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बुधवार, 31 दिसंबर 2014

मन्नतों का जवाब...


शाह   जब    बे-नक़ाब    होते हैं
देर   तक   दिल  ख़राब   होते हैं

ख़ार  हम    बाज़ वक़्त   होते हैं
यूं    अमूमन    गुलाब    होते हैं

कौन  चाहत   करे  फ़रिश्तों  की
लोग    भी    लाजवाब    होते हैं

आप   आंखें  खुली   रखा  कीजे
ख़्वाब    ख़ाना-ख़राब    होते हैं

दर्दे-दिल  मुफ़्त  में  नहीं  मिलते
मन्नतों     का    जवाब     होते हैं

ताज  सर   पर  नहीं  रहा   करते
ज़ुल्म   जब   बे-हिसाब    होते हैं

कोई  बतलाए,  कब   करें  सज्दा
होश  में   कब    जनाब   होते हैं ?

                                                               (2014)

                                                        -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: बे-नक़ाब: अनावृत्त; ख़ार: कंटक; बाज़ वक़्त: कभी-कभार, समयानुसार; अमूमन: सामान्यतः; फ़रिश्तों: देवदूतों; 
ख़ाना-ख़राब: यायावर, यहां-वहां भटकने वाले; दर्दे-दिल: मन की पीड़ा; मन्नतों: प्रार्थनाओं; ज़ुल्म: अत्याचार; सज्दा: प्रणिपात;   
जनाब: श्रीमान, महोदय, यहां ईश्वर के संदर्भ में । 

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

गहरा कुहासा ...

यूं  ज़ुबां  फिसली  तमाशा  हो  गया
हर  हक़ीक़त  का  ख़ुलासा  हो  गया

बाम  पर  आकर  खड़े  वो  क्या  हुए
चांद  का  चेहरा  ज़रा-सा  हो  गया

ख़्वाब  में  तस्वीर  उनकी  देख  ली
चश्मे-तश्ना  को  दिलासा  हो  गया

दाम    आटे-दाल   के    इतने  बढ़े
क़र्ज़  में  नीलाम  कासा  हो  गया

शाह  मुजरिम  है  गुलों  के  क़त्ल  का
तितलियों  पर    इस्तगासा   हो  गया

उफ़ !  निज़ामे-स्याह  की  बदकारियां
अर्श  तक    गहरा  कुहासा    हो  गया

मज़हबी  तकरीर  सुन  कर  ख़ुल्द  में
दर्दे-सर    फिर    बेतहाशा    हो  गया  !

                                                              (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुबां: जिव्हा, शब्द; हक़ीक़त: यथार्थ, सच्चाई; ख़ुलासा: उद्घाटन; बाम: वातायन; चश्मे-तश्ना: तृषित नयन; दिलासा: सांत्वना, आश्वस्ति; दाम: मूल्य; क़र्ज़: ऋण; कासा: भिक्षा-पात्र; मुजरिम: अपराधी; गुलों: पुष्पों; क़त्ल: हत्या; इस्तगासा: वाद; निज़ामे-स्याह: अंधेर का राज्य; बदकारियां: कुकर्म; अर्श: आकाश; मज़हबी: धार्मिक; तकरीर: भाषण; ख़ुल्द: स्वर्ग; दर्दे-सर: सिर की पीड़ा; बेतहाशा: अत्यधिक, असीम ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

ये दौरे-दहशत...

न  दिल  रहेगा, न  जां  रहेगी
रहेगी      तो     दास्तां  रहेगी

है  वक़्त  अब  भी  निबाह  कर  लें
तो  ज़िंदगी  मेह्रबां  रहेगी

तुम्हारे  आमाल  तय  करेंगे
कि  रूह  आख़िर  कहां  रहेगी

थमा  सफ़र  जो  कभी  हमारा
ग़ज़ल  हमारी  रवां  रहेगी

मिरे  मकां  का  तवाफ़  करना
कि  हर  तमन्ना  जवां  रहेगी

ये  दौरे-दहशत  तवील  होगा
जो  चुप  अभी  भी  ज़ुबां  रहेगी

उड़ेगी  जब  ख़ाक  ज़र्रा-ज़र्रा
फ़िज़ा  में  अपनी   अज़ाँ  रहेगी !

