या  इश्क़  कीजिए  कि  अगर  दिल  खुला  नहीं

ख़्वाबो  ख़्याल  में  ही  सही  राब्ता  तो  है
हों  लाख  दूर  दूर  मगर  फ़ासला  नहीं

तेरी  निगाहे  बर्क़  गिरी  दिल  पे  जिस  जगह
हलचल  हुई  ज़रूर  मगर  ज़लज़ला  नहीं

ग़ालिब  से  पूछते  हैं  मीर  का  मेयार  क्या
यारों  के  पास  और  कोई  मश्ग़ला  नहीं

वो  कोह  था  पिघल  गया  तेरे  जलाल  से
अल्मास  थे  हम  जिस्म  हमारा  जला  नहीं

होते  हैं  क़त्ल  रोज़  फ़रिश्ते  बिला  गुनाह
जन्नत  सुलग  रही  है  'ख़ुदा'  को  गिला  नहीं

राहे  ख़ुदी  में  साथ  न  दे  पाएंगे  मियां
लंबा  सफ़र  है  और  कोई  मरहला नहीं

करके  दुआ  सलाम  निकल  आए  ख़ुल्द  से
'उस  शख़्स'  से  मिज़ाज  हमारा  मिला  नहीं  !

                                                                               (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसासे  कमतरी : हीन भावना; ख़्वाबो  ख़्याल; स्वप्न एवं चिंतन; राब्ता : संपर्क ; फ़ासला :अंतराल, दूरी; निगाहे बर्क़: बिजली जैसी दृष्टि; ज़लज़ला : भूकंप ; 'ग़ालिब', मीर : उर्दू के महानतम शायर ; मेयार: स्तर ; मश्ग़ला : व्यस्तता ; कोह : पर्वत ; जलाल ; तेज ; अल्मास : वज्र, हीरा ; जिस्म : शरीर ; फ़रिश्ते ; देवदूत ; बिला : बिना ; गुनाह : अपराध ; जन्नत : स्वर्ग ; 'ख़ुदा': मालिक, शासक; गिला : शिकायत ; राहे-ख़ुदी : आत्म-बोध का मार्ग ; मियां : श्रीमान,सज्जन ; मरहला: पड़ाव ; दुआ सलाम :औपचारिकता ; ख़ुल्द : स्वर्ग, जन्नत का पर्यायवाची ।

बुधवार, 31 अगस्त 2016

रहनुमा हैं वही ....

लोग  तन्हाइयों  में   फ़ना  हो  गए
जो  बचे  वो  तेरे  आशना  हो  गए

बेरुख़ी  का  न  इल्ज़ाम  दीजे  हमें
आप  ही  ख़ुद  मरीज़े-अना  हो  गए

रहबरी  के  लिए  मुंतख़ब  जो  हुए
रहज़नों  के  वही  सरग़ना  हो  गए

हालिया  दौर  के  रहनुमा  हैं  वही
बीच  दरबार  जो  बरहना  हो  गए

आलिमों  की  ज़ुबां  लड़खड़ाने  लगी
तंज़  के  लफ़्ज़  हम्दो-सना  हो  गए

मालिकों  की  अदा  मख़्मली  हो  गई
दस्ते-मज़दूर    जब    आहना  हो  गए

बुत  ख़ुदा  की  तरह  पेश  आने  लगे
अक्स  ही  वक़्त  का  आइना  हो  गए

आग  फ़िर्दौस  में  हम  लगा  आए  जब
आह  दर  आह  आतशज़ना  हो  गए !

                                                                          (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तन्हाइयों : एकांतों; फ़ना : नष्ट; आशना : प्रेमी, साथी; बेरुख़ी : उपेक्षा; इल्ज़ाम : दोष, आरोप; मरीज़े-अना : अहंकार के रोगी; रहबरी : नेतृत्व; मुंतख़ब : निर्वाचित; रहज़नों : डकैतों, लुटेरों; सरग़ना : मुखिया; हालिया : वर्त्तमान; दौर : कालखंड; रहनुमा : मार्गदर्शक; दरबार : राजसभा; बरहना : नग्न, निर्वस्त्र; आलिमों : विद्वानों; ज़ुबां : भाषा; तंज़ : व्यंग्य; लफ़्ज़ : शब्द; हम्दो-सना : विरुद और प्रार्थना; अदा : हाव-भाव; दस्ते-मज़्दूर : श्रमिकों के हाथ; आहना : इस्पाती; बुत : मूर्तियां; पेश : प्रस्तुत, व्यवहार करना; अक्स : प्रतिच्छाया, प्रतिबिंब;  फ़िर्दौस : स्वर्ग; आतशज़ना : चकमक, आग जलाने वाला पत्थर ।









शनिवार, 27 अगस्त 2016

दोज़ख़ के ऐश...

जो  लोग  सर  झुका  के  बग़ल  से  निकल  गए
उनके   उसूल     वक़्त   से   पहले    बदल  गए

हर  हाल  में     नसीब      नए  ज़ख़्म     ही  रहे
दिल  की  लगी  बुझी  तो   मेरे  हाथ   जल  गए

साक़ी !    तेरा  रसूख़    किसी  ने     चुरा  लिया
ले  देख    हम    चढ़ा  के    सुराही   संभल  गए

जिनको    तलाशे-ख़ुल्द  थी    सब   बेइमान  थे
दोज़ख़  के  ऐश   देख  के   अरमां   मचल  गए

इन्'आम -ओ- इकराम  की   हस्रत  कहां  नहीं
ज़र   देख  कर    ज़मीर     हज़ारों  फिसल  गए

देखे   हैं       ताजदार      हमारे        सुकून   ने
हम  वो  नहीं  जो  भीख  उठा  कर  निकल  गए

किस  काम  की    हुज़ूर    ये  आज़ादिए-सुख़न
गर  आप    दरिंदों  की    सदा  से    दहल  गए  !

                                                                                          (2016)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उसूल : सिद्धांत; नसीब : प्रारब्ध;  साक़ी : मदिरा परोसने वाला; रसूख़ : प्रतिष्ठा; सुराही : मदिरा-पात्र; ज़ख़्म: घाव; तलाशे-ख़ुल्द: स्वर्ग की खोज; दोज़ख़ : नर्क; ऐश: आनंद; अरमां : अभिलाषाएं; इन्'आम : पुरस्कार; इकराम: कृपाएं; हस्रत : इच्छा; ज़र: स्वर्ण, धन; ज़मीर : विवेक; ताजदार: सत्ताधारी ; सुकून : आत्म-संतोष, धैर्य; आज़ादिए-सुख़न : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; गर : यदि; दरिंदों : हिंसक पशुओं ; सदा : स्वर, पुकार।

हराम सदी तक ...

