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बुधवार, 30 दिसंबर 2015

...दिल को यूं मसलते हैं

दिल  अगर  ख़ुशफ़हम  नहीं  होता
आज  सीने  में  ग़म   नहीं  होता

आप  खुल  कर  कलाम  कर  लेते
तो  हमें  कुछ  वहम  नहीं  होता

ख़ाकसारी  वज़्न  बढ़ाती  है
आपका  अज़्म  कम  नहीं  होता

वो  मेरे  दिल  को  यूं  मसलते  हैं
एक  रेश:  भी  ख़म  नहीं  होता

ज़ार  जावेद  हो  गए होते
जो  रिआया  में  दम  नहीं  होता

काश ! मेरी  दुआएं  बर  आतीं
कोई  भी  चश्म  नम  नहीं  होता

कौन  उसकी  दुहाइयां  देता
गर  ख़ुदा  बेरहम  नहीं  होता !

                                                                   (2015)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुशफ़हम: सदाप्रसन्न रहने वाला; कलाम: संवाद, बातचीत; वहम: भ्रम; ख़ाकसारी: विनम्रता; वज़्न: गुरुत्व, भार; अज़्म: अस्मिता, सम्मान, सामाजिक स्थिति; रेश::तन्तु; ख़म: बांका, टेढ़ा; ज़ार:रूस के प्राचीन, अत्याचारी शासक; जावेद: शास्वत, स्थायी, अमर;रिआया: नागरिक गण; बर : फलीभूत होना; चश्म: नयन; नम:भर आना; दुहाइयां : सहायताकेलिएपुकारलगाना, स्मरणकरना;  गर:यदि; बेरहम: निर्दयी।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

इतने हसीन हैं...

उनके  ख़िलाफ़  कोई  शिकायत  न  हो  सकी
इतने  हसीन  हैं   कि  अदावत    न  हो  सकी

पैग़ाम    शैख़   को    तो    मुलाक़ात   रिंद  से
हमसे तो इस तरह की सियासत  न  हो  सकी

दे  आएं    मेरे  मर्ग़  की    उनको    ख़बर  ज़रा
इतनी  भी   दोस्तों  से   शराफ़त   न  हो  सकी

उस्तादो-वाल्दैन    भी   समझा   के    थक  गए
शामिल  तुम्हारी  ख़ू  में  सदाक़त  न  हो  सकी

बुलबुल    उदास    है   कि    हवाएं   मुकर  गईं
सय्याद  के   ख़िलाफ़    बग़ावत    न  हो  सकी

रिज़्वां !  तेरा  यक़ीन     नहीं     मालिकान  को
तुझसे तो तितलियों की हिफ़ाज़त  न  हो  सकी

हमने        हज़ार     साल    गुज़ारे     सुजूद  में
अफ़सोस !  आसमां  से  इनायत  न  हो  सकी  !

                                                                                    (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: हसीन: सुदर्शन; अदावत: शत्रुता; पैग़ाम:संदेश; शैख़ : धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मद्य-प्रेमी; सियासत: कूटनीति, दोहरापन; मर्ग़ : देहांत; शराफ़त : शिष्टता; उस्तादो-वाल्दैन : गुरुजन एवं माता-पिता; ख़ू : चारित्रिक गुण, विशिष्टताएं; सदाक़त : सत्यता; बुलबुल : कोयल; सय्याद: बहेलिया; बग़ावत: विद्रोह; रिज़्वां: रिज़्वान, मिथक के अनुसार स्वर्ग (जन्नत) के उद्यान का रक्षक; मालिकान: स्वामी-वर्ग, यहां आशय ईश्वर तथा देवता-गण; हिफ़ाज़त:सुरक्षा; सुजूद: आपाद-मस्तक प्रणाम, सज्दे का बहुव.; अफ़सोस: खेद; आसमां: आकाश, परलोक, ईश्वर; इनायत: कृपा ।

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

सज्दों की फ़िक्र...

दिन  रात     ज़िंदगी     से     परेशां     रहा  करें
उस  पर  भी  सर  पे  अर्श  के  एहसां  रहा  करें

ज़रदार  को  मु'आफ़    सभी   रोज़:-ओ-नमाज़
सज्दे  में    बस     ग़रीब    मुसलमां   रहा  करें

रखते  हैं    जो  निगाह    हमारी      निगाह  पर
बेहतर  है    वो  भी      साहिबे-ईमां    रहा  करें

किस-किस  की  नफ़्रतों  को  हवा  दीजिए  यहां
बन  कर  किसी के  चश्म  के  अरमां  रहा  करें

तफ़्रीहे-आसमां    से     ज़रा    वक़्त     ढूंढ  कर
कुछ  दिन  ज़मीने-मुल्क  के   मेहमां  रहा  करें

सरमाय:  नूर     नेक  कमाई   है     ज़ीस्त  की
कोई   गुनाह     हो   तो       पशेमां     रहा  करें

इल्ज़ामे-कुफ़्र     हमको    गवारा    नहीं  मियां
सज्दों  की    फ़िक्र  है    तो     मेह्रबां  रहा  करें !

