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रविवार, 31 अगस्त 2014

बताएं क्या तुम्हें ?

इश्क़  के  मानी  बताएं  क्या  तुम्हें
राह  अनजानी  बताएं  क्या  तुम्हें

एक  ग़म  हो  तो  तुम्हें  तकलीफ़  दें
हर  परेशानी  बताएं  क्या  तुम्हें

कामयाबी  के  लिए  कितना  गिरे
ये  पशेमानी  बताएं  क्या  तुम्हें

शाह  हमसे  मांगता  है  किसलिए
रोज़  क़ुर्बानी  बताएं  क्या  तुम्हें

मग़फ़िरत  के  रास्ते  पर  क्या  मिला
दुनिय:-ए-फ़ानी ! बताएं  क्या  तुम्हें

तूर  पर  हमसे  ख़ुदा  ने  क्या  कहा
राज़  रूहानी  बताएं  क्या  तुम्हें  ?

हम  पहाड़ों  की  चट्टानों  पर  पले
कस्रे-सुल्तानी ! बताएं  क्या  तुम्हें  !

                                                                   (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

संदर्भ: मक़्ता (अंतिम शे'र) उर्दू के अज़ीम शायर जनाब अल्लामा इक़बाल के एहतराम (सम्मान) में 
शब्दार्थ: मानी: अर्थ; कामयाबी: सफलता; पशेमानी: लज्जा का बोध; क़ुर्बानी: बलिदान; मग़फ़िरत: मोक्ष; दुनिय:-ए-फ़ानी: मर्त्य-लोक; तूर: मिस्र के साम क्षेत्र में एक पर्वत, मिथक के अनुसार हज़रत मूसा अ. स. इसकी चोटी पर चढ़ कर ख़ुदा से बात करते थे; राज़  रूहानी: आध्यात्मिक रहस्य; कस्रे-सुल्तानी: राजमहल। 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

बहाना ख़राब है !

दुनिया  ख़राब  है  न  ज़माना  ख़राब  है
दिल  ही  मिरे  हुज़ूर  का  ख़ानाख़राब   है

कहिए  कि  आप  इश्क़  के  हक़दार  ही  नहीं
मस्रूफ़ियत  का  रोज़  बहाना  ख़राब  है

ये  हुस्ने-बेमिसाल  मुबारक  तुम्हें  मगर
दिल  पर  किसी  के  तीर  चलाना  ख़राब  है

ग़म  ये  नहीं  कि  आपके  दिल  में  जगह  नहीं
लेकिन  हमें  ख़राब  बताना  ख़राब  है

दिल  है,  इसे  सराय  समझिए  न  ऐ  हुज़ूर
हर  एक  को  मेहमान  बनाना  ख़राब  है

बेशक़,  नए  निज़ाम  की  नीयत  ख़राब  है
लेकिन  फ़जूल  जान  जलाना  ख़राब  है 

हिम्मत  है  तो  ज़मीर  से  नज़्रें  मिलाइए
करके  गुनाह  जश्न  मनाना  ख़राब  है  !

                                                                            (2014)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ानाख़राब: इधर-उधर भटकने वाला; हक़दार: अधिकारी; मस्रूफ़ियत: व्यस्तता; हुस्ने-बेमिसाल: विलक्षण सौंदर्य; 
सराय: यात्रियों के रुकने की जगह, धर्मशाला; निज़ाम: सरकार,प्रशासन; फ़जूल: व्यर्थ: ज़मीर: विवेक; नज़्रें: दृष्टि; जश्न: उत्सव।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

पारसा बना डाला !

ख़ाक  ले  कर  ख़ुदा  बना  डाला
ज़ौक़े-इंसां ! ये  क्या  बना  डाला ?!

दुश्मनों  ने  सलाम  को  अपने
दिलकशी  की  अदा  बना  डाला

लाख  हरजाई  वो  रहा  हो  यूं
वक़्त  ने  पारसा  बना  डाला

इश्क़  पर  शे'र  जो  कहा  हमने
आशिक़ों  ने  दुआ  बना  डाला

शैख़  पीने  चले  मुरव्वत  में
मयकशों  को  बुरा  बना  डाला

ख़ूब  माशूक़  था  कन्हैया  वो
ज़ह् र  को  भी  दवा  बना  डाला

शाह  कमज़र्फ़  नहीं  तो  क्या  है
मुफ़लिसों  को  गदा  बना  डाला !