कांधे  पे  सर  रखा  है  अभी  तक  यही  बहुत
ज़िंदा  हैं  इस  हराम  सदी  तक  यही  बहुत

जी  चाहता  है  आग  लगा  दें  उमीद  को
पहुंचे  न  बात  आगज़नी  तक  यही  बहुत

सहरा   तलाशता  है   समंदर   यहां-वहां
मिल  जाए  कहीं  राह  नदी  तक  यही  बहुत

इज़्हारे  इश्क़  यूं  भी   मेरा  मुद्द'आ   नहीं
आए  हैं  आप  दिल  की  गली  तक  यही  बहुत

सर  है  हमारे  पास  तो  दिल  है  खुला  हुआ
फेंकें  न  कोई  तीर  ख़ुदी  तक  यही  बहुत

कर  ले  हज़ार  तंज़  मेरे  तंग  हाल  पर
उट्ठे  नज़र  न  मोतबरी  तक  यही  बहुत

का'बे  के  आसपास  बहुत  धुंद  ही  सही
इक  राह  है  फ़राग़दिली  तक  यही  बहुत !

                                                                               (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हराम: अपवित्र; सदी : शताब्दी; उमीद : आशा; आगज़नी : अग्निकांड; सहरा : मरुस्थल;समंदर:समुद्र;
इज़्हारे इश्क़: प्रेम निवेदन; मुद्द'आ: विषय; ख़ुदी : स्वाभिमान; तंज़ : व्यंग्य; तंग हाल: दयनीय स्थिति, मोतबरी : विश्वसनीयता; का'बा : इस्लाम का पवित्रतम धार्मिक स्थल; धुंद : ढूंढ; फ़राग़दिली : आत्मिक संतोष।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

क़ाज़ी करे फ़रेब ....

क़ाज़ी  करे  फ़रेब  तो  अल्लाह  क्या  करे
इक  मर्द  दूजे  मर्द  को  आगाह  क्या  करे

ताजिर  के  हाथ  में  हैं  हुकूमत  की  चाभियां
सरकार  हर  ग़रीब  की  परवाह  क्या  करे

जिस-तिस  के  दर  पे  जाके  न  सर  को  झुकाइए
हो  पीर  ख़ुद  मुरीद  तो  दरगाह  क्या  करे

ग़ालिब  के  तब्सिरे  का  भी  हक़  सामईं  को  है
जायज़  न  हो  कलाम  तो  मद्दाह  क्या  करे

लाज़िम  है  शायरी  में  बहकना  ख़याल  का
शायर  हो  ख़ुदपरस्त  तो  इस्लाह  क्या  करे

गर  चोट  जिस्म  पर  हो  तो  आसान  है  दवा
हो  रूह  ज़ख़्म  ज़ख़्म    तो  जर्राह  क्या  करे

मुमकिन  है  हो  तवील  शबे-तार  राह में
तारीक  हों  दिमाग़  तो  मिस्बाह  क्या  करे 1

                                                                                            (2016)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ाज़ी: धर्माधिकारी, धर्मग्रंथ के आधार पर न्याय करने वाला; फ़रेब : छल; आगाह : सचेत; ताजिर : व्यापारी; हुकूमत : शासन; पीर: पहुंचे हुए, ख्यात संत; मुरीद : अनुयायी; दरगाह : समाधि; तब्सिरा ; समीक्षा; हक़ : अधिकार; सामईं : श्रोता गण; जायज़: उचित; कलाम : रचना; मद्दाह ; प्रशंसक; लाज़िम: स्वाभाविक; ख़्याल: सोच, विचार, कल्पना; ख़ुदपरस्त : आत्म-मुग्ध; इस्लाह : सुझाव, परामर्श; गर: यदि; जिस्म : शरीर;
रूह; आत्मा; ज़ख़्म  ज़ख़्म ; घावों से भरी; जर्राह : शल्य-चिकित्सक; मुमकिन: संभव; तवील : लंबी; शबे-तार : अमावस्या ; तारीक : अंधकार ग्रस्त; मिस्बाह : दीपक ।










मंगलवार, 23 अगस्त 2016

पुरसाने-हाल रख...

दिल  में  मलाल  रख  न  ज़ेहन  में  सवाल  रख
अल्फ़ाज़  में  उमीद  कहन  में  कमाल  रख

तन्हा  न  सह  सकेगा  शबे-तार  की  घुटन
अपने  क़रीब  कोई  तो  पुरसाने-हाल  रख

फ़ानी  हैं  तख़्तो-ताजो-हुकूमत-ओ-सल्तनत
जब  तक  उरूज  पर  है  नज़र  में  जवाल  रख

आज़ादिए-सुख़न   से    परेशां  है    बादशा:
तुझको  ये  लाज़िमी  है  कि  सर  को  संभाल  रख

सरकार  चाहती  है    झुकाना    अवाम  को
हर  हाल  में  ज़मीरो-ख़ुदी  का  ख़्याल  रख

शाने-फ़क़ीर    शाहे-सिकंदर   से   कम  नहीं
कासा  उठा  लिया  है  तो  जाहो-जलाल  रख

इतना  न  सर  झुका  कि  नज़र  ही  न  उठ  सके
अल्लाह  भी  ग़लत  है   तो   हक़  से  सवाल  रख  !

                                                                                            (2016)
                                                                        
                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मलाल : खेद, अवसाद, ज़ेहन: मस्तिष्क, अल्फ़ाज़: शब्दावली; उम्मीद: आशा; कहन: कथन-शैली;
तन्हा: अकेले; शबे-तार: अमावस्या, अंधकार पूर्ण रात्रि, पुरसाने-हाल: सुख-दुःख पूछने वाला, शुभचिंतक; फ़ानी: नश्वर; तख़्तो-ताज: राजासन एवं मुकुट; हुकूमत: शासन, सल्तनत: साम्राज्य; मंज़ूर: स्वीकार; आज़ादिए-सुख़न: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; लाज़िमी: स्वाभाविक; अवाम: नागरिक-समुदाय; ज़मीर: विवेक; ख़ुदी: स्वाभिमान; शाने-फ़क़ीर: भिक्षुक की भव्यता; कासा: भिक्षा-पात्र; जाहो-जलाल: तेज-प्रताप; हक़ से: साधिकार ।
                                                                            

रविवार, 21 अगस्त 2016

... सख़ी की तलाश में

सदमात  लाज़िमी  हैं  ख़ुशी  की  तलाश  में
हमने  भी  ग़म  सहे  हैं  किसी  की  तलाश  में

वादे  भुला-भुला  के  तुम्हें  क्या  मिला  कहो
अख़बार  बंट  रहे  हैं  तुम्हारी  तलाश  में

रौशन  थी  जिनके  दम  से  कभी  महफ़िले-मिज़ाह
वो  भी  हैं  अश्कबार  हंसी  की  तलाश  में

इक  चांद  ही  नहीं  है  मुहब्बत  में  दर-ब-दर
गर्दिश  में  है  ज़मीं  भी  ख़ुदी  की  तलाश  में

मुमकिन  है  आज  कोई  मुरादों  की  भीख  दे
कासा  लिए  खड़े  हैं  सख़ी  की  तलाश  में

शिद्दत  ने  तिश्नगी  की  समंदर  बना  दिया
सहरा  झुलस   रहा  था  नमी  की  तलाश  में

ख़ुश  थे  हमें  वो  ख़ुल्द  से  बाहर  निकाल  कर
अब  तूर  पर  खड़े  हैं  हमारी  तलाश  में  !