                                                         (2014)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दास्तां: आख्यान, कथा; निबाह: निर्वाह; मेह्रबां: कृपालु; आमाल: आचरण; रवां: प्रवाहमान; मकां: समाधि, क़ब्र; तवाफ़: परिक्रमा; तमन्ना: अभिलाषा; जवां: युवा; दौरे-दहशत: आतंक का समय; तवील: विस्तृत; ज़ुबां: जिव्हा; ख़ाक: चिता की भस्म; ज़र्रा-ज़र्रा: कण-कण; फ़िज़ा: वातावरण । 

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

ख़ुद को नवाज़ दें...

बस,  रिश्त:-ए-अज़ान  बचा  है  जनाब  से

दामन  छुड़ा  रहे  हैं  वो:  ख़ाना-ख़राब  से


मसरूर  रहे   हुस्ने-शह्र  में    कभी-कभी 

हालांकि,  दूर-दूर  रहे    हम     शराब  से


उन  चश्मे-ख़ुशमिज़ाज  के  अंदाज़  देखिए

करते  हैं      छेड़-छाड़      दरारे-नक़ाब   से


पर्दा   किए  हुए  हैं    ज़माने  से    आजकल

लेकिन  न  बच  सके  वो  तिलिस्मे-सराब  से



ज़र्रों  की   अहमियत    जनाब  भूल  गए  हैं

जबसे  मिले    ख़्याल   किसी  आफ़ताब  से



यूं  भी  हुए  शिकारे-अना  हम  विसाल  में

मस्ला  सुलझ  सका  न  किसी  भी  किताब  से



ख़ुद  का  रहे  ख़्याल  न  सज्दे  की  फ़िक्र  हो

गर  हो  कभी    नमाज़     हमारे  हिसाब  से


उनका  निज़ाम,  उनकी  अना,  उनके  फ़ैसले

ख़ुद  को  नवाज़  दें  न  ख़ुदा  के  ख़िताब  से  !

                                                                               (2014)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिश्त:-ए-अज़ान: अज़ान  का संबंध; दामन: पल्लू, संबंध;  ख़ाना-ख़राब:गृह-विहीन, भटकने वाला; मसरूर: मदमत्त; हुस्ने-शह्र: नगर का सौन्दर्य; चश्मे-ख़ुशमिज़ाज: प्रसन्न-स्वभाव नयन; अंदाज़: भाव-भंगिमा; दरारे-नक़ाब: मुखावरण की संधि, बुर्क़े में देखने के लिए खुला स्थान; पर्दा: दूरी बनाना; तिलिस्मे-सराब: मृग-मरीचिका की माया; ज़र्रों: कणों; अहमियत: महत्ता; जनाब: महोदय, श्रीमान; ख़्याल: विचार; आफ़ताब: सूर्य, प्रसिद्ध व्यक्ति; शिकारे-अना: अहंकार-पीड़ित; विसाल: साक्षात्कार; मस्ला: समस्या; किताब: धर्म-ग्रंथ अथवा न्याय की पुस्तक; सज्दे: प्रणिपात; गर: यदि; निज़ाम: शासन; अना: अहंकार; नवाज़ना: उपकृत करना, देना; ख़िताब: उपाधि, पुरस्कार ।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

उन्हें जीना सिखा दें !

कहीं  हम  ही  बुरे  हों,  तो  बता  दें
कहीं  ख़ुद  में  कमी  हो  तो  छुपा  दें

हमारी  बेकसी  में  क्या  नया  है
समझ  लें  तो  रक़ीबों  को  सुना  दें

चलो, ये  ही  सही, अब  आप  हमको
हमेशा  के  लिए  दिल  से  हटा  दें

हमें  मत  भूल  कर  भी  आज़माना
न  हो  ऐसा  कि  हम  करके  दिखा  दें

हुकूमत  आपकी  है,  आप  जानें
भुला  दें,  या  सभी  वादे  निभा  दें

न  चाहें  नूर  से  गर  सामना  तो
चराग़े-दिल  हमारा  भी  बुझा  दें

 न  हों  बेज़ार  नाहक़  ज़िंदगी  से
कहें  तो  हम  उन्हें  जीना  सिखा  दें !

                                                              (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेकसी: असहायता; रक़ीबों: प्रतिद्वंदियों; नूर: प्रकाश, आत्म-बोध; गर: यदि; चराग़े-दिल: हृदय-दीप; बेज़ार: हतोत्साह, निराश; नाहक़: निरर्थक, व्यर्थ ।

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

उम्मीदें सुब्हे-नौ की...


