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सोमवार, 30 मार्च 2015

सलीक़ा सीख लीजे...

तुम्हें  गर  शौक़  है  दूरी  बढ़ाने  का
हमें  है  शौक़  ख़ुद  को  आज़माने  का

अदा  में  आपकी  कुछ  बचपना-सा  है
सलीक़ा  सीख  लीजे  दिल  लगाने का

हज़ारों  बार  वो  रूठा  किए  हमसे
नहीं  सीखा  हुनर  लेकिन  मनाने  का

किया  दावा  वफ़ा  का  आपने  हर  दिन
तहैया   कीजिए  वादा  निभाने  का

हवाओं  के  इरादों  पर  नज़र  रखिए
करेंगी  हर  जतन  शम्'.अ  बुझाने  का

बग़ावत  के  लिए  तैयार  रहिएगा
अगर  है  हौसला  कुछ  कर  दिखाने  का

इबादत  इश्क़  की  मानिंद  की  हमने
न  होगा  कुफ़्र  हमसे  सर  झुकाने  का  !

                                                                             (2015)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; अदा: व्यवहार; सलीक़ा: ढंग; हुनर: कौशल; वफ़ा: निष्ठा; तहैया: निश्चय; वादा: संकल्प; जतन: यत्न; बग़ावत: विद्रोह; इबादत: पूजा; मानिंद: भांति; कुफ़्र: अधर्म, पाप ।

शनिवार, 28 मार्च 2015

रोज़गार खो बैठे !

तलाशे-गुल  में  रहे  औ'  बहार  खो  बैठे
हम  अपने  दिल  प'  सभी  एतिबार  खो  बैठे

हरेक  मोड  पे  पाई  नवाज़िशें  उसकी
मिला  नसीब  मगर  बार-बार  खो  बैठे

उन्हें  ख़बर  कहां  कि  किस  गली  से  कब  गुज़रे
कहां-कहां  ग़रीब  रोज़गार  खो  बैठे

किया  ख़राब  जिन्हें  क़ुर्बते-सियासत  ने
तमाम  दोस्त  यार  ग़मगुसार  खो  बैठे

अजीब  रंग  हैं  इस  दौर में  वफ़ाओं  के
सुकूं  ख़रीद  लिया  तो  क़रार  खो  बैठे

हमें  क़ुबूल  नहीं  'आप'का  करिश्मा  भी
ज़ुबां  पे  आप  अगर  इख़्तियार   खो बैठे

ये कुर्सियों  की  सिफ़्'अत  है  कि  आदमी  का  ज़ेह्न
हुए  जो  शाह  यहां  वो  वक़ार  खो  बैठे

सरे-नक़ाब  किसी   चांद  पर  नज़र  करके
ख़ुदा  के  सामने  अपना  मयार  खो  बैठे !

                                                                                     (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तलाशे-गुल: पुष्प की खोज; एतिबार: विश्वास; नवाज़िशें: कृपाएं, देन; नसीब: सौभाग्य; क़ुर्बते-सियासत: राजनीतिक निकटता; ग़मगुसार: दुःख में सांत्वना देने वाले; दौर: काल-खंड; वफ़ाओं: आस्थाओं; सुकूं: संतोष; क़रार: मानसिक स्थायित्व; क़ुबूल: स्वीकार; करिश्मा: चमत्कार; ज़ुबां: वाणी; इख़्तियार: अधिकार, नियंत्रण; सिफ़्'अत: गुण; ज़ेह्न: मस्तिष्क; वक़ार: प्रतिष्ठा; सरे-नक़ाब: मुखावरण के नीचे; मयार: समुचित स्थान । 

गुरुवार, 26 मार्च 2015

नामो-निशां से गए !