                                                                                                 (2016)

                                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थः  सदमात: आघात (बहुव.); लाज़िमी: अपरिहार्य, स्वाभाविक; रौशन: प्रकाशमान; महफ़िले-मिज़ाह: हास्य-व्यंग्य की गोष्ठी; अश्कबार: आंसू भरे; दर-ब-दर: एक द्वार से दूसरे द्वार, गली-गली; मुमकिन: संभव; मुरादों: अभिलाषाओं; कासा: भिक्षा-पात्र; सख़ी: दानी, उदारमना; शिद्दत: तीव्रता; तिश्नगी: सुधा, प्यास; समंदर: सागर; सहरा: मरुस्थल; ख़ुल्द: स्वर्ग; तूर: एक मिथकीय पर्वत जहां ख़ुदा के प्रकट होने का मिथक है।  


शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

...मक़बरा रह जाएगा !

कुछ  कहा  कुछ  अनकहा  रह  जाएगा
ख़ून     सीने   में       जमा    रह  जाएगा

कल   न   होंगे   हम    नज़र   के  सामने
एक         एहसासे-वफ़ा       रह  जाएगा

भुखमरी        बेरोज़गारी          ख़ुदकुशी
क्या   यही   सब     देखना    रह   जाएगा

सल्तनत   है   आज    कल   ढह   जाएगी
ज़ख्म     लेकिन     टीसता    रह   जाएगा

आम   इंसां     लाम    पर    जब   आएगा
बुत     गिरेंगे      मक़बरा      रह   जाएगा

बंद          होगी       जब     बयाज़े-ज़िंदगी
कोई    सफ़हा     अधखुला     रह  जाएगा

चल  दिए  हम   आपका   दिल  छोड़  कर
सिर्फ़        ख़ाली     दायरा      रह  जाएगा  !

                                                                                (2016)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसासे-वफ़ा : आस्था की अनुभूति; सल्तनत : साम्राज्य; ज़ख्म : घाव; आम  इंसां : जन-साधारण; बुत: मूर्त्ति; मक़बरा : समाधि; बयाज़े-ज़िंदगी : जीवन की दैनंदिनी; सफ़हा : पृष्ठ; दायरा : घेरा ।

रविवार, 24 जुलाई 2016

संवर जाएगी शक्ल ...

सुख़न  में   मिरे   बेक़रारी  मिलेगी
कहन  में  मगर  रूहदारी  मिलेगी

यहां  कोई  मासूम  मिलता  कहां  है
जहां  देखिए     होशियारी    मिलेगी

मचल  कर  ठिठक  जाए  दिल  जिस  गली  में
वहीं   राह    तुमको    हमारी  मिलेगी  

पिए  जाएंगे  हम  बिना  होश  छोड़े
नज़र  में  जहां  तक  ख़ुमारी  मिलेगी

निभाए  न  वादे   वतन  से   जिन्होंने
उन्हें   मात   अबके  क़रारी  मिलेगी

न  गांधी  न  गौतम  न  नेहरू  न  ईसा
बताएं      कहां     बुर्दवारी   मिलेगी

संवर  जाएगी  शक्ल  हिन्दोस्तां  की
अगर  सोच  हमसे  तुम्हारी  मिलेगी  ! 

                                                                                         (2016)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुख़न : साहित्य, रचनाएं ; बेक़रारी : व्यग्रता ; कहन : कथन-शैली ; रूहदारी : आत्मीयता; मासूम : अबोध ; होशियारी : चतुराई, चालाकी ; ख़ुमारी : मदिरता ; क़रारी ; सुनिश्चित, तगड़ी ; बुर्दवारी : सहनशीलता ।




गुरुवार, 21 जुलाई 2016

इंक़िलाब की आहट

मिले  निगाह  बार-बार  तो  बुरा  क्या  है
बढ़े  शराब  में   ख़ुमार  तो  बुरा  क्या  है

दवाए-दिल  तो  ले  रहे  हैं  मुफ़्त  ही  हमसे
बनाएं  आप  ग़मगुसार  तो  बुरा  क्या  है

कभी  तो  दिल  का  एहतराम  भी  किया  कीजे
लगाइए  न  इश्तिहार  तो  बुरा  क्या  है

लुटा  रहे  हैं  दीद  की  नियाज़  वो  सबको
पड़ा  है  दर  पे  ख़ाकसार  तो  बुरा  क्या  है

कहा  करे  हैं  दो  जहां  हमें  ख़ुदा  अपना
किया  करें  वो   एतबार   तो  बुरा  क्या  है

दुआ ए पीर  साथ  हो  अगर  मनाज़िल  तक
दिखे  नसीब  में  दरार  बुरा  क्या  है

सज़ाए  मौत  दे  रहे  हैं  जो  फ़रिश्तों  को
रखें  वो  अज़्म  बरक़रार  तो  बुरा  क्या  है

सुनाई  दे  रही  है  इंक़िलाब  की  आहट
गिरे  जो  तख़्ते ताजदार  तो  बुरा  क्या  है !

                                                                                        (2016)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ुमार : मद, नशा ; ग़मगुसार : दुःख-सुख की चिंता करने वाला; दीद : दर्शन ; नियाज़ : भिक्षा, प्रसाद; ख़ाकसार : अकिंचन ; एतबार : विश्वास; दुआए पीर : गुरुजन की शुभेच्छा; मनाज़िल : लक्ष्यों ; सज़ाए मौत : मृत्यु दंड ; फ़रिश्तों : देवदूतों (यहां संदर्भ कश्मीरी युवा); अज़्म : सम्मान, स्वाभिमान, अस्मिता ; बरक़रार : शास्वत ;
इंक़िलाब: क्रांति, परिवर्त्तन ; तख़्ते ताजदार : शासक का आसन ।

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

निगाहे-मोहसिन ...

जो  आशिक़ों  की क़दर  न  होगी
क़ज़ा  से   पहले    मेहर  न  होगी

रहें  अगर  वो:  क़रीब  दिल  के
ख़ुशी  कभी  मुख़्तसर  न  होगी

बसे  हैं  दिल  में  तो  बे-ख़बर  हैं
उजड़  गए  तो    ख़बर  न  होगी 

अभी   हया   के   सुरूर  में   हैं
निगाहे-मोहसिन  इधर  न  होगी

बहिश्त  जा  कर  भी  देख  लीजे
बिना  हमारे    गुज़र      न  होगी

दिले-ख़ुदा  में  जगह  न  हो  तो
कोई  दुआ    कारगर   न   होगी

न  देंगे  गर  हम  अज़ान  दिल  से
यक़ीन  कीजे  सहर  न  होगी  !