                                                                                      (2015)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: परेशां: विकल; अर्श: आकाश,  ईश्वर; एहसां: अनुग्रह; ज़रदार: स्वर्णशाली, समृद्ध; मु'आफ़: क्षमा, मुक्ति; रोज़:-ओ-नमाज़ : व्रत और प्रार्थनाएं; सज्दे: भूमिवत प्रणाम; मुसलमां: आस्तिक; साहिबे-ईमां : आस्थावान; नफ़्रतों: घृणाओं; चश्म: नयन; अरमां:अभीष्ट; तफ़्रीहे-आसमां:आकाश की सैर; ज़मीने-मुल्क: देश की धरा; मेहमां: अतिथि; सरमाय: नूर: (आध्यात्मिक) प्रकाश की पूंजी; नेक:शुभ, पुण्य; ज़ीस्त:जीवन; गुनाह: अपराध; पशेमां: लज्जित; इल्ज़ामे-कुफ़्र: अनास्था का आरोप; गवारा : स्वीकार; मेह्रबां: कृपालु।


शनिवार, 26 दिसंबर 2015

... झमेला बना दिया

काशी  को  कालिया  ने  कटैला  बना दिया
गंगो-जमन  के  रंग  को  मैला  बना  दिया

दर्ज़ी  को  दें  दुआएं  कि  हज्जाम  को  ईनाम
बदशक्ल  शाहे-वक़्त  को  छैला  बना  दिया

थाली  में  दाल  है  न  मुक़द्दर  में  मुर्ग़ीयां
हर  ज़ायक़ा  अना  ने  कसैला  बना  दिया

दिल्ली था  जिसका  नाम  उसे  ढूंढते  हैं  सब  
जम्हूरियत  ने  ख़ूब  झमेला  बना  दिया

ला'नत  है  रहबरों  के  सियासी  शऊर  पर
बज़्मे-सुख़न  को  जिसने  तबेला  बना  दिया

उस  ज़ह्र  की  दवा  न  मिली  क़ैस  को  कभी
जिसने  गुले-गुलाब  को  लैला  बना  दिया

है  दौरे-तरक़्क़ी  कि  तबाही  का  सिलसिला
जिसने  अठन्नियों  को  अधेला  बना  दिया !

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: काशी: वाराणसी; कालिया:कृष्ण-कथा में वर्णित कालिया नाग; कटैला: काला-कत्थई रंग का एक अर्द्ध-मूल्यवान रत्न; गंगो-जमन: गंगा-यमुना; हज्जाम: केश काटने वाला; बदशक्ल: कुरूप; शाहे-वक़्त: वर्त्तमान शासक; छैला: सजा-संवरा पुरुष; मुक़द्दर: भाग्य; ज़ायक़ा: स्वाद; अना: अहंकार; कसैला: कषाय; जम्हूरियत: लोकतंत्र; ला'नत: धिक्कार; रहबरों : नेताओं; सियासी: राजनैतिक; शऊर: विवेक; बज़्मे-सुख़न:सृजनकर्मियों  की गोष्ठी; तबेला: पशुओं को बांधने का स्थान; ज़ह्र:जहर, विष; क़ैस: लैला का प्रेमी, 'मजनूं';   गुले-गुलाब: गुलाब का फूल; लैला:मजनूं की प्रेमिका, काली रात, -के समानकृष्ण-वर्णी; दौरे-तरक़्क़ी : प्रगति /विकास का काल; तबाही: विध्वंस; सिलसिला: क्रम; अधेला: आधे पैसे का सिक्का, अब अप्रचलित ।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

मियां ! दीवानगी क्यूं...?


शराफ़त  पर  किसी    की  आपको  शर्मिंदगी  क्यूं   है
न  जाने   आपके  औसाफ़  में    ऐसी    कमी   क्यूं  है

हमें  जिसने    गिराया  था    ज़माने  की   निगाहों  में
हमारे  चश्म   में   उसके  लिए   इतनी   नमी  क्यूं  है

चला  कर  पीठ  पर  ख़ंजर  जो   एहसां  भी   जताते  हैं
लबों   पर  आज  फिर  उनके  ये  लफ़्ज़े-दोस्ती  क्यूं  है

हमारी   जान    ले   कर  भी    हमीं  पर   जान  देते  हो
हमारे   वास्ते    अब  भी     मियां !   दीवानगी   क्यूं  है

वही   जानें     वही   समझें     ये   कैसा    इस्तगासा  है
हमारा  जुर्म    ज़ाहिर  है    तो  ये    रस्साकशी   क्यूं  है

हमारा वक़्त आया   चल दिए   कह कर   'ख़ुदा हाफ़िज़'
दिले-एहबाब   में    इस बात पर   मीठी  ख़ुशी   क्यूं  है

हमारे  ग़म    उसी  के  हैं     हमारी    हर   ख़ुशी  उसकी
ख़ुदा   है  दोस्त  भी  है  तो  अभी   तक  अजनबी क्यूं है ?

                                                                                             (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शराफ़त: शिष्टता; शर्मिंदगी: लज्जा का अनुभव; औसाफ़: प्रकृतिगत विशिष्टताएं, अच्छाइयां; चश्म:नयन, दृष्टि; ख़ंजर: क्षुरी; एहसां: अनुग्रह; लबों: होठों; लफ़्ज़े-दोस्ती: मित्रता  का शब्द; दीवानगी: उन्मत्त प्रेम;   इस्तगासा: न्यायालय में प्रस्तुत किया जाने वाला अपराध का विवरण; जुर्म: अपराध;  ज़ाहिर:प्रकट, सिद्ध; ख़ुदा हाफ़िज़: 'ईश्वर रक्षा करे'; मित्रों के हृदय;  अजनबी:अपरिचित।

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

नूर का जल्वा ...