ख़ुदा को तूर ने रोका नहीं है
मगर अब मोजज़ा होता नहीं है

हमारा दिल किया वो: चाहता है
जहां ने जो कभी सोचा नहीं है

ग़लत है ख़्वाब पर क़ब्ज़ा जमाना
हमारे बीच यह सौदा नहीं है

हमारे दौर की मुश्किल यही है
कि इंसां टूट कर रोता नहीं है

बना है बाग़बां जो इस चमन का
दरख़्ते-गुल कहीं बोता नहीं है

कभी बा-ज़र्फ़ इंसां बेकसी में
तवाज़ुन ज़ेह्न  का खोता नहीं है

किए थे शाह ने वादे हज़ारों
भुलाना क्या उन्हें धोखा नहीं है ?

बचा रखिए उमीदें सुब्हे-नौ की
मुक़द्दर हिज्र में सोता नहीं है

चुकाना चाहते थे क़र्ज़ दिल का
हमारे पास अब मौक़ा नहीं है !

                                                                     (2014)

                                                              -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: तूर: मिस्र का एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा की एक झलक देखी थी; मोजज़ा: चमत्कार; क़ब्ज़ा: आधिपत्य; बाग़बां: माली; चमन: उद्यान; दरख़्ते-गुल: पुष्प-वृक्ष; बा-ज़र्फ़: गंभीर, धैर्यवान; बेकसी: असहायता; तवाज़ुन: संतुलन; ज़ेह्न: मस्तिष्क; सुब्हे-नौ: नया प्रभात; मुक़द्दर: भाग्य; हिज्र: वियोग । 

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

ख़ुदा की हैसियत पाना...

तड़पना  और  तड़पाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता
ग़रीबों  पर  सितम  ढाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

ज़रा-सी  ही  जहालत  में  कई  घर  टूट  जाते  हैं
मगर  अफ़वाह  फैलाना  किसे  अच्छा   नहीं  लगता

जहां  पर  मैकदे  में  वाइज़ों  को  मुफ़्त  मिलती  हो
वहां  मदहोश  हो  जाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

अजब  क्या  है  सियासतदां  अगर  ज़रदार  हो  जाएं
वतन  को  लूट  कर  खाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

हज़ारों  बार  लुट  कर  भी  वफ़ा  का  हाथ  थामे  हैं
हमारे  ख़्वाब  में  आना   किसे  अच्छा  नहीं  लगता

हमारी  साफ़गोई  से  भले  ही  कांप  जाते  हों
हमें  कमज़र्फ़  बतलाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

बिछा  है  शाह  क़दमों  के  तले  सरमाएदारों  के 
मगर  ख़ुद्दार  कहलाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

लुटाते  जा  रहे  हैं  बाप  की  दौलत  समझ  कर  सब
ख़ुदा  की  हैसियत  पाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता !

                                                                                              (2014)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सितम: अत्याचार; जहालत: बुद्धिहीनता, अ-विवेक; मैकदे: मदिरालय; वाइज़ों: धर्मोपदेशकों; सियासतदां: राजनेता; 
ज़रदार: स्वर्णशाली, समृद्ध; वफ़ा: निष्ठा; साफ़गोई: स्पष्टवादिता; कमज़र्फ़: अ-गंभीर; तले: नीचे; सरमाएदारों: पूंजीपतियों; 
ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; हैसियत: प्रास्थिति ।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मेरी परेशानी !


उन्हें  मेरी    परेशानी   समझ  में  आ  नहीं   सकती
निगाहों  की  पशेमानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

ख़ुदा  के  नाम  पर   तुमने    फ़रिश्ते  क़त्ल  कर  डाले
ख़ुदा  को   ही  ये  क़ुर्बानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

उन्हें   आज़ाद   रहने    दो   अगर   परवाज़   प्यारी है
परिंदों  को  निगहबानी   समझ  में  आ  नहीं   सकती

इसे   अब  कुफ़्र  कहिए,   जब्र  कहिए  या  ख़ता  कहिए
हमें    ये   चाल   शैतानी    समझ  में  आ  नहीं   सकती

जिन्हें  पाला  कभी  तुमने  उन्हीं  ने   घर  जला  डाला
तुम्हारी  आज   हैरानी   समझ  में    आ  नहीं  सकती

जिन्हें  फ़िरक़ापरस्ती  से  मिला   हो  शाह  का  रुतबा
उन्हीं  की  फ़िक्रे-बेमानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

ज़ुबां  पर   ज़ह्र  हो   जिनकी   नज़र  में  वहशतें  तारी
उन्हें   इस्लाहे-क़ुर'आनी   समझ  में  आ  नहीं  सकती

ख़ुदा  के  नूर  से  ख़ाली    तुम्हारे    मीरवाइज़  को
हमारी  सुर्ख़  पेशानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती !

                                                                                   (2014)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पशेमानी: लज्जा; फ़रिश्ते: देवदूत; क़ुर्बानी: बलि; परवाज़: उड़ान; निगहबानी: सतर्कता; कुफ़्र: अधर्म; जब्र: बलात् कृत्य; 
ख़ता: अपराध; चाल: षड्यंत्र; दानवी; हैरानी: आश्चर्य; फ़िरक़ापरस्ती: सांप्रदायिकता; रुतबा: पद; फ़िक्रे-बेमानी: निरर्थक, दिखावे की चिंता; ज़ह्र: विष; वहशतें: क्रूरता; तारी: प्रच्छन्न; इस्लाहे-क़ुर'आनी: पवित्र क़ुर'आन का मार्गदर्शन; नूर: प्रकाश; मीरवाइज़: प्रधान धर्मोपदेशक; सुर्ख़: उत्तप्त, उज्ज्वल; पेशानी: भाल। 

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

हमदम से हारे हैं !

हम  जब  भी  हारे,  मौसम  से  हारे  हैं
बिछड़े  अपनों  के  मातम  से  हारे  हैं

सहमे-सहमे    से    लगते  हैं  दरवाज़े
मेहमानों  के    रंजो-ग़म  से   हारे   हैं

गुलदस्तों  से,  पुरसिश  से,  हमदर्दी  से
दिल  के  ज़ख्म  कभी  मरहम  से  हारे  हैं ?

अपने-अपने     क़िस्से  हैं      रुसवाई  के 
हम  भी  तो  अक्सर  हमदम से  हारे  हैं !

गुमगश्ता  हैं  ख़्वाब  सफ़र  की  गर्दिश  में
तक़दीरों   के    पेचो - ख़म  से     हारे  हैं

कितने  ही    सरमायादारों   के     लश्कर 
मेहनतकश  हाथों   के    दम  से   हारे  हैं

ताजिर  आदमख़ोर  लहू  पी  जाते  हैं
ग़ुरबा  इस  क़ातिल  आलम  से  हारे  हैं !
                                                                           
                                                                                    (2014) 

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मातम: शोक; रंजो-ग़म: खेद और दुःख; पुरसिश: पूछताछ; हमदर्दी: सहानुभूति; रुसवाई: अपमान; हमदम: साथी; 
गुमगश्ता: भटके हुए;  गर्दिश: भटकाव; पेचो - ख़म: मोड़ और जटिलता; सरमायादारों: पूंजीपतियों; लश्कर: सेनाएं; 
ताजिर: व्यापारी; आदमख़ोर: नरभक्षी; ग़ुरबा: निर्धन (बहुव.); आलम: परिस्थिति । 

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

शाह का फ़र्ज़ी करिश्मा...

न  दिल  टूटे  न  दीवारें  तो   वो   क्या  था  जो  टूटा  है
सियासत    के   दयारों   में    भरोसा   था  जो  टूटा  है

हवाएं   रो  रही  हैं,    चांद  भी   कुछ    ग़मज़दा-सा  है
किसी   मासूम  बच्चे  का    खिलौना  था   जो  टूटा  है

अदावत  भी  तुम्हीं  ने  की,  शिकायत  भी  तुम्हीं  को  है
तुम्हारा  दिल   सलामत  है,  हमारा  था   जो   टूटा   है

हमारा   दिल    दिखाते  घूमते  थे    आप    दुनिया   में
उसी  से   आपका  भी  तो    गुज़ारा   था,   जो   टूटा  है

न   मंहगाई   हुई  है  कम,  न  ज़र  ही   हाथ  में  आया
तुम्हारे  शाह  का    फ़र्ज़ी    करिश्मा  था,   जो  टूटा  है

हमें  वो    ग़र्क़   कर  देता,    अगर  मौक़ा  मिला  होता
कहीं   तूफ़ान   के   दिल   में   इरादा  था,    जो  टूटा  है

निज़ामे-हिंद    पर     क़ाबिज़     फ़रेबी   हैं,   लुटेरे  हैं
ख़ुदा  पर  हर  किसी  को  ही  अक़ीदा  था  जो  टूटा  है !