उम्र  भर  नाम  गुम  रहा  अपना
मौत  ने  मुद्द'आ  बना  डाला  !

                                                            (2014)

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ाक: मिट्टी, धूल; ख़ुदा: भगवान की मूर्त्ति; ज़ौक़े-इंसां: मानवीय सुरुचि; दिलकशी: चित्ताकर्षण; अदा: मुद्रा; 
हरजाई: हर किसी से प्रेम करते रहने वाला, दुश्चरित्र; पारसा: सदाचारी, संयमी;  दुआ: प्रार्थना; शैख़: ईश्वर-भीरु; 
मुरव्वत: संकोच, भलमनसाहत; मयकशों: मद्यपों; माशूक़: प्रिय; कमज़र्फ़: ओछा व्यक्ति; मुफ़लिसों: निर्धनों;  
गदा: भिक्षुक; मुद्द'आ: चर्चा का विषय। 

बुधवार, 27 अगस्त 2014

ख़्वाब की ताबीर

क्यूं  न  हम  आपको  तहरीर  बना  कर  रख  लें
ख़्वाब  में  आएं  कि  तस्वीर  बना  कर  रख  लें

आप  महफ़ूज़  हैं  नज़्रों  में  हमारी  यूं  तो
या  कहें,  ख़्वाब  की  ताबीर  बना  कर  रख  लें

क़ैद  में  क्यूं  रहें  अश्'आर  दिवाने  दिल  की
क्या  ख़यालात  की  ज़ंजीर   बना  कर  रख  लें ?

घर  की  हालत  ही  नहीं  आपको  बुलाने  की
दिल  तो  करता  है  कि  दिलगीर  बना  कर  रख  लें

सख़्तजानीहा-ए-तन्हाई  नहीं  कम  होती
लाख  बोतल  को  बग़लगीर  बना  कर  रख  लें

और  भी  लोग  शहर  में  हैं  अना  के  आशिक़
आप  भी  सामां-ए-तौक़ीर  बना  कर  रख  लें  !

लोग  पढ़ते  हैं  तिरा  नाम  वज़ीफ़ों  की  तरह
हम  भी  इक  नुस्ख:-ए-तस्ख़ीर  बना  कर  रख  लें ?!

                                                                                     (2014)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तहरीर: लेख, लिखावट; महफ़ूज़: सुरक्षित; अश्'आर: शे'र का बहुवचन; ख़यालात: विचारों; दिलगीर:मन को पकड़ कर रखने वाला; सख़्तजानीहा-ए-तन्हाई : अकेलेपन के प्राण निकलने की कठिनाइयां, अर्थात, एकांत के समाप्त होने की कठिनाइयां; बग़लगीर: सदा पार्श्व में रहने वाला; अना  के  आशिक़: अहंकार-प्रेमी; सामां-ए-तौक़ीर: प्रतिष्ठा की वस्तु; वज़ीफ़ों: चमत्कारी मंत्रों; नुस्ख:-ए-तस्ख़ीर: वशीकरण का उपाय। 

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

...ख़ैरात चुरा लेते हैं !

मिरे ज़ेह् न  से  ख़्यालात  चुरा  लेते  हैं
दोस्त  हैं, क्या  कहें, जज़्बात  चुरा  लेते  हैं

हद  तो  ये  है, कहीं  इल्ज़ाम  नहीं  है  उन  पर
लोग  अक्सर  तसव्वुरात  चुरा  लेते  हैं

उनसे  उम्मीद  न  रखिए  जवाबदेही  की
दिल  में  उठते  ही  सवालात  चुरा  लेते  हैं

शो'अरा-ए-वक़्त  की  परवाज़  बहुत  ऊंची  है
मीर-ओ-ग़ालिब  के  भी  क़त्'आत  चुरा  लेते  हैं

ख़ूब  अल्लाह  ने  यारों  को  हुनर  बख़्शा  है
दिल  में  आए  बग़ैर  बात  चुरा  लेते  हैं

ये  जो  हाकिम  हैं,  इन्हें  काश!  ख़ुदा  का  डर  हो
हरम-ओ-दैर  से  ख़ैरात  चुरा  लेते  हैं

आप  हर  वक़्त  उदासी  में  घिरे  रहते  हैं
आज  हम  आपके  सदमात  चुरा  लेते  हैं  !