ख़ुल्द  में   किस  पर   भरोसा  कीजिए
अजनबी  है  यह  शह्र     क्या  कीजिए

इश्क़   है     कोई   ग़ुलामी     तो  नहीं
क्यूं  हमें   हर  दिन   सताया  कीजिए

इश्क़  तोहफ़ा  है  ख़ुदा  का  ख़ल्क़  को
यह  करम   यूं  ही   न  ज़ाया  कीजिए

है    हमारा   दिल   गुलाबों   की   तरह
रोज़   क़िस्मत  को    सराहा   कीजिए

दिल    गवाही  दे    इबादत  की   कहीं
शौक़  से   सर  को   झुकाया   कीजिए

आपकी  ख़ू  भी   ख़ुदा  से    कम  नहीं
दर्दमंदी        से      संवारा      कीजिए

मान   लेंगे    आपको   ही    हम  ख़ुदा
कोई  तो   लेकिन   करिश्मा  कीजिए

देखना  है    नूर   का    जल्वा    अगर
तो  हमें   घर  पर   बुलाया    कीजिए !

                                                                          (2015)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ुल्द: स्वर्ग; तोहफ़ा: उपहार; ख़ल्क़: सृष्टि; करम: कृपा; ज़ाया: व्यर्थ; क़िस्मत: भाग्य; सराहा: प्रशंसित; गवाही: स्वीकृति; इबादत: प्रार्थना; ख़ू: व्यक्तित्व, विशिष्ट गुण; दर्दमंदी:सहृदयता, संवेदनशीलता; संवारा: सजाया; करिश्मा: चमत्कार; नूर का जल्वा : ईश्वरीय प्रकाश का दृश्य।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

...तो ना बुलाएं

दीजिए  दिल  से  दुआएं  अब  हमें
मौत    देती  है   सदाएं    अब  हमें

शह्र  की  रंगीनियां  बस  हो  चुकीं
याद  करती  हैं  ख़लाएं  अब  हमें

उम्र  भर  जो   रौशनी   देती  रहीं
भूल  बैठीं  वो  शुआएं   अब  हमें

जी  जलाने  को  बहारें  हैं  बहुत
चैन  देती  हैं  ख़िज़ाएं  अब  हमें

ज़र्र:  ज़र्र:  बंट  चुके  हैं  उन्स  में
दोस्त  क्यूं  कर  आज़माएं  अब  हमें

बदगुमानी  दुश्मनी  रुस्वाइयां
दीजिए  क्या  क्या  सज़ाएं  अब  हमें

नफ़्स  घुटती  जा  रही  है  दम  ब  दम
देखना  है  देख  जाएं  अब  हमें

गर  मकां  ख़ाली  नहीं  है  अर्श  पर
बे-वजह  तो  ना  बुलाएं  अब  हमें  !'

                                                                         (2015)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दुआएं: शुभ कामनाएं; सदाएं: आमंत्रण; शह्र: शहर, नगर; ख़लाएं: एकांत, निर्जन स्थान; रौशनी: प्रकाश; शुआएं: किरणें; बहारें: बसंत; चैन: संतोष; ख़िज़ाएं: पतझड़: ज़र्र:  ज़र्र:: कण कण; उन्स: स्नेह; क्यूं  कर: किस कारण; बदगुमानी: अनुचित धारणा; दुश्मनी: शत्रुता; रुस्वाइयां: अपमान; नफ़्स: सांस; दम  ब  दम: प्रति पल; गर: यदि; मकां: आवास; अर्श: आकाश, परलोक; बे-वजह: अकारण।  

सोमवार, 21 दिसंबर 2015

तवील राहे-उमीद...

हां  वो  शख़्स  मेरा  रक़ीब  था  मेरे  मक़बरे  से  चला  गया
मेरी  मग़फ़िरत  की  दुआएं  कीं  एक  शम्'.अ  रख  के  चला  गया

ये  भी  अपना  अपना  जुनून  है  मैं  झुका  नहीं  तू  रुका  नहीं
तू  कि  दिल  से  दूर  चला  गया  मैं  क़रीब  होते  चला  गया

हां  तेरी  ख़ुदाई  कमाल  है  मेरी  बंदगी  भी  मिसाल  है
तेरा  दर  कि  मुझपे  खुला  नहीं  मैं  ही  बैठे  बैठे  चला  गया

मेरी  नब्ज़  छू  के  तू  रो  दिया  मेरी  रूह  साथ  सिसक  उठी
ऐ  तबीब ! ग़म  की  दवा  न  दे  मैं  तेरे  जहां  से  चला  गया

तू  निबाह  कर  कि  तबाह  कर  तेरा  घर  ख़ुशी  से  भरा  रहे
मेरा  क्या  है  मैं  तो  फ़क़ीर  हूं  कि  नए  सफ़र  पे  चला  गया

है  तवील  राहे-उमीद  ये  मुझे  सब्र  हो  तो  कहां  तलक
मेरी  आह  भी  न  तू  सुन  सका  तो  मैं  अश्क  थामे  चला  गया

मुझे  जब  लगा  कि  तू  है  ख़ुदा  मेरा  सज्दा  ख़ुद  ही  अता  हुआ
कभी  शक़  हुआ  तेरी  ज़ात  पर  मैं  नज़र  बचाए  चला  गया  !

                                                                                                       (2015)

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शख़्स: व्यक्ति; रक़ीब: प्रतिद्वंदी; मक़बरा: समाधि; मग़फ़िरत: मोक्ष; जुनून : उन्माद; ख़ुदाई: ईश्वरत्व; बंदगी: भक्ति-भाव; 
कमाल: चमत्कारी; मिसाल : उदाहरण; दर:द्वार; नब्ज़ : नाड़ी; रूह: आत्मा; तबीब : वैद्य; जहां: संसार; निबाह : निर्वाह; तबाह: उद्ध्वस्त; फ़क़ीर:सन्यासी; सफ़र:यात्रा;  तवील: लंबी; राहे-उमीद: आशा का मार्ग; सब्र: धैर्य; दंडवत प्रणाम; अता : पूर्ण; ज़ात:अस्तित्व।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

दिलों की ताजदारी...