आप  तो  सिर्फ़  अपनी  ज़ुबां  से  गए
रोज़   दो-चार   दहक़ान    जां  से  गए

है  अज़ल  से  यही  इश्क़  का  क़ायदा
बदगुमां   जो  हुए,  दो - जहां  से   गए 

लुट गए लोग  हमसे मिला कर  नज़र
दीद:वर    अपने    तीरो-कमां  से  गए 

चाहती   हैं     बहारें    हमें    इस  क़दर
फूल   खिलते  गए   हम  जहां  से  गए

कोई किरदार दिल तक न पहुंचा  कभी
आप    जबसे    मिरी   दास्तां   से  गए

आपके   नूर   की     बारिशें    जब  हुईं
सैकड़ों   ग़म    हमारे   मकां     से  गए

रैयतें    जब  कभी   होश  में    आ  गईं 
ज़ारो-फ़र् औन   नामो-निशां  से  गए !

                                                                       (2015)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  ज़ुबां: वचन;  दहक़ान: कृषक (बहुव.);  जां: प्राण;  अज़ल: अनादिकाल;  क़ायदा: नियम;  बदगुमां: दिग्भ्रमित;  दो-जहां: इहलोक-परलोक;  दीद:वर: आंख वाले, दृष्टि से वार करने वाले;  तीरो-कमां: तीर-कमान;  किरदार: (कथा का) पात्र, चरित्र; दास्तां: कथा, आख्यान; नूर: प्रकाश;  मकां: गृह; रैयतें: प्रजा (बहुव.); ज़ारो-फ़र् औन:ज़ार और फ़र् औन, ज़ार रूस के और फ़र् औन मिस्र के प्राचीन, निरंकुश और अत्याचारी शासक; नामो-निशां: स्मृति-चिह्न । 

मंगलवार, 24 मार्च 2015

बेसबब सर झुकाना...

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज 'साझा आसमान' की 500 वीं ग़ज़ल आपकी ख़िदमत में पेश कर रहा हूं। इस मुक़ाम तक पहुंचना आपके त'अव्वुन और मोहब्बत के बिना मुमकिन नहीं था।
तहे-दिल से, आप सभी क़ारीन का शुक्रिया, मेहरबानी, करम, नवाज़िश...
ग़ज़ल पेश है:

दोस्तों  को  भुलाना  बुरी  बात  है
राह  में  छोड़  जाना  बुरी  बात  है

ख़्वाब झूठे  दिखाना  बुरी  बात  है
ख़ूने-दहक़ां  जलाना  बुरी  बात  है

वक़्त  यूं  तो  हमें  आप  देते  नहीं
ख़्वाब में भी न आना  बुरी बात है

अर्श पर आशिक़ों को चढ़ाना ग़लत
फिर  ज़मीं पर गिराना बुरी बात  है

आपकी  हर  शरारत  हसीं  ही  सही
हर  किसी को सताना  बुरी  बात  है

तोड़ना दिल अगर आपका शौक़  है
दर्द  से    छटपटाना    बुरी  बात  है

शाह  है  शख़्स  वो  देवता  तो  नहीं
बेसबब  सर  झुकाना  बुरी  बात  है

शौक़ से  जाइए घर  ख़ुदा  के  मगर
लौट कर फिर न आना बुरी बात  है ! 

                                                                  (2015)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ूने-दहक़ां: किसान/मज़दूर का रक्त; अर्श: आकाश; शख़्स: व्यक्ति; बेसबब: अकारण । 

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

... इज़्हार का मौसम !