                                                                     (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़दर: सम्मान ; क़ज़ा : मृत्यु; मेहर : ईश्वरीय कृपा; मुख़्तसर : संक्षिप्त ; हया : लज्जा; सुरूर: मद ; निगाहे-मोहसिन :अनुग्रह करने वाले की दृष्टि; बहिश्त: स्वर्ग; गुज़र: निर्वाह; दुआ: प्रार्थना; कारगर: प्रभावी;
सहर: उष:।




रविवार, 3 जुलाई 2016

पांव बेताब ....

रोकिए  कोई  इस  दिवाने  को
फिर  चला  आशियां  लुटाने  को

बात  यूं  कुछ  नहीं  बताने  को
दिल  मरा  जाए  है  सुनाने  को
ढूंढिए  और  दिल  मुहल्ले  में
क्या  हमीं  हैं  सितम  उठाने  को

ईद  को  चार  दिन  बक़ाया  हैं
चार  सदियां  क़रीब  आने  को

शायरों  को  ज़मीं  नहीं  मिलती
दश्त  तक  में  मकां  बनाने  को

रास्ते  सख़्त  मंज़िलें  मुश्किल
पांव  बेताब  दूर  जाने   को

सुब्ह  कहती  है  इक  अहद  कर  ले
आज  कुछ  कर  दिखा  ज़माने  को

हिज्र  का  दौर  कट  गया  यूं  तो
चाहिए  वक़्त  ग़म  भुलाने  को  !

                                                                        (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : दिवाने : उन्मत्त; आशियां : घर-बार ; हमीं : हम ही ; सितम : अत्याचार ; दश्त : वन ; मकां : आवास, समाधि ; मंज़िलें : लक्ष्य ; बेताब : व्यग्र ;   अहद : संकल्प ; हिज्र : वियोग ; दौर : काल, युग ।

बुधवार, 29 जून 2016

ख़ुदी से ख़लास...

चंद  अल्फ़ाज़  पास  बैठे  हैं
बस  यही  ग़मशनास  बैठे  हैं

आपने  आज  ग़ौर  फ़रमाया
हम  अज़ल  से  उदास  बैठे  हैं

रब्तो-दीदारो-वस्लो-याराना
फिर  ग़लत  सब  क़यास  बैठे  हैं

नफ़्स  ही  तो  जुदा  हुई  दिल  से
और  भी  ग़म  पचास  बैठे  हैं

तख़्ते-हिंदोस्तां  ख़ुदा  हाफ़िज़
दुश्मने-क़ौम  ख़ास  बैठे  हैं

यह  सियासत  नहीं  अजूबा  है
सब  ख़ुदी  से  ख़लास  बैठे  हैं

रूहे-शायर  को  क्या  मिली  जन्नत
शैख़  सब  बदहवास  बैठे  हैं  !

                                                                         (2016)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : चंद अल्फ़ाज़ : कुछ शब्द ; ग़मशनास : दुःख समझने वाले ; ग़ौर : ध्यान ; अज़ल : अनादिकाल ; रब्तो-दीदारो-वस्लो-याराना : संपर्क-दर्शन-मिलन और मित्रता ; क़यास : अनुमान ; नफ़्स : प्राण ; जुदा:विलग;
तख़्ते-हिंदोस्तां : भारत का राजासन ; दुश्मने-क़ौम : गण-शत्रु, अजूबा : विचित्र वस्तु ; ख़ुदी : स्वाभिमान ; ख़लास : रिक्त ; रूहे-शायर : शायर की आत्मा ; जन्नत : स्वर्ग ; शैख़ : धर्मांध व्यक्ति ।


बुधवार, 22 जून 2016

बग़ावतों की मजाल...

तुम्हारे  चेहरे  पे  जो  ख़ुशी  है  उसे  अज़ल  तक  संभाल  रखना
कि  रंजो-ग़म  में   मुसीबतों  में   हमारा  हक़  भी  बहाल  रखना

तुम्हारा   दावा   बहुत   बड़ा   है   जहाने-दिल  की   हुकूमतों  पर
रहो  हमेशा    उरूज   पर  तुम   मगर  ज़ेहन  में   जवाल  रखना

तुम्हारे  दिल  में    कहां  कमी  है    मुहब्बतों   की    इनायतों  की
जो  बांटो  सदक़ा-ए-फ़ित्र  सबको  हमारा  हिस्सा  निकाल  रखना

अभी   उन्हें   भी    कहां   है   फ़ुर्सत    तमाम   इशरत  बटोरने  से
मगर  वो  आएं  सलाम  को  जब  तो  सामने  सब  सवाल  रखना

निज़ामे-बेहिस    की    दुश्मनी   है   ग़रीब  ग़ुर्बा  की   बेहतरी   से
खुले  ज़ुबां  गर    मुख़ालिफ़त  में    बग़ावतों   की   मजाल  रखना

मिटा    रहे   हैं    वो:   नक़्श    सारी    इमारतों   के     इबारतों   के
चमन  की   रंगत   बदल  न   डाले   ज़रा  हवा  का   ख़याल  रखना

जिए  हो   अब  तक   फ़क़ीर  हो  कर    रहे  सलामत  ये  शाने-ईमां
चलो  जो  मुल्के-अदम  की  जानिब  ख़ुदी  की  क़ायम  मिसाल  रखना !

                                                                                                                     (2016)

                                                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अज़ल : अनादि-अनंतकाल ; रंजो-ग़म : अवसाद  एवं दुःख ; मुसीबतों : संकटों ; हक़ : अधिकार ; बहाल : निरंतर, शास्वत ; जहाने-दिल : मन का साम्राज्य ; हुकूमतों : शासनों ;  उरूज : उत्कर्ष, शीर्ष ; ज़ेहन : मस्तिष्क, ध्यान ; जवाल : पतन ; इनायतों : कृपाओं ; सदक़ा-ए-फ़ित्र : उपासना का पुण्य-दान ; इशरत : विलासिताएं ; निज़ामे-बेहिस : संवेदन हीन शासन ; ग़रीब  ग़ुर्बा : दीन-हीन, दरिद्र जन ; बेहतरी : उन्नति ; ज़ुबां : जिव्हा ; गर : यदि ; मुख़ालिफ़त : विरोध ;   बग़ावतों : विद्रोहों ; मजाल : सामर्थ्य ; नक़्श : चिह्न ; इमारतों : भवनों, यहां आशय संस्थानों ; इबारतों : आलेखों, यहां आशय संविधान एवं विधि ; चमन : उपवन ; रंगत : रूप-रंग ; फ़क़ीर : साधु, निर्मोही, अकिंचन ; सलामत : सुरक्षित ; शाने-ईमां ; मुल्के-अदम : परलोक ; जानिब : ओर ; ख़ुदी : स्वाभिमान ; क़ायम : स्थायी ; मिसाल : उदाहरण ।




शुक्रवार, 17 जून 2016

शुआ की ज़रूरत ...