हमारे  हाथ  ख़ाली  हैं  तुम्हारी  जेब  भारी  है
हमारी  शर्मसारी   में   तुम्हारी  होशियारी  है

न  जाने  किस  अदा  पर  सब  तुम्हें  दिल  से  लगाते  हैं
तुम्हारे  हर  करम  में  जब्रो-ज़ुल्मत  ख़ूनख़्वारी   है

सियासत  'आप' को  भी  सब्र  से  जीना  सिखा  देगी
अभी  तिफ़्ली  समझ  की  सादगी  है  बे-क़रारी  है

तुम्हें  सर  चाहिए  ही  था  तो  सीधे  मांगते  हमसे
हमें  भी  जान  से  ज़्याद:  तुम्हारी  आन  प्यारी  है

वो  अपने   क़स्रे-शाही  शानो-शौक़त  साथ  ले  जाएं
हमारे  पास  सदियों  से  दिलों  की  ताजदारी  है

उन्हें  आना  पड़ेगा  अर्श   से  नीचे  उतर  कर  भी
अना  के  सामने  उनकी  हमारी  ख़ाकसारी  है

हमें  माशूक़  करके  आप  ही  पछताएंगे  मोहसिन
हमारी   राह  में    ग़म  हैं     ख़ुदी  है      बुर्दबारी  है  !

                                                                                         (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: शर्मसारी: लज्जा, अपमानजनक स्थिति; होशियारी : चतुराई; अदा: भाव-भंगिमा; करम: कृपा; जब्रो-ज़ुल्मत: बल-प्रयोग और अत्याचार; ख़ूनख़्वारी: रक्त-पिपासा; सब्र: धैर्य; तिफ़्ली : बचकानी; सादगी: सीधापन; बे-क़रारी: व्यग्रता; सर: शीश; आन: आत्म-सम्मान; क़स्रे-शाही: राजमहल;  अदा: भाव-भंगिमा; करम: कृपा; जब्रो-ज़ुल्मत: बल-प्रयोग और अत्याचार; ख़ूनख़्वारी: रक्त -पिपासा; शानो-शौक़त: ऐश्वर्य और समृद्धि; ताजदारी: राजमुकुट, साम्राज्य; अर्श: आकाश; अना: अहंकार; ख़ाकसारी: अकिंचनता, विनम्रता; माशूक़: प्रिय / प्रेमी; मोहसिन: अनुग्रही, कृपालु; ग़म: दुःख; ख़ुदी: आत्म-बोध; बुर्दबारी: सहिष्णुता।  

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

हौसला कमीनों का

ज़िक्र  मत  छेड़िए  हसीनों  का
रंग  धुल  जाएगा  जहीनों  का

वक़्त  बेवक़्त  याद  मत  कीजे
ज़ख़्म  खुल  जाएगा  महीनों  का

शायरी  दिल  दिमाग़  की  शै  है
यह  करिश्मा  नहीं  मशीनों  का

ख़ूबसूरत  लिबास  मत  देखो
सांप  है  सांप  आस्तीनों  का

रोज़  तकरीर  ताजदारों  की
रोज़  मजमा  तमाशबीनों  का

दंग  है  आज  फ़ौजे-शाही  भी
देख  कर  हौसला  कमीनों  का

जान  गिर्दाब  में  गई  जिसकी
नाख़ुदा  था  कई  सफ़ीनों  का

बढ़  रहा  है  ज़मीने-मोमिन  से
फ़ायदा  अर्श  के  मकीनों  का  !

                                                           (2015)

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़िक्र: प्रसंग; ज़हीनों: बुद्धिजीवियों, विद्वानों; वक़्त बेवक़्त: समय-असमय; ज़ख़्म: घाव; शै: वस्तु; करिश्मा:चमत्कार; 
लिबास: परिधान; तकरीर: भाषण; ताजदारों: शासकों; मजमा: भीड़; तमाशबीनों: दर्शकों;  दंग:चकित; फ़ौजे-शाही: राजकीय सेना; हौसला:उत्साह, वीरता; कमीनों: मज़दूर-कामगार; गिर्दाब: भंवर; नाख़ुदा: मल्लाह; सफ़ीनों: नावों; ज़मीने-मोमिन:भक्तों/ आस्तिकों की भूमि; अर्श:आकाश, स्वर्ग; मकीनों:निवासियों।




बुधवार, 16 दिसंबर 2015

मुहब्बत की मार...

हर  वक़्त  सर  पे  इश्क़  का  साया  सवार  हो
तो  ख़ाक  आशिक़ों  को  फ़िक्रे-रोज़गार  हो  !

शीरीं  निगाह  से  न  देखिए  हमें  मियां
तलवार  थामिए  तो  ज़रा  धारदार  हो

जो  नफ़्रतों  की  आग  लगाने  में  हैं  महव
अल्लाह  करे  उनपे  मुहब्बत  की  मार  हो

कमतर  ज़राए  माश  कहीं  जुर्म  नहीं  हैं
क्यूं  शायरे-ग़रीब  यहां  शर्मसार  हो

मुफ़लिस  थे  हम  तो  आप  गुज़ारा  न  कर  सके
ले  आइए  रक़ीब  जो  सरमाय:दार  हो

ऐ  ताइरे-उमीद  अभी  अलविदा  न  कह
शायद  यहीं  नसीब  में  फ़स्ले-बहार   हो

चलते  हैं  सैर  करके  देखते  हैं  अर्श  की
शायद  वहां  हमारा  कहीं  इंतज़ार  हो  !