                                                                                             (2014)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  दयारों: नगरों; ग़मज़दा: शोकग्रस्त; अदावत: शत्रुता; गुज़ारा: निर्वाह; फ़र्ज़ी: छलपूर्ण; करिश्मा: चमत्कार; ग़र्क़: जलमग्न; 
इरादा: संकल्प; निज़ामे-हिंद: भारत की व्यवस्था; क़ाबिज़: आधिपत्य में; फ़रेबी: कपटी; अक़ीदा: विश्वास, आस्था ।



रविवार, 30 नवंबर 2014

तबस्सुम रखा कीजिए !



जफ़ा  कीजिए  या  वफ़ा  कीजिए
मगर  होश  में  तो  रहा  कीजिए

शबे-हिज्र  में  कुछ  तसल्ली  मिले
ख़ुदा  के  लिए  राब्ता  कीजिए

बहारें  चमन  छोड़  कर  जा  चुकीं
कहां  खो  गए  हम,  पता  कीजिए

करे  ख़ल्क़  तारीफ़  तहरीर  की
फ़लक़  पर  इरादे  लिखा  कीजिए

संवरते  हुए  या  बिखरते  हुए 
लबों  पर  तबस्सुम  रखा  कीजिए

गई  उम्र  सरगोशियों  की,  मियां
ख़ुदा  से  ज़रा  वास्ता  कीजिए

फ़रिश्ते  खड़े  हैं  बहुत  देर  से
सफ़र  को  हमारे  दुआ  कीजिए !

                                                    (2014)

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  जफ़ा:निष्ठाहीनता; वफ़ा: निष्ठा; शबे-हिज्र: वियोग-निशा; राब्ता: संपर्क; ख़ल्क़: सृष्टि; तहरीर: लिखावट; फ़लक़: आकाश; लबों: ओंठों; तबस्सुम: स्मित; सरगोशियां: सिर से सिर मिला कर कानाफूसी करना; वास्ता: संबंध; फ़रिश्ते: मृत्यु-दूत; सफ़र: यात्रा, यहां मृत्यु-मार्ग की ।

                                      

सोमवार, 24 नवंबर 2014

...तैयारी जनाज़े की !

क़सम  ले  लो  अगर  हमने  ख़ुदा  को  आज़माया  हो
कि  मन्नत  के  लिए  ही  जो  कहीं  पर  सर  झुकाया  हो

अमां,  मन्हूसियत  छोड़ो,  ज़रा-सा  मुस्कुराओ  भी
तुम्हीं  वाहिद  नहीं  जिसका  सबा  ने  दिल  चुराया  हो

ये  मामूली  घरौंदा,  रिज़्क़,  दस्तरख़्वान  ये  अपना
ख़ुदा  ग़ारत  करे  जो  बिन  पसीने  के  कमाया  हो

हमारा  काम  है  तारीकियों  से  मोर्चा  लेना
हमें  सूली  चढ़ा  दें  गर  किसी  का  घर  जलाया  हो

हमीं  ने  ही  उसे बदला,  हमें  उसने  नहीं  बदला
भले  ही  वक़्त  ने  हमको  उठाया  या  गिराया  हो

हमारा  सर  झुका  है  दोस्तों  के  सामने  हर  दम
वफ़ा  की  राह  में  जो  दिल  कभी  भी  डगमगाया  हो

अभी  से  कर  रहे  हैं  आप  तैयारी  जनाज़े   की
कि  जैसे  आज  ही  हमको  ख़ुदा  ने  घर  बुलाया  हो !

                                                                                         (2014)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मन्नत: मान्यता; अमां: अजी, अनौपचारिक संबोधन; मन्हूसियत: anisht

रविवार, 23 नवंबर 2014

मुसव्विर भी नहीं समझे !

जियाले  आतिशे-दिल  से  गुज़र  कर  भी  नहीं  समझे
इरादों   की   बग़ावत   से   उबर  कर  भी  नहीं  समझे !