बयाज़े-दिल  में  तेरा  नाम  दर्ज  है  जब  तक
किसी  शुआ  की  ज़रूरत  नहीं  हमें  तब  तक

बड़ा  अजीब    सफ़र  है     मेरे  तख़य्युल  का
शबे-विसाल  से  आए  हैं  हिज्र  की  शब  तक

तू  अपने  सीने  की  वुस.अत  दिखाए  जाता  है
मगर  ये  जिस्म  तेरे  साथ  रहेगा  कब  तक

तेरे  निज़ाम  में  तालीम  की  वो  हालत  है
कि  कोई  तिफ़्ल  पहुंच  ही  न  पाए  मकतब  तक

कहां   जनाब    तरक़्क़ी  की    बात   करते  थे
कहां  ये  आग  चली  आ  रही  है  मज़्हब  तक

हमीं  हैं  शाह  से  खुल  कर  क़िले  लड़ाते  हैं
पहुंच  गए  हैं  वहीं  सब  नक़ीब  मंसब  तक

फ़िज़ूल  आप  मेरे  दिल  पे  हो  गए  क़ाबिज़
अज़ां  सुनाई  न  दी  आपको  मेरी  अब  तक !

                                                                                                  (2016)

                                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : बयाज़े-दिल : हृदय की दैनंदिनी ; दर्ज : अंकित ; शुआ : किरण ; तख़य्युल : विचारों , कल्पनाओं ; शबे-विसाल : मिलन निशा ; हिज्र : वियोग ; शब : निशा ; वुस.अत : विस्तार, माप ; जिस्म : शरीर ; निज़ाम : शासन ; तालीम : शिक्षा ; तिफ़्ल : बच्चा ; मकतब : पाठशाला ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मज़्हब : धर्म ; क़िले : शतरंज के खेल में बनाए जाने वाले क़िले, युद्ध ; नक़ीब : चारण ; मंसब : नियमित वृत्तिका ; फ़िज़ूल : व्यर्थ ; क़ाबिज़ : अधिपति ।

गुरुवार, 16 जून 2016

समंदरों की सियासत ...

हमारे  दिल  की  हरारत  किसी  को  क्या  मालूम
ये:  मर्ज़  है  कि  मुहब्बत  किसी  को  क्या  मालूम

बड़े   सुकूं   से    वो:      शाने       मिलाए   बैठे   थे
कहां  हुई  है    शरारत    किसी  को    क्या  मालूम

सुबह   से     शाम   तलक     आज़माए    जाते   हैं
ये:  इम्तिहां  है  कि  चाहत  किसी  को  क्या  मालूम

किया   करो   हो     बहुत  तंज़     शक्लो-सूरत  पर
हमारे    तर्बो-तबीयत    किसी   को     क्या  मालूम

निज़ाम   को     है   फ़िक्र     बस     रसूख़दारों   की
कहां   करेंगे    इनायत    किसी   को   क्या  मालूम

हरेक   दरिय :   को    प्यारी   है    अपनी   आज़ादी
समंदरों  की    सियासत    किसी  को  क्या  मालूम

अभी-अभी    तो   कहन   में     निखार     आया  है
अभी   हमारी  मुहब्बत   किसी  को    क्या  मालूम

पढ़ी     नमाज़      न      सज्दागुज़ार     हैं     उनके
हमारा     रंगे-इबादत   किसी   को     क्या  मालूम !

                                                                                            (2016)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हरारत : ताप ; मर्ज़ : रोग ; सुकूं : आश्वस्ति ; शाने : कंधे ; तलक : तक ; इम्तिहां : परीक्षा ; चाहत : इच्छा ; करो हो : करते हो ; तंज़ : व्यंग्य ; शक्लो-सूरत : मुखाकृति ; तर्बो-तबीयत : संस्कार और स्वभाव ; निज़ाम : प्रशासन, सरकार ; रसूख़दारों : प्रभावशाली व्यक्तियों ; इनायत : कृपा ; दरिय: : नदी ; कहन :शैली;
सज्दागुज़ार :दंडवत प्रणाम करने वाले; रंगे-इबादत : पूजा का ढंग ।

मंगलवार, 14 जून 2016

... असर जाता नहीं !

अब्र  अक्सर  वक़्त  पर  छाता  नहीं
और  मौसम  भी  ख़बर  लाता  नहीं

ख़ुदकुशी  हर  बार  दहक़ां  क्यूं  करे
कोई  हाकिम  तो  ज़हर  खाता  नहीं

फ़िक्र  होती  शाह  को  गर  मुल्क  की
तो  सितम  यूं  रिज़्क़  पर  ढाता  नहीं

चाहता  है    सर   झुकाना   वो  मेरा
पर  कभी  मजबूर  कर  पाता  नहीं

मीर  का  दीवान    हमने   छू  दिया
उम्र  गुज़री  पर  असर  जाता  नहीं

जानता  है  मौसिक़ी  के  राज़  सब
वो  परिंदा    बे-बहर     गाता  नहीं

नफ़्स  में  तू  नब्ज़  में  तू  दिल  में  तू
अक्स  तेरा  क्यूं  नज़र  आता  नहीं  ?

                                                                               (2016)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अब्र :मेघ ; ख़ुदकुशी : आत्महत्या ; दहक़ां : कृषक ; हाकिम : अधिकारी ; सितम : अत्याचार ; रिज़्क़ : भोजन, खाद्य-सामग्री ; मजबूर : विवश ; मीर :हज़रत मीर तक़ी 'मीर' , उर्दू के महान शायर ; दीवान : काव्य-संग्रह ; असर : प्रभाव ; मौसिक़ी : संगीत ; राज़ : रहस्य ; परिंदा : पक्षी ;  बे-बहर : छंद के विरुद्ध ; नफ़्स : सांस ; नब्ज़ : नाड़ी ; अक्स : प्रतिबिम्ब ।

सोमवार, 13 जून 2016

शौक़े-ख़ैरात ...