                                                                                            (2015)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इश्क़ का साया: प्रेम का भूत; ख़ाक: व्यर्थ; फ़िक्रे-रोज़गार:आजीविका की चिंता; शीरीं  निगाह: मीठी दृष्टि; नफ़्रतों:घृणाओं; महव: व्यस्त; कमतर:न्यून, हीनतर;  ज़राए माश: आजीविका/आय के साधन; जुर्म: अपराध; शायरे-ग़रीब: निर्धन शायर, निर्धनों का शायर; शर्मसार: लज्जित, अपमानित; मुफ़लिस: धनहीन;
गुज़ारा: निर्वाह; रक़ीब: प्रतिद्वंद्वी;  सरमाय:दार:पूंजीपति, समृद्ध; ताइरे-उमीद: आशाओं के पक्षी; अलविदा :अंतिम प्रणाम;   नसीब:प्रारब्ध; फ़स्ले-बहार: पूर्ण बसंत; अर्श:आकाश।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

मेरे ख़्वाब भी तो...

मेरे  पास  भी  कभी  वक़्त  था  किसी  मरहले  पे  ठहर  गया
तेरा  ख़्वाब  था  मेरा  हमसफ़र  मेरी  बेख़ुदी  से  बिखर  गया

मेरे   दिल  में  भी  कई  ज़ख़्म  हैं  मैं  कहूं  किसी  से  तो  क्या  कहूं
मेरा  दिलनशीं  जो  रहा  कभी  वो  जगह  से  अपनी  उतर  गया

मेरे  ख़्वाब  भी  तो  कमाल  हैं  रहे  पेश  पेश  नसीब  से
शबे-हिज्र  कोई  लिपट  गया  शबे-वस्ल  कोई  मुकर  गया

कभी  दिल  कहीं  पे  अटक  गया  कहीं  चश्म  ही  धुंधला  गई
कभी  ज़ेह्न  जो  गया  हाथ  से  तो  मेरी  दुआ  का  असर  गया

मैं  खड़ा  हूं  ऐसे  मक़ाम  पर  जहां  ताजो-तख़्त  अहम  नहीं
किसी  ख़ास  शै  का  मलाल  क्या जो  गुज़र  गया  सो  गुज़र  गया

वो   तरह  तरह  की  अलामतें  वो  तरह  तरह  के  सुकूं-ओ-ग़म
हुई  मुझपे  इतनी  नियामतें  मैं  ख़ुदा  के  नाम  से   डर  गया

हुआ  पीर  से  जो  मैं  रू-ब-रू  मैंने  घर  ख़ुशी  से  जला  लिया
मुझे  मिल  गया  मेरा  रास्ता  मैं  बिखर  गया  तो  संवर  गया !

                                                                                                              (2015)

                                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मरहले: पड़ाव; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; दिलनशीं: हृदय में विराजित; कमाल:विशिष्ट; पेश -पेश:आगे-आगे; नसीब: भाग्य; शबे-हिज्र: विरह-निशा; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; ज़ेह्न: मस्तिष्क, विवेक; मक़ाम: विशिष्ट स्थान; ताजो-तख़्त: मुकुट और राजासन; अहम: महत्वपूर्ण; शै:वस्तु, व्यक्ति; मलाल: खेद; अलामतें:समस्याएं, कठिनाइयां; सुकूं-ओ-ग़म: संतोष और दुःख; नियामतें: (ईश्वरीय) कृपाएं; पीर: गुरु; रू-ब-रू:समक्ष ।

रविवार, 13 दिसंबर 2015

ख़्वाहिशों की किताब...

नर्मो-नाज़ुक   गुलाब    है  उर्दू
सादगी   का    सवाब     है  उर्दू

हसरतों   का   हिसाब   है  उर्दू
ख़्वाहिशों  की  किताब  है  उर्दू

कोई  चंग़ेज़   कोई  हिटलर  हो
ज़ुल्मतों   का   जवाब   है  उर्दू

क़स्रे-उम्मीद  की  दुआ  जैसी
ख़्वाबे -ख़ाना ख़राब    है  उर्दू

पी  के  मसरूर  हैं  इबादत  में
मोमिनों   की   शराब   है  उर्दू

ख़ू-ए-ख़ुसरो से रूहे-ग़ालिब तक
शायरी   का    शबाब    है  उर्दू

कमनसीबों  से  पूछ  कर  देखो
दर्द    का     इंतेख़ाब     है  उर्दू  !

                                                            (2015)

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नर्मो-नाज़ुक: कोमल एवं क्षणभंगुर; सादगी: शालीनता; सवाब: पुण्य; हसरतों: अभिलाषाओं; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; चंग़ेज़: मध्य युग का एक मंगोल आक्रमणकारी, अत्याचारी शासक; ज़ुल्मतों: अत्याचारों; क़स्रे-उम्मीद: आशाओं का महल; ख़्वाबे -ख़ाना ख़राब: गृह-विहीन यायावर का स्वप्न;  मसरूर: मदालस; मोमिनों: आस्तिकों; ख़ू-ए-ख़ुसरो: 14वीं सदी के महान शायर, उर्दू के जनक की अस्मिता; रूहे-ग़ालिब: 19 वीं शताब्दी के उर्दू के महानतम शायर, हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब (के काव्य) की आत्मा; शबाब: उत्स, यौवन; कमनसीबों: भाग्यहीनों;  इंतेख़ाब: चयन।  

                                                         

शनिवार, 12 दिसंबर 2015

हम हैं ख़ानाबदोश ...