हवाएं   दोस्त  तो   हरगिज़   किसी  की  भी  नहीं  होतीं
रहे  अनजान    जो  पत्ते    बिखर  कर  भी  नहीं  समझे

किनारे  बैठ  कर    कुछ  लोग   बस,  गिनते  रहे  मौजें
दिवाने  तो    समंदर  में    उतर  कर   भी  नहीं  समझे

कहा  क्या   चांद  ने   बादे-सबा  की    लोरियां  सुन  कर
न  शायर  ही  कभी  समझे,  मुसव्विर  भी  नहीं  समझे

हमारे  नाम  की   हर  शाम  क्यूं   वो   शम्'अ  रखते  हैं
हमारे    मक़बरे   के    संगे-मरमर    भी    नहीं  समझे

जिन्हें  मानी  समझने  थे, समझ  कर  भी  नहीं  समझे
हज़ारों  साल    सीने  में    ठहर  कर   भी   नहीं  समझे !

अक़ीदत  तो    सभी  में  है,   मिलेंगे   कब-कहां-किसको
हमारी  राह  के     सच्चे  मुसाफ़िर     भी    नहीं  समझे !

                                                                              (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जियाले: दुस्साहसी; आतिशे-दिल: हृदय की अग्नि; इरादों: संकल्पों; बग़ावत: विद्रोह; हरगिज़: कदापि; मौजें: लहरें; 
दिवाने: उन्मादी व्यक्ति; बादे-सबा: प्रातः समीर; मुसव्विर: चित्रकार; शम्'अ: दीपिका, मोमबत्ती;   मक़बरे: समाधि, क़ब्र पर बना स्मारक; मानी: आशय; सीने: हृदय; अक़ीदत: आस्था, श्रद्धा; मुसाफ़िर: यात्री। 

शनिवार, 22 नवंबर 2014

जब कोह पिघल जाएंगे !

ख़्वाब  जिस  रोज़  परिंदों  में  बदल  जाएंगे
वक़्त  के  हाथ  से  कुछ  लोग  निकल  जाएंगे

तुम  उठे  भी    तो   बार-बार    लड़खड़ाओगे
हम  गिरे  भी  तो  किसी  रोज़  संभल  जाएंगे

हम  यहां  वस्ल  की  उम्मीद  सजा  बैठे  थे
क्या  ख़बर  थी  कि  कभी  आप  फिसल  जाएंगे

इम्तिहां  लें  न  कभी  आप  हमारी  ख़ू  का
खेल  ही  खेल  में  अरमान  मचल  जाएंगे

शाह   दिन-रात   सब्ज़बाग़   दिखाना  छोड़े
लोग   नादान   नहीं   हैं   कि  बहल  जाएंगे

क़त्लो-ग़ारत  के  इरादों  को  हवा  मत  दीजे
इस  सियासत  से  चमनज़ार  दहल  जाएंगे

हर  तरफ़  दरिय:-ए-उम्मीद  नज़र  आएगा
आतिशे-इश्क़  से  जब  कोह  पिघल  जाएंगे !

                                                                            (2014)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; वस्ल: मिलन; ख़ू: प्रकृति, स्वभाव; सब्ज़बाग़: झूठे स्वप्न; नादान: अबोध; क़त्लो-ग़ारत: हत्या और रक्तपात; सियासत: राजनीति, षड्यंत्र; चमनज़ार: हरे-भरे उद्यान; दरिय:-ए-उम्मीद: आशा की नदियां; आतिशे-इश्क़: प्रेमाग्नि; कोह: पर्वत ।

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

शुआएं खिड़की से ...

ढूंढिए,  दिल  यहीं  कहीं  होगा
आपसे    दूर  तो    नहीं  होगा

आ  रही  हैं शुआएं  खिड़की  से
माह  होगा  कि  महजबीं  होगा

घर  जला  कर हुज़ूर  कहते  हैं
अब  तमाशा  यहीं,  यहीं  होगा

क्या  मुक़द्दस  ख़्याल  आया  था
छोड़    आए   जहां,    वहीं  होगा

हो  जहां  हर  गुनाह  शरियत  से 
कौन  उस  अर्श  पर  मकीं  होगा

आ  रहे  हैं  अभी,     सुनो  मूसा 
मोजज़ा   आज  हर  कहीं  होगा

रोज़  रोज़ा-नमाज़  की  ज़हमत 
ज़ुल्म  क्या  ख़ुल्द  में  नहीं  होगा ?