अभी  इज़्हार  का  मौसम  नहीं  है
नई  तकरार  का  मौसम  नहीं  है

लगाएं क्या गले से हम किसी  को 
विसाले-यार  का  मौसम  नहीं  है

नए   हथियार   लेकर    आइएगा
नज़र के  वार का मौसम  नहीं  है 

तिजारत आप दिल की क्या करेंगे
यहां  बाज़ार   का  मौसम  नहीं  है

तरक़्क़ी   के    कई   वादे   हुए  थे
कहीं  रफ़्तार  का  मौसम  नहीं  है

लगा  है   ख़ूं  ज़ुबां  पर  दोस्तों  की
किसी से प्यार का मौसम  नहीं  है

कहेंगे नज़्म तुम पर फिर कभी हम
दिले-बेज़ार   का   मौसम  नहीं  है

खुले     ख़ंजर     ज़ुबानें    ढूंढते  हैं
कड़ी  गुफ़्तार  का  मौसम  नहीं  है

सिपहसालार  सोचें  शाह  के  अब
हमारी  हार  का  मौसम   नहीं  है

मियां मुफ़्ती ! ज़रा सर को संभालो
हरी  दस्तार  का  मौसम  नहीं  है  !

                                                                (2015)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: इज़्हार:अभिव्यक्ति; तकरार: विवाद; विसाले-यार: प्रिय से मिलन; तिजारत: व्यापार; तरक़्क़ी:प्रगति; वादे: संकल्प; रफ़्तार: गति;  ख़ूं: रक्त; नज़्म: गीत; दिले-बेज़ार: व्यथित हृदय; ख़ंजर: चाक़ू; गुफ़्तार: बातचीत; सिपहसालार: सेनापति; मुफ़्ती: धर्माधिकारी, धार्मिक व्यवहार पर राय देने वाला; दस्तार: पगड़ी । 


सोमवार, 16 मार्च 2015

उनका असलहा होगा !

किसी   ने  कुछ  सुना  होगा  किसी  ने  कुछ  कहा  होगा
ख़बर  यूं  ही  नहीं  बनती,  कहीं  कुछ  तो  रहा  होगा  !

त'अल्लुक़  तोड़  कर  तुमसे  बहुत  कुछ  खो  दिया  हमने
हमें  खो  कर  मगर  तुमने  कहीं  ज़्यादा  सहा  होगा

परेशां      हम   अकेले   ही    नहीं  वादाख़िलाफ़ी  से
लहू  उस  बेवफ़ा  की  आंख   से  भी   तो  बहा  होगा

किया  था  आपको  आगाह  हमने  शाह  की  ख़ू  से
यक़ीं   के    टूटने   का  हादसा    अब  बारहा   होगा

अवामे-हिंद   हैं  हम,  जब  बग़ावत  को  खड़े  होंगे
हमारे    हाथ  होंगे   और  उनका    असलहा  होगा  !

                                                                                            (2015)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: त'अल्लुक़: संबंध; परेशां: व्यथित; वादाख़िलाफ़ी: वचन टूटना; बेवफ़ा: वचन तोड़ने वाला; आगाह: पूर्व-सूचित; ख़ू: स्वभाव, व्यक्तित्व; यक़ीं: विश्वास; हादसा: दुर्घटना; बारहा: बार-बार; अवामे-हिंद: भारत के जन-सामान्य; बग़ावत: विद्रोह; असलहा: शस्त्र-भंडार ।






मंगलवार, 10 मार्च 2015

हमारे बाद का मौसम !

किसी  के  दर्द  का  मौसम,  किसी  की  याद  का  मौसम
ग़मे-दुनिया  से      हैरां  है     दिले-नाशाद     का  मौसम

न   बुलबुल   के   तराने   हैं,   न   है   परवाज़  शाहीं  की
चमन  में  आ  गया  जैसे    किसी  सय्याद   का  मौसम

सियासत  की  नवाज़िश  ने  किसी  घर  को  नहीं  बख़्शा
कहीं  एहसान  की    बारिश,   कहीं    फ़र्याद  का   मौसम

हरइक   शै  नाचती  है    उंगलियों  पर    तिफ़्ले-नादां  के
कहां   इस  दौर  के   जलवे,  कहां    अज्दाद  का   मौसम

उधर   अज़हद  अमीरी   है,    इधर  हैं   रिज़्क़  के    लाले
मुबारक   हो    मुरीदे-शाह     को    अज़्दाद    का  मौसम

किसी  की  जान  ले  लें   या   किसी  का  घर  जला  डालें
मुआफ़िक़  है    तुम्हारी  फ़ौज  के   इफ़्साद  का   मौसम 

हम  अपनी  नस्ल  के  हक़  में  लड़ेंगे  आख़िरी  दम  तक
उमीदों   से     सजा   होगा     हमारे   बाद     का    मौसम !