दिल  किसी  का  उधार  ले  आए
मुफ़्त  का   रोगार    ले  आए

वाद:-ए-सह्र    पर    यक़ीं  करके
हम     शबे-इंतेज़ार     ले  आए

आरज़ू-ए-फ़रेब      के      सदक़े
नफ़रतों  के     ग़ुबार    ले  आए

इंतेख़ाबात      के      तमाशे  से
मुश्किलें     बे-शुमार     ले  आए

क़र्ज़    उतरा    नहीं    बुज़ुर्ग़ों का
आप  भी    बार बार     ले  आए

दाल  औक़ात  में    थी   अपनी
सूंघने    को    अचार    ले  आए 

महफ़िले-बाद:कश    मुनक़्क़िद    थी 
शैख़     परहेज़गार        ले  आए 

आए  जब  वो  तो  चश्म  ख़ाली  थे 
रफ्त: रफ्त:     ख़ुमार     ले  आए 

हम  हैं     ख़ानाबदोश     मुद्दत  से 
लोग   घर   में   बहार     ले  आए

शह्रे-ग़ालिब    सुकूं     दे    पाया
दर्दे-सर     हम    हज़ार    ले  आए !

                                         (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रोगार:व्यवसाय, आजीविका, व्यस्तता; वाद:-ए-सह्र: नव प्रातः का वचन; यक़ीं:विश्वास;  शबे-इंतेज़ार:प्रतीक्षा की निशा;  शबे-इंतेज़ार:छल/षड्यंत्रपूर्ण अभिलाषा; सदक़े:बलिहारी जाना; नफ़रतों:घृणाओं; ग़ुबार:अंधड़; इंतेख़ाबात:चुनावों; तमाशे: नाट्य, प्रदर्शन; मुश्किलें: कठिनाइयां;   बे-शुमार:असंख्य; क़र्ज़:ऋण; बुज़ुर्ग़ों:पूर्वजों; औक़ात:सामर्थ्य; महफ़िले-बाद:कश:पियक्कड़ों की गोष्ठी; मुनक़्क़िद:आयोजित; शैख़:धर्मभीरु; परहेज़गार:अपथ्य का अभ्यास करने वाला; चश्म:नयन; ख़ाली: रिक्त; रफ्त: रफ्त:: धीरे धीरे; ख़ुमार: मदालस्य; ख़ानाबदोश: गृह-विहीन; मुद्दत: लंबा समय; बहार: बसंत; शह्रे-ग़ालिब: उर्दू के महानतम शायर हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब का नगर, दिल्ली; सुकूं: आश्वस्ति; दर्दे-सर: शिरो-पीड़ा।   



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गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

...आसां नहीं हूं मैं !

नाकामिए-हयात    पे     हैरां  नहीं  हूं  मैं
वैसे  भी  तेरे  ज़र्फ़  का  पैमां  नहीं  हूं  मैं

शक़  क्यूं  न  हो  मुझे  कि  तू  मेरा  ख़ुदा  नहीं
गर  तू  ये  सोचता  है  कि  इंसां  नहीं  हूं  मैं

शायर  हूं  दिलनवाज़   हूं   पुख़्ता ख़याल  हूं
फिर  भी  किसी  के  ख़्वाब  का  मेहमां  नहीं  हूं  मैं

तू  ख़द्दो-ख़ाल  से  कोई  बेहतर  ख़्याल  ला
ग़ुस्ताख़  तिफ़्ले-हुस्न  का  अरमां  नहीं  हूं  मैं

ज़ाया  न  कर  समझ  को  समझने  में  यूं  मुझे
इस  उम्र  के  लिहाज़  से  आसां  नहीं  हूं  मैं

सज्दा  करूं  करूं  न  करूं  सोच  रहा  हूं
चल  मान  ले  कि  साहिबे-ईमां  नहीं  हूं  मैं

नन्ही-सी  इक  ख़ुशी  हूं  मुझे  शुक्रिया  न  कह
दिल  पर  किसी  ग़रीब  के  एहसां  नहीं  हूं  मैं !

                                                                                         (2015)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाकामिए-हयात: जीवन की असफलताओं; हैरां: चकित, विस्मित; तेरे: यहां, ईश्वर के; ज़र्फ़ : सामर्थ्य, गांभीर्य; पैमां: मापक; गर: यदि; दिलनवाज़: भावनाओं का सम्मान करने वाला ; पुख़्ता ख़याल: पुष्ट/ठोस विचारों वाला ; ख़्वाब: स्वप्न; मेहमां : अतिथि; ख़द्दो-ख़ाल: शारीरिक सौंदर्य; ग़ुस्ताख़: उद्दंड; तिफ़्ले-हुस्न: सुंदर बच्चे; अरमां: आकांक्षा; ज़ाया: व्यर्थ; उम्र:आयु, समय, काल-खंड; लिहाज़ : अनुसार; आसां : सरल; सज्दा: भूमि पर मस्तक टिकाना; साहिबे-ईमां : आस्थावान, आस्तिक; ग़रीब: निर्धन, असहाय; एहसां : अनुग्रह।

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बलवा कहीं हुआ...