दुश्मनों  की  तरह  बात  मत  कीजिए
तंग  अपने  ख़यालात  मत  कीजिए

इश्क़  है  कोई  जंगे-सियासत  नहीं
डर  लगे  तो  मुलाक़ात  मत  कीजिए

राह  रुस्वाइयों  तक  पहुंचने  लगे
इस  क़दर  सर्द  जज़्बात  मत  कीजिए

क़र्ज़  हम  पर  वफ़ा  का  बहुत  चढ़  चुका
बस  हुआ  अब  इनायात  मत  कीजिए

ज़ोम  है  इक़्तिदारे-वतन  का  जिन्हें
उन  ख़रों  से  सवालात  मत  कीजिए

कोई  मज्बूर  नज़रें  चुराने  लगे
इस  तरह  शौक़े-ख़ैरात  मत  कीजिए

लोग  नाहक़  पशेमान  हो  जाएंगे
बज़्म  में  ज़िक्रे-सदमात  मत  कीजिए

दिल  में  भी  ढूंढिए  हमको  मूसा  मियां
कोह  चढ़  कर  ख़ुराफ़ात  मत  कीजिए  !

                                                                                (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तंग : संकीर्ण ; ख़यालात : विचार ; जंगे-सियासत : राजनैतिक संघर्ष ; रुस्वाइयों : लज्जाओं ; सर्द : शीतल ; जज़्बात : भावनाएं ; क़र्ज़ : ऋण ; वफ़ा : निष्ठा ; इनायात : कृपाएं ; ज़ोम : अहंकार ; इक़्तिदारे-वतन : देश की सत्ता ; ख़रों : गधों ; सवालात : प्रश्न-उत्तर, तर्क-वितर्क ; मज्बूर : विवश व्यक्ति ; शौक़े-ख़ैरात : दान करने की प्रवृत्ति / प्रदर्शन / अहंकार ; नाहक़ : व्यर्थ, निरर्थक ; पशेमान : लज्जित ; बज़्म : सभा, समूह ; ज़िक्रे-सदमात : आघातों की चर्चा / उल्लेख ; मूसा  मियां : हज़रत मूसा अलैहि सलाम ; कोह : पर्वत ; ख़ुराफ़ात : उपद्रव ।

शनिवार, 11 जून 2016

दो ग़ज़ ज़मीन

सब्र  मत  तौलिए दिवानों  का
है  दफ़ीना  कई  ज़मानों  का

रोज़  पैग़ाम  रोज़  फ़रियादें
जी  नहीं  मानता  जवानों  का

मुल्क  के  साथ  भी  दग़ाबाज़ी
क्या  करें  आपके  बयानों  का

लूट  कहिए  डकैतियां  कहिए
मश्ग़ला  है  बड़े  घरानों  का

बेच  डालें  ज़हर  दवा  कह  कर
क्या  भरोसा  नई  दुकानों  का

सिर्फ़  दो  ग़ज़  ज़मीन  काफ़ी  है
कीजिए  क्या  बड़े  मकानों  का

मांग  ही  लें  दुआएं  अब  हम  भी
देख  लें  ज़र्फ़  आसमानों  का  !

                                                                   (2016)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : सब्र : धैर्य ; दफ़ीना : गुप्त कोष, भूमि में गड़ा कर रखा गया कोष ; ज़मानों :युगों ; पैग़ाम : संदेश ; फ़रियादें : मांगें ; दग़ाबाज़ी : छल-प्रपंच ; बयानों : वक्तव्यों ; मश्ग़ला : अभिरुचि , समय बिताने का साधन ; भरोसा : विश्वास ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; आसमानों : देवलोक ।


मंगलवार, 7 जून 2016

बयांबाज़ चाहिए ...

गुल  में  भी  हुस्ने-यार के  अंदाज़  चाहिए
ख़ामोश  रंगो-बू  को  भी  आवाज़  चाहिए

शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल  है  बहुत  मगर
मासूम  ख़यालात  को  परवाज़  चाहिए

देखे  हैं  हमने  ख़ूब  सितमगर  बयां  तिरे
अब  दिल  में  जो  निहा  हैं  वही  राज़  चाहिए

क़ुर्बान  न  हों  आप  अभी  शाह  के  लिए
मैदाने-इश्क़  में  भी  तो  जांबाज़  चाहिए

तकरीर  से  तस्वीर  बदलती  हो  तो  हमें
दोज़ख़  में  तेरी  तरहा  बयांबाज़  चाहिए

सफ़  में  हैं  तलबगार  यहां  से  वहां  तलक
मस्जिद  के  दायरे  में  करमसाज़  चाहिए

ये:  इक़्तिदारे-ज़ुल्म  कई  उम्र  जी  चुका
अब  दौरे-इंक़िलाब  का  आग़ाज़  चाहिए  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुल : पुष्प; हुस्ने-यार : प्रिय का सौन्दर्य; अंदाज़ : भंगिमा; रंगो-बू : रंग एवं गंध ; शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल : छोटे बच्चे की प्यास की तीव्रता, यहां संदर्भ कर्बला का, जहां छह माह के अली असग़र अ.स. के वध का ; मासूम : अबोध ; ख़यालात : कल्पनाओं ; परवाज़ : उड़ान ; सितमगर : अत्याचारी ; बयां : वक्तव्य ; निहा : छिपे हुए ; राज़ : रहस्य, अप्रकट उद्देश्य ; क़ुर्बान : बलि ; मैदाने-इश्क़ : प्रेम-युद्ध ; जांबाज़ : प्राण दांव पर लगाने वाला ; तकरीर : भाषण ; तस्वीर : परिदृश्य ; दोज़ख़ : नर्क ; तरहा : तरह, भांति ; बयांबाज़ : खोखली बातें करने वाला ; सफ़ : पंक्ति, नमाज़ के समय खड़े लोग ; तलबगार : याचक ; दायरे : सीमा ; करमसाज़ : कृपा करके दिखाने वाला ; इक़्तिदारे-ज़ुल्म : अत्याचार की सत्ता ; उम्र : आयु, जन्म ; दौरे-इंक़िलाब : क्रांति / परिवर्त्तन काल ; आग़ाज़ : आरंभ ।

सोमवार, 6 जून 2016

अच्छा नहीं लगा ...

दिल  को  सुजूदे-शौक़  का  चस्का  नहीं  लगा
दुनिया  को  ये:  ख़याल  भी  अच्छा  नहीं  लगा

क्या  रंज  कीजिए  कि  कोई  बेवफ़ा  हुआ
दचका  लगा  ज़रूर  प'  ज़्यादा  नहीं  लगा

कहता  रहा  क़रीब  का  रिश्ता  है  आपसे
लेकिन  हमें  वो:  शख़्स  शनासा  नहीं  लगा

उसके  सिपाहियों  ने  किया  क़त्ले-आम  जब
दिल  में  उसे  दरेग़  ज़रा-सा  नहीं  लगा

जम्हूर  की  दुआ  से  बादशाह  क्या  हुए
सौ  क़त्ल  भी  किए  तो  मुक़दमा  नहीं  लगा

है  एहतरामे-हुस्न  हमारे  मिजाज़  में
यूं  दिल  प'  कभी  दाग़े-तमन्ना  नहीं  लगा

कांधे  पे  लाद  लाए  हमें  अर्श  के  जवां
हम  ख़ुश  हैं  इस  सफ़र  में  किराया  नहीं  लगा !