                                                                              (2014)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेह् न: मस्तिष्क; ख़्यालात: विचार(बहु.); जज़्बात: भावनाएं; इल्ज़ाम: आरोप; तसव्वुरात: कल्पनाएं; जवाबदेही: उत्तरदायित्व;  सवालात: प्रश्न(बहु.); शो'अरा-ए-वक़्त: इस समय के शायर(बहु.); परवाज़: उड़ान; हज़रत मीर तक़ी मीर और हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; क़त्'आत: चतुष्पदियां; हुनर: कौशल; हाकिम: शासक, अधिकारीगण; हरम-ओ-दैर: मस्जिद और मंदिर; 
ख़ैरात: दान-पुण्य की राशि; सदमात: मन पर पड़े आघात। 

 

सोमवार, 25 अगस्त 2014

ख़ज़ाना चुरा लिया...?

लीजिए,  सर  झुका  लिया  हमने
हसरतों  को   मिटा  लिया  हमने

चांद  कासा  लिए  भटकता   था
नूर  दे  कर  जिला  लिया  हमने

ख़्वाब  दर  ख़्वाब  का  सफ़र  करके
आपका  अक्स  पा  लिया  हमने 

शोर   सुनते  हुए  तरक़्क़ी  का
जोश  में  घर  जला  लिया  हमने

शाह  किस  बात  से  परेशां  है
क्या  ख़ज़ाना  चुरा  लिया  हमने ?

आप  नासेह,    देर    से    आए
जाम  से  मुंह  लगा  लिया  हमने

मल्कुले-मौत  ख़ाक  से  ख़ुश  है
और  ईमां  बचा  लिया  हमने  !

                                                                     (2014)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हसरतों: इच्छाओं; कासा: भिक्षा-पात्र; नूर: प्रकाश; अक्स: प्रतिबिंब, रूप; तरक़्क़ी: विकास, प्रगति; नासेह: सीख देने वाला; 
जाम: मदिरा-पात्र;  मल्कुले-मौत: मृत्यु-दूत; ख़ाक: धूल, मिट्टी, मृत शरीर; ईमां: आस्था।




रविवार, 24 अगस्त 2014

हमारा वज़ीफ़ा...

उठाना-गिराना  रईसों  की  बातें 
ख़ुलूसो-मुहब्बत  ग़रीबों  की  बातें

सियासत  तुम्हारी  महज़  क़त्लो-ग़ारत
अदब-मौसिक़ी-फ़न  शरीफ़ों  की  बातें

तुम्हारे  ज़ेह् न   तक  नहीं  आ  सकेंगी
ये   बारीक़  बातें,   अदीबों  की  बातें

न  दीजे  हमें  आप  जागीर-ओ-मनसब
हमारा   वज़ीफ़ा     हसीनों   की  बातें

बह्र   मुख़्तसर-सी   कहां  तक  संभाले
ग़मे-आशिक़ी  के  महीनों  की  बातें

करें  शुक्रिया  किस  तरह  आपका  हम
सुनी  ग़ौर  से  कमनसीबों  की  बातें

हमें  भी  कहां  रास  आईं  किसी  दिन
किताबे-ख़ुदा  की,  नसीबों  की  बातें  !

                                                                   (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुलूसो-मुहब्बत: आत्मीयता और प्रेम; सियासत: राजनीति; महज़: मात्र;  क़त्लो-ग़ारत: हत्या और मार-काट; अदब-मौसिक़ी-फ़न: साहित्य, संगीत और कला; ज़ेह् न : मानसिकता, मस्तिष्क; बारीक़: सूक्ष्म;अदीबों: साहित्यकारों;   
जागीर-ओ-मनसब: राज्य से मिली कर-मुक्त भूमि और उच्चाधिकार वाला पद;   वज़ीफ़ा: निर्वाह-वृत्ति; बह्र: छंद;  मुख़्तसर: संक्षिप्त; ग़मे-आशिक़ी: प्रेम के दु:ख; कमनसीबों: भाग्यहीनों; किताबे-ख़ुदा: ईश्वरीय पुस्तक, पवित्र क़ुर'आन; भाग्य, भाग्यवाद।

शनिवार, 23 अगस्त 2014

... बुरी बात है !

दोस्तों  को  सताना  बुरी  बात  है
ख़्वाब  में  रूठ  जाना  बुरी  बात  है !