बरसों  के  बाद  आंख  समंदर  से  मिली  थी
क़िंदील  जैसे  माहे-मुनव्वर  से  मिली  थी

बलवा  कहीं  हुआ  तो  कहीं  आए  ज़लज़ले
जिस  दिन  मेरी  तहरीर  तेरे  घर  से  मिली  थी

पेशानिए-हयात  की  सलवट  न  पूछिए
ठोकर  हमें  ये  आपके  ही  दर  से  मिली  थी

क़ातिल ! भुला  के  देख  वही   बद्दुआ  कि  जो
मक़्तूल  की  सदाए-चश्मे-तर  से  मिली  थी

 सैलाबे-ग़म  से  आप  परेशां  न  होइए
जीने  की  अदा  नूह  को  महशर  से  मिली  थी

अय  काश  !  हमें  कोई  बिठा  दे  उसी  जगह
गर्दन  जहां  हुसैन  की   ख़ंजर  से  मिली  थी

जिस  रात  कोहे-तूर  कोहे-नूर  हो  गया
वो  रात  फ़क़ीरों  को  मुक़द्दर  से  मिली  थी  !

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: समंदर : समुद्र; क़िंदील : आकाशदीप; माहे-मुनव्वर: उज्ज्वल चंद्रमा, पूर्ण चंद्र; बलवा : दंगा, उपद्रव; ज़लज़ले: भूकंप (बहुव.); तहरीर : हस्तलिपि में लिखित पत्र; पेशानिए-हयात : जीवन-रूपी शरीर का मस्तक; दर: द्वार; क़ातिल : (ओ) हत्यारे; बद्दुआ : श्राप; मक़्तूल : हत् व्यक्ति; सदाए-चश्मे-तर : भीगे नयनों का निवेदन, कातर दृष्टि; सैलाबे-ग़म : दुःखों की बाढ़; परेशां: चिंतित, व्याकुल; अदा : शैली; नूह: इस्लाम में हज़रत नूह, ईसाइयत में हज़रत नोहा, भारतीय मिथक शास्त्र में महर्षि मनु, जिनके संबंध में मिथक है कि उन्होंने महाप्रलय में एक विशाल नौका बना कर जीवन की संभावना को जीवित रखा; महशर: महाप्रलय; अय काश :कामना है कि; हुसैन: हज़रत इमाम हुसैन अ. स., जिन्होंने कर्बला के न्याय-युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी; ख़ंजर : क्षुरी; कोहे-तूर : मिथक के अनुसार, प्राचीन अरब के साम प्रांत में सीना नामक घाटी में स्थित एक कृष्ण-वर्णी पर्वत, भावांतर से अंधकार / अज्ञान का पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ. स. को ईश्वर के प्रकाश की छटा दिखाई दी थी; कोहे-नूर: प्रकाश-पर्वत; फ़क़ीरों : संतों, यहां हज़रत मूसा अ.स.; मुक़द्दर: सौभाग्य।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

वहम के शिकार...

उसका  ख़्याल  यूं  तो   बहुत  पारसा  न  था
फिर  भी  कभी  नज़र  से  वो  मेरी  गिरा  न  था

मासूम  सी  निगाह  गिरी  बर्क़  की  तरह
दिल  को  मिला  वो  ज़ख़्म  कि  सोचा-सुना  न  था

ज़रयाब  क्या  हुए  कि  निगाहें  बदल  गईं
मुफ़लिस  रहे  तो  कोई   उन्हें  पूछता  न  था

जिस  शख़्स  को  जम्हूर  ने  सर  पर  बिठा  लिया
इंसानियत  से  उसका  कोई  वास्ता  न  था

क़ातिल  किसी  फ़रेबो-वहम  के  शिकार  थे
मक़तूल  के  ख़िलाफ़  कोई  मा'मला  न  था

ले  आई  मौत  आज  हमें  जिस  मक़ाम  पर
था   आस्मां  ज़रूर  वहां  पर  ख़ुदा  न  था

बेताब  लौट  आए  मदीने  में  घूम  के
जिसके  लिए  गए  थे  उसी  का  पता  न  था  !

                                                                                              (2015)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पारसा:पवित्र; मासूम: अबोध; बर्क़ : तड़ित, आकाशीय विद्युत; ज़रयाब: अचानक समृद्धि पाने वाला; मुफ़लिस : निर्धन; शख़्स: व्यक्ति; जम्हूर: लोकतंत्र, लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रणाली, वास्ता : संबंध, लेना-देना; क़ातिल: हत्यारा/रे; फ़रेबो-वहम: छल/ षड्यंत्र और भ्रम; मक़तूल: हत् व्यक्ति, जिसका वध किया गया हो; मक़ाम: स्थल, स्थान; बेताब:व्यग्र, व्याकुल ।


रविवार, 6 दिसंबर 2015

...हज़ारों ख़्वाहिशें

हो  चुकी   तकरीर  वापस  जाएं  हम
या  तुम्हें  घर  छोड़  कर  भी  आएं  हम

तख़्ते-शाही  तक  उन्हें  पहुंचाएं  हम
और  फिर  ताज़िंदगी   पछताएं  हम

छोड़  कर  जम्हूरियत  के  हक़  सभी
ताजदारों  की  अना  सहलाएं  हम

मुफ़लिसी  की  मार  इतनी  भी  नहीं
आपके  इजलास  में  झुक  जाएं  हम

दाल  कल  से  आज  सस्ती  ही  सही
जेब  में  धेला  नहीं  क्या  खाएं  हम

दर्द  अपने  साथ  ले  कर  आइए
आपको  दिल  में  कहीं  बैठाएं  हम

एक  चादर  में  हज़ारों  ख़्वाहिशें
पांव  अपने  किस  तरह  फैलाएं  हम ?!