                                                                                                (2016)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुजूदे-शौक़ : स्वेच्छा से/रुचि पूर्वक दंडवत करना ; चस्का : अभिवृत्ति ; रंज : खेद ; दचका : आघात ; शख़्स : व्यक्ति, शनासा: परिचित; क़त्ले-आम : व्यापक नरसंहार ; दरेग़ : दया ; जम्हूर : लोकतंत्र ; एहतरामे-हुस्न : सौंदर्य का सम्मान ; मिजाज़ : स्वभाव ; दाग़े-तमन्ना : उत्कट इच्छा का दोष ; अर्श के जवां : अर्श=आकाश, जवां : युवा, यहां आशय मृत्युदूत से ।

रविवार, 5 जून 2016

तरक़्क़ी के मा'नी

इस  तरह  तो  जहां  में  उजाला  न  हो
के:  शबे-तार  का  रंग  काला  न   हो

मैकदे  में  चला  आए  सैलाबे-नूर
मै  बहे  इस  क़दर  पीने  वाला  न  हो

शैख़  बतलाएं  कब  कब  ख़राबात  में
वो  गिरे  और  हमने  उठाया  न  हो

और  उम्मीद  क्या  कीजिए  आपसे
इश्क़  में  ही  अगर  बोल बाला  न  हो

उस  तरक़्क़ी  के  मा'नी  भला  क्या  हुए
हाथ  अत्फ़ाल  के  गर  निवाला  न  हो

कौन  उसको  कहेगा  तुम्हारी  ग़ज़ल
शे'र  दर  शे'र  जिसका  निराला  न  हो

कोई  शायर  नहीं  दो  जहां  में  जिसे
अर्श  वालों  ने  घर  से  निकाला  न  हो  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :शबे-तार: अमावस्या ; मदिरालय ; सैलाबे-नूर : प्रकाश का उत्प्लावन ; मै : मदिरा ; क़दर : सीमा तक;
शैख़ : धर्म भीरु , मदिरा विरोधी ; ख़राबात : मदिरालय ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मा'नी : अर्थ ; अत्फ़ाल : शिशुओं ; निवाला : कंवल, कौर ; अर्श वालों : आकाश वालों, ईश्वर ।

शुक्रवार, 3 जून 2016

थक गए राह में...

थाम  लें  हाथ  कमनसीबों  का
ज़र्फ़  बढ़  जाएगा  अदीबों  का

कोई  समझाए  शाहे-ग़ाफ़िल  को
रिज़्क़  तो  बख़्श  दे  ग़रीबों  का

दिल्लगी  ज़ख़्म  ही  न  दे  जाए
खेल  मत  खेलिए  क़ज़ीबों  का

ईद  पर  भी  गले  नहीं  मिलते
हाल  यह  है  मिरे  हबीबों  का

ज़ार  को  देवता  बताते  हैं
शोर  सुनिए  ज़रा  नक़ीबों  का

ज़िक्र  किरदार  का  जहां  आया
मुंह  बिगड़  जाएगा  नजीबों  का

खैंच  लेंगे  ज़ुबान  कब  मेरी
क्या  भरोसा  मिरे  रक़ीबों  का

थक  गए  राह  में  मियां  मंसूर
बार  उठता  नहीं  सलीबों  का  !

                                                                (2016)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कमनसीबों : अल्प-भाग्य ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; अदीबों : साहित्यकारों ; शाहे-ग़ाफ़िल : मतिभ्रम-ग्रस्त शासक ; रिज़्क़ : भोजन ; बख़्श ( ना ) : छोड़ (ना);  हबीबों : प्रिय जनों ; दिल्लगी : हास-परिहास ; ज़ख़्म : घाव; क़ज़ीबों : तलवारों ; ज़ार : निरंकुश, अत्याचारी शासक ; नक़ीबों : चारणों ; ज़िक्र : संदर्भ , उल्लेख ; किरदार : चरित्र ;  ज़ुबान : जिव्हा ; भरोसा : विश्वास ; रक़ीबों : शत्रुओं; मंसूर : इस्लाम के अद्वैतवादी दार्शनिक, जिन्हें उनके विचारों  कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था ; बार : बोझ।
 

गुरुवार, 2 जून 2016

दर्दे-दिल की वजह

हैं  परेशान  जो  ज़माने   से
रब्त  कर  लें  किसी  दिवाने  से

दर्दे-दिल  की  वजह  रहे  हैं  जो
क्या  मिलेगा  उन्हें  सुनाने  से

दोस्तों  पर  अगर  भरोसा  है
क्यूं  जिरह  कीजिए  बहाने  से

हिज्र  के  वक़्त  हौसला  देंगे
ख़्वाब  रख  दें  कहीं  ठिकाने  से

ख़ुम्र  का  रंग  उड़  गया  सारा
शैख़  को  बज़्म  में  बुलाने  से

सामना  कीजिए  दिलेरी  से
ज़ुल्म  बढ़ता  है  सर  झुकाने  से

सब्र  रक्खें  जनाबे-इज़राइल
चल  दिए  हम  ग़रीबख़ाने  से  !

                                                             (2016)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : रब्त : संपर्क, मेलजोल ; दर्दे-दिल : मन की पीड़ा ; वजह : कारण ; जिरह : तर्क-वितर्क ; हिज्र: वियोग ; हौसला : साहस ; ख़ुम्र : मदिरा ; शैख़ : उपदेशक ; बज़्म : सभा, समूह, आयोजन ; दिलेरी : साहसिकता ; ज़ुल्म : अत्याचार ; सब्र : धैर्य ; जनाब : श्रीमान ; इज़राइल : मृत्यु दूत ; इस्लामी दर्शन में यम के समकक्ष ; ग़रीबख़ाने : अकिंचन के / अपने घर ।


बुधवार, 1 जून 2016

उम्मीद की सहर

सब  जिसे  मौत  की  ख़बर  समझे
वो:  उसे  ख़ुम्र  का  असर  समझे

ज़ीस्त  उसको  बहुत  सताती  है
जो  न  क़िस्स:-ए-मुख़्तसर  समझे

लोग  जो  चाहते  समझ  लेते
आप  क्यूं   हमको  दर ब दर  समझे

वो:  शरारा  जला  गया  जी  को
हम  जिसे  इश्क़  की  नज़र  समझे

शैख़-सा  बदनसीब  कोई  नहीं
जो  भरे  जाम  को  ज़हर  समझे

शाह  का  हर्फ़  हर्फ़  झूठा  था
लोग  उम्मीद  की  सहर  समझे

राज़  समझे  वही  ख़ुदाई  का
जो  खुले  चश्म  देख  कर  समझे

आख़िरश  वो:  सराब  ही  निकला
लोग  नादां  जिसे  बहर  समझे

दिल  उन्हें  भी  दुआएं  ही  देगा
जो  मेरा  ग़म  न  उम्र  भर  समझे  !