भूलना  एक  वादा  अलग  बात  है
आए  दिन  ये  बहाना  बुरी  बात  है

हम  शरारत  से  तुमको  नहीं  रोकते
हां,  मगर  दिल  जलाना  बुरी  बात  है

दोस्तों  से  कहो,  कुछ  मुदावा  करें
दर्द  दिल  में  बसाना  बुरी  बात  है

पुख़्तगी-ए-अहद  चाहिए  इश्क़  को
राह  में  लड़खड़ाना  बुरी  बात  है

शाह  का  फ़र्ज़  है  मुल्क  की  बेहतरी
नफ़रतों  को  बढ़ाना  बुरी  बात  है

हक़परस्तों, उठो  !  सरकशी  के  लिए
ज़ुल्म  पर  सर  झुकाना  बुरी  बात  है !

                                                               (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुदावा: उपचार; पुख़्तगी-ए-अहद: संकल्प की दृढ़ता; हक़परस्तों:न्याय-समर्थकों; सरकशी: विद्रोह।

... बुरी बात है !

दोस्तों  को  सताना  बुरी  बात  है
ख़्वाब  में  रूठ  जाना  बुरी  बात  है !

भूलना  एक  वादा  अलग  बात  है
आए  दिन  ये  बहाना  बुरी  बात  है

हम  शरारत  से  तुमको  नहीं  रोकते
हां,  मगर  दिल  जलाना  बुरी  बात  है

दोस्तों  से  कहो,  कुछ  मुदावा  करें
दर्द  दिल  में  बसाना  बुरी  बात  है

पुख़्तगी-ए-अहद  चाहिए  इश्क़  को
राह  में  लड़खड़ाना  बुरी  बात  है

शाह  का  फ़र्ज़  है  मुल्क  की  बेहतरी
नफ़रतों  को  बढ़ाना  बुरी  बात  है

हक़परस्तों, उठो  !  सरकशी  के  लिए
ज़ुल्म  पर  सर  झुकाना  बुरी  बात  है !

                                                               (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुदावा: उपचार; पुख़्तगी-ए-अहद: संकल्प की दृढ़ता; हक़परस्तों:न्याय-समर्थकों; सरकशी: विद्रोह।

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

...तो ख़ुदा भी करेंगे !

सितम  भी  करेंगे,  हया  भी  करेंगे
मिरे  साथ  वो  और  क्या-क्या  करेंगे ?

ग़ज़ब  फ़लसफ़ा  है  मिरे  दुश्मनों  का
जिसे  ज़ख़्म  देंगे,  दवा  भी  करेंगे

जिन्हें  नाज़  था  कमसिनी  में  अना  पर
ज़ईफ़ी  में  वो  इल्तिजा  भी  करेंगे

उन्हें  बज़्म  में    याद  आई   हमारी
बुलाएंगे    तो     रास्ता    भी  करेंगे

नई  सल्तनत  का  नया  क़ायदा  है
ख़ता  जो  करें,  फ़ैसला  भी  करेंगे

जिए   जाएंगे    शायरी     के    सहारे
कि  घर  के  लिए  कुछ  नया  भी  करेंगे

अक़ीदत  मुकम्मल  अगर  है  हमारी
किसी  दिन  सितारे  वफ़ा  भी  करेंगे

ज़रूरी  नहीं  है  कि  हमने  किसी  को
सनम  कर  लिया  तो  ख़ुदा  भी  करेंगे  !

                                                                   (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सितम: अत्याचार; हया: लज्जा; ग़ज़ब: विलक्षण; फ़लसफ़ा: जीवन-दर्शन; दुश्मनों: प्रिय जनों (व्यं.); नाज़: गर्व; कमसिनी: कम आयु, युवावस्था; अना: अहंकार; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; इल्तिजा: प्रार्थना; बज़्म: गोष्ठी; रास्ता: मार्ग, व्यवस्था; सल्तनत: राज; क़ायदा: नियम; ख़ता: अपराध; अक़ीदत: आस्था; मुकम्मल: सम्पूर्ण; वफ़ा: निर्वाह; सनम  कर  लिया: प्रिय बनाया। 

बुधवार, 20 अगस्त 2014

... मुहब्बत गुनाह है !