                                                               (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शुआएं: किरणें; माह: चंद्रमा; महजबीं: चंद्रभाल, जिसका माथा चंद्रमा के समान उज्ज्वल हो; हुज़ूर: श्रीमान, मालिक; 
मुक़द्दस ख़्याल: पवित्र विचार; गुनाह: अपराध; शरियत: धार्मिक क़ानून; अर्श: आकाश, स्वर्ग; मकीं: मकान में रहने वाला, निवासी; 
मूसा: हज़रत मूसा अ.स., इस्लाम के द्वैत वादी दार्शनिक, पैग़ंबर, ख़ुदा की झलक पाने वाले एकमात्र  मनुष्य; मोजज़ा: चमत्कार; 
रोज़ा: उपवास; ज़ुल्म: अत्याचार; ख़ुल्द: स्वर्ग। 




बुधवार, 19 नवंबर 2014

सियासत मुस्कुराने की

कहां  औक़ात  अपनी  सोहबते-हज़रात  पाने  की
बुज़ुर्गों  ने  मनाही  कर  रखी  है  सर  झुकाने  की

हमारे  साथ   रहने  के    बहुत  सारे   मफ़ायद   हैं
कि  जैसे  सीख  लोगे  तुम  सियासत  मुस्कुराने  की

मुअम्मा  है,  समझ  लोगे  ज़रा-सा  ज़र्फ़  आने  पर
अभी  से  क्या  पड़ी  है  शायरी  में  सर  खपाने  की

मरासिम   तर्क  कर  दें  या  बढ़ाएं,   आपकी  मर्ज़ी
ज़रूरत  क्या  हमें  इस  उम्र  में  तोहमत  उठाने  की

हुदूदे-दोस्ती  से    दो  क़दम    आगे  बढ़े     हम  भी
ज़रा  ज़हमत  उठाएं  आप  भी  नज़दीक  आने  की

न  जाने  कौन  है    जो  तूर  से     आवाज़  देता  है
हमारी  चाह  भी  है  यूं  किसी  को  मुंह  दिखाने  की

ज़मीं  पर  भेज  कर  हमको  न  यूं  पछताइए,  साहब
अभी  कुछ  और  कोशिश  कीजिए,  हमको  भुलाने  की  !

                                                                                        (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: औक़ात: सामर्थ्य; सोहबते-हज़रात: गणमान्य व्यक्तियों की संगति; बुज़ुर्गों: पूर्वजों; मफ़ायद: लाभ; सियासत: लोक-व्यवहार; मुअम्मा: पहेली; ज़र्फ़: गंभीरता; मरासिम: संबंध; तर्क: त्याग; तोहमत: कलंक; हुदूदे-दोस्ती: मित्रता की सीमाएं; ज़हमत: कष्ट; 
तूर: मिस्र में एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा अ.स. को ईश्वर की झलक दिखाई दी थी; साहब: श्रीमान, यहां ख़ुदा । 
 

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

...हमारी छुवन में

रहे  ही  कहां  हम  तुम्हारे  ज़ेह् न  में
न  ख़ामोशियों  में,  न  शे'रो-सुख़न  में

नए  ज़ाविए  से  पढ़ो  तो  किसी  दिन
बहुत  कुछ  मिलेगा  हमारी  कहन  में

बहारें    गले   यूं    मिलीं    दोस्तों   से
हरारत   बढ़ा  दी  शह् र   के  बदन  में

फ़क़त  नर्म  जज़्बात  की  चांदनी  है
शरारे     नहीं  हैं    हमारी   छुवन  में

जिसे   चाहिए,     देनदारी   चुका  दे
ख़ुदा  के  यहां  दिल  पड़ा  है  रहन  में

न  साक़ी,  न  पैमां,  न  शैख़ो-मुअज़्ज़िन
कहां   आ  फंसे  हम,  ख़ुदा  के  वतन  में !

ग़ज़ब  की  कशिश  है,  तुम्हारी  अज़ां  में
फ़रिश्ते   उतर  आए  हैं    अंजुमन  में  !


                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेह् न: मस्तिष्क, विचार; शे'रो-सुख़न: शे'र/काव्य और सृजन; ज़ाविए: कोण; कहन: कथन-शैली; हरारत: ऊष्मा, तापमान; 
बदन: शरीर; फ़क़त: मात्र; नर्म: कोमल; जज़्बात: भावनाएं; शरारे: चिंगारियां; छुवन: स्पर्श; देनदारी: ऋण; रहन: गिरवी; साक़ी: मदिरा देने वाला; पैमां: मदिरा-पात्र; शैख़ो-मुअज़्ज़िन: धर्मभीरु और अज़ान देने वाला; ग़ज़ब की: चमत्कारिक; कशिश: आकर्षण; फ़रिश्ते: देवदूत; अंजुमन: सभा। 

                                                                 



रविवार, 16 नवंबर 2014

किसको ख़ुदा कह दें ?