                                                                     (2016)                                                                 

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : ख़ुम्र : मदिरा ; ज़ीस्त : जीवन ; क़िस्स:-ए-मुख़्तसर : छोटी-सी कहानी, सार-संक्षेप ; दर ब दर : गृह-विहीन ; शरारा : अग्नि-पुंज, लपट ; जी : मन ; शैख़ : धर्म-भीरु ; जाम : मदिरा-पात्र ; हर्फ़ : अक्षर ; सहर : प्रातः, उष:काल ; राज़ : रहस्य ; ख़ुदाई : संसार, सृष्टि ; खुले चश्म : खुले नयन, बुद्धिमानी से ; आख़िरश :अंततः ; सराब : मृग जल, धूप में दिखाई देने वाला पानी का भ्रम ; नादां : अबोध, अ-ज्ञानी ; दुआएं : शुभकामनाएं ।


सोमवार, 30 मई 2016

रस्मे-राहत ...

जश्ने-वहशत  मना  रहे  हैं  वो:
ख़ूब  ताक़त  दिखा  रहे  हैं  वो:

बांट  कर  अस्लहे  मुरीदों  को
और  दहशत  बढ़ा  रहे  हैं  वो:

क़त्ल  करना  सवाब  है  जिनको
क्यूं  मुहब्बत  जता  रहे  हैं  वो:

ताजिरों  को  नियाज़  के  बदले
रोज़  दौलत  लुटा  रहे  हैं  वो:

चंद  दाने  उछाल  कर  हम  पर
रस्मे-राहत  निभा  रहे  हैं  वो:

नस्लो-मज़्हब  में  बांट  कर  दुनिया
क़स्रे-नफ़्रत  बना  रहे  हैं  वो :

कोई  वादा  निभा  नहीं  पाए
तो  सियासत  सिखा  रहे  हैं  वो !

                                                                       (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जश्ने-वहशत : उन्माद-पर्व ; अस्लहे : अस्त्र-शस्त्र ; मुरीदों : भक्त जन ; दहशत : भय, आतंक ; सवाब : पुण्य-कर्म ; ताजिरों : व्यापारियों ; नियाज़ : भिक्षा ; रस्मे-राहत : सहायता की प्रथा / औपचारिकता ;
नस्लो-मज़्हब : प्रजाति और धर्म ; क़स्रे-नफ़्रत : घृणा का महल ।


शनिवार, 28 मई 2016

...खुले दिल से

लोग  क्या  ख़ूब  ग़मगुसार  रहे
मर्ग़  तक  जान  पर  सवार  रहे

थी  कमी  इस  क़दर  दुआओं  की
हर  जगह  हम  ही  शर्मसार  रहे

फंस  गए  हैं  अजीब  मुश्किल  में
ग़म  रहे  या  कि  रोज़गार  रहे 

निभ  गई  चार  दिन  ख़िज़ां  से  भी
चार  दिन  मौसमे-बहार  रहे

तंज़  यूं  हो  कि  चीर  दे  दिल  को
लफ़्ज  दर  लफ़्ज  धारदार  रहे

कह  गए  बात  जो  खुले  दिल  से
वो  सभी  ज़ुल्म  के  शिकार  रहे

मुल्क  बर्बाद  हो  तो  हो  जाए
शाह  का  शौक़  बरक़रार  रहे

क़ब्र  से  भी  चुकाएंगे   क़िश्तें
हम  अगर  और  क़र्ज़दार  रहे

थे  ज़मीं  पर  भी  आपके  मेहमां
ख़ुल्द  में  भी  किराय:दार  रहे  !

आएं  या  भेज  दें  फ़रिश्तों  को
क्यूं  उन्हें  और  इंतज़ार  रहे  !

                                                                  (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़मगुसार : संवेदनशील, दुःख समझने वाले ; मर्ग़ : मृत्यु ; शर्मसार : लज्जित ; रोज़गार : आजीविका ; ख़िज़ां : पतझड़ ; मौसमे-बहार : बसंत ऋतु ; तंज़ : व्यंग्य ; लफ़्ज़ दर लफ़्ज़ : शब्द प्रति शब्द ; ज़ुल्म : अत्याचार ; शौक़ : विलास ; बरक़रार : स्थायी, शास्वत ; क़ब्र : समाधि ; क़र्ज़दार : ऋणी ; ज़मीं : पृथ्वी ; मेहमां : अतिथि ; ख़ुल्द : स्वर्ग, परलोक ; फ़रिश्तों : मृत्यु-दूतों ।





शुक्रवार, 27 मई 2016

नफ़्रतों की हवा ...

इज़्हार  से  हमें  तो  अना  रोक  रही  है
अब  आप  कहें  किसकी  वफ़ा  रोक  रही  है

कल  तक  वो  बेक़रार  रहे  वस्ल  के  लिए
हैरत  है  उन्हें  आज  हया  रोक  रही  है

बंदिश  नहीं  है  कोई  ग़ज़लगोई  पर  यहां
बस  हमको  मुंतज़िम  की  अदा  रोक  रही  है

मक़्तूल  के  अज़ीज़  परेशां  हैं  दर ब दर
सरकार  क़ातिलों  की  सज़ा  रोक  रही  है

आने  में  ऐतराज़  नहीं  है  बहार  को
ऐ  शाह !  नफ़्रतों  की  हवा  रोक  रही  है

आसां  नहीं  है  सैले-तीरगी  को  थामना
क्या  ख़ूब  कि  नन्ही-सी  शम्'.अ  रोक  रही  है

तैयार  नहीं  अर्श  हमारे  लिए  अभी
हमको  भी  दोस्तों  की  दुआ  रोक  रही  है  !

                                                                                           (2016)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : इज़्हार :(प्रेम की) स्वीकारोक्ति ; अना : आत्मसम्मान ; वफ़ा : निष्ठा ; बेक़रार : व्यग्र ; वस्ल :मिलन ;
हैरत : आश्चर्य ; हया : लज्जा ; बंदिश : बंधन, प्रतिबंध ; ग़ज़लगोई : ग़ज़ल कहना ; मुंतज़िम : व्यवस्थापक ; अदा : भंगिमा ; मक़्तूल : वधित व्यक्ति ; अज़ीज़ : प्रिय जन ; दर ब दर : द्वार-द्वार ; क़ातिलों : हत्यारों ; ऐतराज़ : आपत्ति ; बहार : बसंत ; नफ़्रतों : घृणाओं ; आसां : सरल ; सैले-तीरगी : अंधकार का प्रवाह ; शम्'.अ : दीपिका ;
अर्श : आकाश, परलोक ।