तेरे  शहर  में  कौन  मिरा  ख़ैर-ख़्वाह  है
हर  शख़्स  यहां  मेरी  तरह  ही  तबाह  है

रंगीनियों  से  ख़ास  हमें  वास्ता  नहीं
बस  चंद  हसीनों  से  महज़  रस्मो-राह  है

इक  तू  है,  जिसे  ख़ाक  हमारी  ख़बर  नहीं
वरना  मिरी  नज़र  का  ज़माना  गवाह  है

हक़  मान  कर  सताएं,  हमें  उज्र  नहीं  है
आख़िर  दिले-ग़रीब  तुम्हारी  पनाह  है

आ  तो  गए  हो  शैख़,  ख़राबात  में  मगर
क्या  याद  नहीं,  तुमपे  ख़ुदा  की  निगाह  है 

उस  शख़्स  का  निज़ाम  गवारा  नहीं  हमें
जिसका  लहू  सुफ़ैद, सियासत सियाह  है

जन्नत  तिरी  क़ुबूल  हमें  भी  नहीं,  मगर
हैरत  है,  तिरे  घर  में  मुहब्बत  गुनाह  है ! 

                                                                          (2014)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ैर-ख़्वाह: शुभचिंतक; शख़्स: व्यक्ति; महज़: केवल;  रस्मो-राह: शिष्टाचार का संबंध; ख़ाक: नाम-मात्र, रत्ती-भर; उज्र: आपत्ति; दिले-ग़रीब: असहाय व्यक्ति का हृदय; पनाह: शरण; शैख़: ईश्वर-भीरु; ख़राबात: मदिरालय; जन्नत: स्वर्ग;  क़ुबूल: स्वीकार; हैरत: आश्चर्य।

रविवार, 17 अगस्त 2014

समंदर जानता है !

वो  हमें  अच्छी  तरह  पहचानता  है
मानि-ए-वुस'अत  समंदर  जानता  है

राह  आसां  छोड़  कर  रूहानियत  की
ख़ाक  दर-दर  की  दिवाना  छानता  है

मै  बुरी  शै  है,  हमें  भी  इल्म  है  ये
ज़ाहिदों ! दिल  कब  नसीहत  मानता  है ?

लद   गए  दिन  अब  तुम्हारी  शायरी  के
कौन  अब  ग़ालिब,  तुम्हें  पहचानता  है ?

क्या  उसे  दिल  खोल  कर  दिखलाइएगा
गर  ख़ुदा  है  तो  हक़ीक़त  जानता  है  !

                                                                        (2014)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मानि-ए-वुस'अत: विस्तार का अर्थ; रूहानियत: आध्यात्म; मै: मदिरा; शै: वस्तु; इल्म: बोध; ज़ाहिदों: धर्मोपदेशकों; नसीहत: सीख; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महान शायर; गर: यदि; हक़ीक़त: वास्तविकता।

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

ख़ुश्बुओं की तरह...

दोस्तों  में  रहे,  दुश्मनों  में  रहे
हर  जगह  हम  जवां  धड़कनों  में  रहे

दरिय:-ए-अश्क  की  थाह  लें  या  न  लें
रात  भर  ख़्वाब  इन  उलझनों  में  रहे

ख़ूब  है  इस  शहर  की  रवायत  जहां
माहो-ख़ुर्शीद  भी  चिलमनों  में  रहे

बात  की  बात  में  अजनबी  हो  गए
हमनवा  जो  कभी  बचपनों  में  रहे

मिट  गए  जो  सबा-ए-सहर  के  लिए
ख़ुश्बुओं  की  तरह  गुलशनों  में  रहे

अश्क  बन  कर  हमें  आक़िबत  ये  मिली
चश्मे-नम  से  गिरे,  दामनों  में  रहे

आ  चुके  थे  ख़ुदा  की  नज़र  में  मगर
हम  महज़  चंद  दिन  मुमकिनों  में  रहे !

                                                                 (2014)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; रवायत: परंपरा; माहो-ख़ुर्शीद: चंद्र-सूर्य; चिलमनों: आवरणों; हमनवा: एकस्वर,सदैव सहमत; सबा-ए-सहर: प्रातः समीर; आक़िबत: सद् गति; चश्मे-नम: भीगी आंखें; दामनों: उपरिवस्त्र, दुपट्टा आदि; महज़: मात्र; चंद: चार; मुमकिनों: संभावितों।

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

... दूर तलक रौशनी नहीं !