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तकरीर:भाषण; तख़्ते-शाही: राज-सिंहासन; ताज़िंदगी: सारी आयु, आजीवन; जम्हूरियत: लोकतंत्र; हक़:अधिकार; ताजदारों:मुकुट-धारियों, सत्ताधीशों; अना: अहंकार; मुफ़लिसी: निर्धनता; इजलास: राजसभा; धेला: भारत में 19वीं  शताब्दी तक प्रचलित मुद्रा की सबसे छोटी इकाई, आधा पैसा; ख़्वाहिशें: इच्छाएं ।


शनिवार, 5 दिसंबर 2015

चंद क़दमों का सफ़र...

हम  जहां  मंसूरियत  पर  आ  गए
कुछ  क़रीबी  दोस्त  भी  कतरा  गए

जी,  कहा  हमने  'अनलहक़'  ख़ुल्द  में
सूलियां  लेकर  फ़रिश्ते  आ  गए

अब  न  कोहे-तूर  ना  उसके  निशां
कौन  मानेगा  झलक  दिखला  गए ?

क्या  उन्हें  घर  पर  बुलाना  ठीक  है
सीन:  में  जो  कोह  तक  पिघला  गए  !

नाम  उनका  पूछते  कैसे,   मियां
जो  वफ़ा  के  ज़िक्र  पर  ग़श  खा  गए  !

ख़ूब  ग़ालिब  ने  हमें  इस्लाह  की
मयपरस्ती  का  सबक़  सिखला  गए

चंद  क़दमों  का  सफ़र  है  ज़िंदगी
आप  आधी  राह  में  पछता  गए  ?!

                                                                              (2015)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मंसूरियत: हज़रत मंसूर अ. स. का मत, अद्वैतवाद का इस्लामी स्वरूप; 'अनलहक़':'अहं ब्रह्मास्मि', हज़रत मंसूर अ.स. का उद्घोष, जिसके कारण उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था; ख़ुल्द:स्वर्ग; फ़रिश्ते: देवदूत, मृत्युदूत; कोहे-तूर: अरब की सीना घाटी में स्थित 'तूर' (काला) नामक एक मिथकीय पर्वत, मिथक के अनुसार वहां हज़रत मूसा अ.स. को अल्लाह ने अपनी झलक दिखाई थी; निशां : चिह्न; कोह: पर्वत; वफ़ा:निष्ठा; ज़िक्र:उल्लेख; ग़ालिब:हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; इस्लाह:परामर्श, शिक्षा; मदिरापान; सबक़:पाठ।

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

...वक़्त कम है

रग़ों   में  अब  लहू  की  रफ़्त  कम  है
कि  हममें  आजकल  कुछ  ज़ब्त  कम  है

मिला  है  मुल्क  को  नायाब  राजा
चुग़द  ज़्यादह  मगर  बदबख़्त  कम  है

न  जाने  किस  तरह  ग़ुंचे  खिलेंगे
इधर  बादे-सबा  की  गश्त  कम  है

न  आओ  गर  तुम्हें  फ़ुरसत  नहीं  है
हमारे  पास  भी  तो  वक़्त  कम   है

हमीं  बेहतर  ख़ुदा  के  आशिक़ों  में
इबादत  में  हमारी  ख़ब्त  कम  है

बुलाने  को  बुला  तो  लें  ख़ुदा  को
मगर  उनसे  हमारा  रब्त  कम  है

हुई  हों  ग़लतियां  हमसे  हज़ारों
गुनाहे-ज़ीस्त   में  तो  दस्त  कम  है !

                                                                                (2015)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रग़ों: रक्त-वाहिनियों; लहू : रक्त; रफ़्त:गति; ज़ब्त:सहिष्णुता; नायाब: दुर्लभ; चुग़द:मूढ़, उलूक, मंदबुद्धि;  बदबख़्त: अभागा; 
ग़ुंचे: कलिकाएं; बादे-सबा: प्रातःसमीर; गश्त: आवागमन;  गर:यदि; हमीं:हम ही; बेहतर : अधिक श्रेष्ठ; इबादत:पूजा; ख़ब्त :मनोविकार; उन्मत्तता; रब्त:संपर्क, परिचय; गुनाहे-ज़ीस्त :जन्म लेने का अपराध, जीवनापराध; दस्त:हाथ, हस्त।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

आबलों की ज़ुबां ...

ख़ुद  को  आतिश-फ़िशां  समझते  हो
आबलों       की  ज़ुबां     समझते  हो  ?

चंद         सरमाएदार      चोरों     को
आप       हिन्दोस्तां       समझते  हो  ?

है    ग़ज़ब      आपकी     समझदारी
शाह    को    मेह्रबां        समझते  हो !

ग़ैब  से    'मन  की  बात'   कहते  हो
मुफ़लिसी   के   निशां   समझते  हो  ?

हर  तरफ़    मार-काट,    बदअमनी
क्या   इसी  को  अमां   समझते  हो  ?

हफ़्त-रोज़ा    जुदाई  है,   मोहसिन 
क्यूं   इसे     इम्तिहां   समझते  हो  ?!

हम    बसे  हैं   हुज़ूर  के    दिल  में
आप     जाने  कहां     समझते  हो  !

                                                                                (2015)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: आतिश-फ़िशां:ज्वालामुखी; आबलों : छालों; ज़ुबां : भाषा; चंद : कुछ, चार; सरमाएदार : पूंजीपति; ग़ज़ब : विचित्र; मेह्रबां : कृपालु; ग़ैब : अदृश्य स्थान, आकाश; मुफ़लिसी : निर्धनता, वंचन; निशां : चिह्न ;   बदअमनी : अशांति; अमां:सुरक्षा; हफ़्त-रोज़ा : सप्त-दिवसीय; जुदाई:वियोग; इम्तिहां : परीक्षा;