                                                                                               (2015)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़मे-दुनिया: संसार का दुःख; हैरां: चकित; दिले-नाशाद: दुःखी हृदय; तराने: गीत; परवाज़: उड़ान; शाहीं: एक मिथकीय पक्षी; चमन: उपवन; सय्याद: बहेलिया; नवाज़िश: देन; एहसान: अनुग्रह; फ़र्याद: याचना; शै: अस्तित्वमान वस्तु; तिफ़्ले-नादां: अबोध शिशुओं; जलवे: प्रदर्शन, दिखावे; अज्दाद: बाप-दादे, पूर्वजों; अज़हद: अतिशय, अपार; रिज़्क़: दो समय का भोजन; लाले: अभाव; मुबारक: शुभ; मुरीदे-शाह: शासक के प्रशंसकों; अज़्दाद: विरोधाभासों, परस्पर विरोधी चीज़ों; मुआफ़िक़: अनुकूल; इफ़्साद: उपद्रवों; नस्ल: आगामी पीढ़ी; हक़: पक्ष ।

शनिवार, 7 मार्च 2015

नवाले-यार का मौसम !

ख़्याले-यार  का  मौसम
विसाले-यार  का  मौसम

बुरा  हो  रस्मे-हिज्रां  का
मलाले-यार  का  मौसम

हिजाबों  से  परेशां  है
जमाले-यार  का  मौसम

बड़ा  ख़ामोश  क़ातिल  है
सवाले-यार  का  मौसम

उसूलों  की  कमाई  है
नवाले-यार  का  मौसम

हुआ  फिर  तूर  पर  तारी
कमाले-यार  का  मौसम

पड़ेगा  शाह  पर  भारी
जलाले-यार  का  मौसम !

                                                 (2015)

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़्याले-यार: प्रिय का ध्यान; विसाल: मिलन; रस्मे-हिज्रां: वियोग की प्रथा; मलाल: खेद; हिजाब: मुखावरण; जमाल: यौवन; सवाले-यार: प्रिय के प्रश्न; उसूल: सिद्धांत; नवाले-यार: प्रिय की कृपा, अनुग्रह; तूर: मिस्र के शाम क्षेत्र में एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. को अल्लाह की झलक मिली थी; तारी: छा जाना; कमाल: चमत्कार; जलाल: प्रताप, तेज । 

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

हाथ मसलता मौसम...

वक़्त-बे-वक़्त  बदलता  मौसम
धूप  की  याद  में  जलता  मौसम

कर  रहा  है  जफ़ा  ग़रीबों  से
हाथ  से  रोज़  निकलता  मौसम

है  रवानी  पसंद  आंखों  को
अश्क  बन-बन  के  पिघलता  मौसम

तिफ़्ले-नादान  की   तरह  हमसे
रूठ  जाता  है  संभलता  मौसम 

छोड़  बैठा  बहार  का  दामन
रह  गया  हाथ  मसलता  मौसम
 
लड़खड़ा  जाए  ना  कहीं  ईमां
तेग़  की  धार  प'  चलता  मौसम

रोज़  बद्कार  हुआ  जाए  है
शाह  के  रंग  में  ढलता  मौसम !

                                                              (2015)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अनीति, अन्याय; रवानी: गति; तिफ़्ले-नादान: अबोध शिशु; बहार: बसंत; दामन: आंचल; 
ईमां: आस्था; तेग़: तलवार; बद्कार: कुकर्मी ।