दिल  में  रहा,  निगाह  बचा  कर  चला  गया
वो:  शख़्स  हमें   राह  भुला  कर  चला  गया

हम  बदगुमां  न  थे  वो:  मगर मेह्रबां  न  था
अच्छे  दिनों  के  ख़्वाब  दिखा  कर  चला  गया

शायद  किसी  ज़ेह्न  का  मुबारक  ख़्याल  था
मुरझाए  हुए  फूल  खिला  कर  चला  गया

ये  क्या  तिलिस्म  है  दिले-वादा-निबाह  का 
आया  ज़रूर,  ख़्वाब  में  आ  कर  चला  गया

क्या  ख़ूब  दोस्त  था  कि  जहां  मोड़  आ  गया
कमबख़्त  वहीं  हाथ  छुड़ा  कर  चला  गया 

मेरे   शहर   में     दूर  तलक      रौशनी  नहीं
एहसास  तिरा  दिल  को  बुझा  कर  चला  गया

मदहोश  हुक्मरां  को  कोई  फ़िक्र  ही  नहीं
आया   ग़ुबार,  शहर  जला  कर  चला  गया !

                                                                                  (2014)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 
शब्दार्थ: बदगुमां: भ्रमित; मेह्रबां: कृपालु; ज़ेह्न: मस्तिष्क; मुबारक: शुभ; तिलिस्म: कूट-प्रपंच, टोना; दिले-वादा-निबाह: निर्वाह करने वाले का हृदय; एहसास: अनुभूति; मदहोश: उन्मत्त; हुक्मरां: प्रशासक;   ग़ुबार: झंझावात। 

सोमवार, 11 अगस्त 2014

परिंदों को क्यूं सज़ा ...?

दिल  बदल  जाए  तो  बता  दीजे
ये  न  हो,  ख़त  से  इत्तिला  दीजे

या  चलें  साथ  हमसफ़र  बन  कर
या    हमें     राह  से     हटा  दीजे

आज  ज़िंदा  हैं,  आज  मिल  लीजे
मौत  के   बाद   क्या  दुआ  दीजे

लोग  फ़ाक़ाकशी  से  आजिज़  हैं
भूख  की    कारगर    दवा  दीजे

है  शिकायत  अगर  फ़रिश्तों  से
तो  परिंदों  को  क्यूं  सज़ा  दीजे

आप  इस  दौर  का  करिश्मा  हैं
हम  गया  वक़्त  हैं,  भुला  दीजे

क़ब्ल  इसके  कि  ख़ून  पानी  हो
ज़ुल्म  की  सल्तनत  मिटा  दीजे !

                                                              (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़त: पत्र; इत्तिला: सूचना; हमसफ़र: सहयात्री; फ़ाक़ाकशी: लंघन, भूखे रहना; आजिज़: तंग, असहाय; 
कारगर: प्रभावी; फ़रिश्तों: देवदूतों; परिंदों: पक्षियों; करिश्मा: चमत्कार; क़ब्ल: पूर्व; सल्तनत: साम्राज्य। 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

चांद पर तोहमतें...

जो  न  आया  कभी  बुलाने  से
ख़्वाब  वो  आ  गया  बहाने  से

इश्क़  का  इम्तिहां  नहीं  देंगे
बाज़  आ  जाएं  आज़माने  से

कौन  है  जो  मिरे  रक़ीबों  को
रोकता  है  क़रीब  आने  से  ?

रूह  पर  रहमतें  बरसती  हैं
रस्मे-राहे-वफ़ा  निभाने  से

दोस्त-एहबाब  रूठ  जाएंगे
बज़्म  में  आइना  दिखाने  से

हाथ  से  बात  छूट  जाती  है
दर्द  को  मुद्द'आ  बनाने  से

नूर  किरदार  को  नहीं  मिलता
चांद  पर  तोहमतें  लगाने  से  !

                                                                (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रक़ीबों: प्रिय व्यक्तियों (व्यंजना); रहमतें: ईश्वरीय कृपाएं; रस्मे-राहे-वफ़ा: निर्वाह के मार्ग की प्रथा; दोस्त-एहबाब: मित्र एवं प्रियजन; बज़्म: सभा, सार्वजनिक रूप से; मुद्द'आ: विवाद का विषय; नूर: प्रकाश; किरदार: व्यक्तित्व, चरित्र; तोहमतें: आरोप, दोष।

... ख़ुदा कहा जाए ?

