जब भी तूफ़ां क़रीब आते हैं
नाख़ुदा साथ छोड़ जाते हैं
देख के लोग साथ-साथ हमें
संखिया खा के बैठ जाते हैं
ज़िल्लते-हिंद हैं सियासतदां
क़ौम की बोटियां चबाते हैं
गर सियासत हमें पसंद नहीं
मुद्द'आ क्यूं इसे बनाते हैं
वो: अगर शाम तक न आ पाएं
रात भर ख़्वाब छटपटाते हैं
आ रहें वो: ज़रा मदीने से
फिर कोई सिलसिला जमाते हैं
आपके नाम रहा शौक़े-सुख़न
हमको अल्लः मियां बुलाते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: नाख़ुदा: नाविक; संखिया: एक घातक विष; ज़िल्लते-हिंद: भारत के कलंक; क़ौम: राष्ट्र; मुद्द'आ: विवाद का विषय;
सिलसिला: मिल बैठने की युक्ति; शौक़े-सुख़न: रचना-कर्म।
ज़िल्लते-हिंद हैं सियासतदां
जवाब देंहटाएंक़ौम की बोटियां चबाते हैं
bahut pyara sher, aur
वो: अगर शाम तक न आ पाएं
रात भर ख़्वाब छटपटाते हैं ......(Bahut maasoom sher) :) abhar!