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गुरुवार, 8 अगस्त 2013

क्या मज़ा ईद यूं मनाने से ?

चांद     देखा     नहीं     ज़माने   से
क्या    मज़ा    ईद    यूं  मनाने  से

ग़ैर   के   हाथ   भेजते   हैं  सलाम
आ   ही   जाते   किसी   बहाने  से

ये  अमल   दोस्ती  में   ठीक  नहीं
बाज़   आएं   वो   दिल  दुखाने  से

ईद   मिलने    सुबह   से    बैठे  हैं
उनको    फ़ुर्सत   नहीं  ज़माने  से

आप  कहिए  के  किसने  रोका  है
पास   आ   के   क़बे    मिलाने  से

बा-वुज़ू  हैं  मियां  गले  मिल  लें
कुछ  न  होगा  क़रीब  आने  से  !

                                           ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़माने से: लम्बे समय से; ग़ैर: पराए; अमल: व्यवहार; बाज़ आना: दूर रहना;  क़बे: कंधे; बा-वुज़ू: स्वच्छ, शुचित। 

ख़ुदा याद आता है

करूं  मैं  याद  तुझे  तो  ख़ुदा  याद  आता  है
मगर ये हद  है  के  तू बारहा  याद  आता  है

हुआ  रक़ीब  मेरा   वो   तो    बा-ईमान  हुआ
के  बद्दुआ  में  भी  नामे-ख़ुदा  याद  आता  है

अज़ां-ए-फ़ज़िर से अज़ां-ए-इशा तक  मुझको
वादिए-सीन:  का  वो  मोजज़ा  याद  आता  है

तेरा  वो  सोज़े-सुख़न  वो  तेरा  अंदाज़े-बयां
हरेक  लफ़्ज़  पे  सौ  सौ  दफ़ा  याद  आता  है

सजा   जहाज़    मेरा     आ  गए  फ़रिश्ते  भी
सफ़र  के  वक़्त  तेरा  रास्ता  याद  आता  है !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

अर्थ-संदर्भ: बारहा: बार-बार; रक़ीब: शत्रु; बा-ईमान: आस्थावान;   बद्दुआ: अ-शुभेच्छा; अज़ां-ए-फ़ज़िर: सूर्योदय-पूर्व की अज़ान; दिन की पांचवीं और अंतिम अज़ान; वादिए-सीन: का  वो  मोजज़ा : सीना की घाटी में हज़रत मूसा अ.स. की पुकार पर ख़ुदा का जलवा होने का चमत्कार; सोज़े-सुख़न: साहित्यिक समझ; वक्तृत्व की शैली;   लफ़्ज़: शब्द;  जहाज़: अर्थी; फ़रिश्ते: मृत्यु-दूत;