दिल  दिया  जाए  या  लिया  जाए
मश्विरा  रूह  से  किया  जाए

दर्दे-दिल  है  कि  बस,  क़यामत  है
हिज्र  में  किस  तरह   सहा  जाए

और  कुछ  देर  खेलिए  दिल  से
और  कुछ  देर  जी  लिया  जाए

दिल  प'  निगरानियां  रहें   वरना
क्या  ख़बर,  कब  फ़रेब  खा  जाए

दाल-रोटी    जहां    नसीब    नहीं
किस   यक़ीं   पर  वहां  जिया  जाए

हो  चुकी  सैर   ख़ुल्द  की  काफ़ी
लौट  कर  आज  घर  चला  जाए

मोमिनों  का  जिसे  ख़्याल  न  हो
क्या  उसे  भी  ख़ुदा  कहा  जाए  ? 

                                                       (2014)

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मश्विरा: परामर्श; रूह: आत्मा; क़यामत: प्रलय; निगरानियां: चौकसी; फ़रेब: छल; नसीब: उपलब्ध; यक़ीं: विश्वास;  ख़ुल्द: स्वर्ग; मोमिन: आस्था रखने वाले । 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

....सलीक़ा मुस्कुराने का

    'साझा आसमान'  की  400वीं  ग़ज़ल

हमें  तूफ़ाने-ग़म  से  पार  पाना  ख़ूब  आता  है
नज़र  के  वार  से  दामन  बचाना  ख़ूब  आता  है

तजुर्बा  है  हमें  आधी  सदी  से  जो  बग़ावत  का
सितमगर  के  इरादों  को  हराना  ख़ूब  आता  है

जिन्हें  आया  नहीं  अब  तक  सलीक़ा  मुस्कुराने  का
उन्हें  बिन  बात  के  आंसू  बहाना  ख़ूब  आता  है

ख़ुदा  क़ायम  रखे  उन  दोस्तों  की  बे-हयाई  को
जिन्हें  वक़्ते-ज़रूरत  मुंह  छुपाना  ख़ूब  आता है

किसी  के  ज़ख्म  पर  मरहम  लगाना  भी  कभी  सीखो
तुम्हें  बस  दोस्तों  के  दिल  जलाना  ख़ूब  आता  है 

सियासत  ने  हमेशा  से  उन्हीं  को  अज़्म  बख़्शा  है
जिन्हें  अपने  सभी  वादे  भुलाना  ख़ूब  आता  है

फ़रेबो-मक्र  से  ऊंचाइयों  पर  बैठने  वालों
अवामे-हिंद  को  नीचे  गिराना  ख़ूब  आता  है !

                                                                                          (2014)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तूफ़ाने-ग़म: दुःख का झंझावात; दामन:हृदय; तजुर्बा: अनुभव; बग़ावत: विद्रोह; सितमगर: अत्याचारी; सलीक़ा: ढंग; 
क़ायम: शाश्वत, स्थायी; बे-हयाई: निर्लज्जता; वक़्ते-ज़रूरत: आवश्यकता के समय; ज़ख्म: घाव; अज़्म  बख़्शा: महानता/प्रमुखता दी; फ़रेबो-मक्र: छल-कपट; अवामे-हिंद: भारतीय जन । 

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

रियासत बचा लीजिए !

सल्तनत  आपकी  है  सता  लीजिए
हसरतें  आज  सारी    मिटा  लीजिए

सोचने  का  तरीक़ा  बदल  जाएगा
खोल  कर  दिल  कभी  मुस्कुरा  लीजिए

आप  ईज़ा-ए-दिल  से  परेशां  न  हों
बस  किसी  दिन  हमें  घर  बुला  लीजिए

हाथ  थक  जाएंगे  चोट  करते  हुए
ज़ुल्म  के  माहिरों  को  बुला  लीजिए

आपके  ज़ुल्म  हम  पर  बहुत  हो  चुके
अब  कहीं  और  दिल  को  लगा  लीजिए

सरकशी  घुल  गई  है  लहू  में  मिरे
आप  अपनी  हिफ़ाज़त  बढ़ा  लीजिए

चल  पड़े  हैं  मुहिम  पर सिपाहे-अमन
हो  सके  तो  रियासत  बचा  लीजिए  !

                                                                     (2014)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सल्तनत: राज्य; हसरतें: इच्छाएं; ईज़ा-ए-दिल: हृदय का कष्ट, रोग; ज़ुल्म: अत्याचार; माहिरों: प्रवीणों, विशेषज्ञों; सरकशी: विद्रोह; लहू: रक्त; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; मुहिम: अभियान; सिपाहे-अमन: शांति-सेनाएं; रियासत: राज्य।