हमारा  क्या   यक़ीं,  हम  आज  क्या,  कल  और  क्या  कह  दें
हसीनों   को    ख़ुदा    कह  दें,    ख़ुदा  को     दिलरुबा   कह  दें  !

सियासतदां      हमारे      मुल्क  के          बेशर्म  हैं         इतने
सरासर    क़त्ल  को  भी     मुस्कुरा  कर      हादसा     कह  दें  !

अदब  की   बंदिशें    अक्सर    बहुत  आसां    नहीं,     लेकिन
अकेले  में,   कहो  तो    हम  तुम्हें      बाद-ए-सबा      कह  दें

हमारे    ख़ैरख्वाः       यूं  तो      बहुत       उस्ताद     बनते  हैं
मगर  यह  भी  नहीं  होता  कि  खुल  कर  "मरहबा"  कह  दें  !

हमारी      सख़्त    बातों   से     जिन्हें    तकलीफ़     होती  है
बताएं  तो  सही,     इस  दौर  में    किसको     ख़ुदा  कह  दें  ?

समंदर   है,    मगर     इतना    नहीं  है     ज़र्फ़     हममें  भी
कि  क़ातिल  को   कभी  अपने  वतन  का   रहनुमा  कह  दें  !

हमारा  साथ     शायद     आपको     अच्छा       नहीं  लगता
कहें     तो  आज  ही    हम  इस  जहां  को  अलविदा  कह  दें  !

                                                                                                   (2014)

                                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: यक़ीं: विश्वास;  हसीनों: सुंदर व्यक्तियों;  दिलरुबा: चित्ताकर्षक, मनमोहक;  सियासतदां: राजनीतिज्ञ;  सरासर: स्पष्टत:; 
क़त्ल: हत्या;  हादसा: दुर्घटना;  अदब: साहित्य; बंदिशें: बंधन, सीमाएं; अक्सर: सामान्यतः; आसां: सरल;  बाद-ए-सबा: प्रातः समीर; ख़ैरख्वाः: शुभचिंतक; उस्ताद: गुरु; मरहबा: धन्य, साधु; सख़्त: कठोर; तकलीफ़: कष्ट; समंदर: समुद्र; ज़र्फ़: गहराई, धैर्य; क़ातिल: हत्यारा; रहनुमा: नायक,पथ-प्रदर्शक; अलविदा: अंतिम प्रणाम । 

सोमवार, 10 नवंबर 2014

मंज़र देख डाले...

तलाशे-नूर  में  हमने  कई  दर  देख  डाले  हैं
वो  कोहे-तूर,  वो  मूसा,  वो  मंज़र  देख  डाले  हैं

लहू-ए-जुस्तजू  है,  आप  जिसको  अश्क  कहते  हैं
कि  इस  क़तरे  ने  दरिय:-ओ-समंदर  देख  डाले  हैं

भरोसा  ही  नहीं  तुम  पर,  तुम्हारी  होशियारी  पर
बुज़ुर्गों  ने  कई  मुश्ताक़-ओ-मुज़्तर  देख  डाले  हैं

छुपाएंगे  कहां  तक  आप  अपनी  बेक़रारी  को
हमारे  ख़्वाब  ने  बेज़ार  बिस्तर  देख  डाले  हैं

हमारा  क्या  बिगाड़ेंगी,  निगाहें  हुस्न  वालों  की
दिले-फ़ौलाद  ने  शमशीरो-ख़ंजर   देख  डाले  हैं

ये  कचरा  बीनते  बच्चे,  ज़रा  पेशानियां  देखो
कि  नाज़ुक़  उम्र  में  क्या-क्या  मनाज़िर  देख  डाले  हैं

सियासत  में  कहां  तख़्ता  पलटते  देर  लगती  है
अवामे-हिंद  ने    कितने  क़लंदर     देख  डाले  हैं  !

                                                                                        (2014)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तलाशे-नूर: प्रकाश की खोज; दर: द्वार; कोहे-तूर: मिस्र के साम क्षेत्र में एक मिथकीय पर्वत, जिस पर हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा के प्रकाश की झलक देखी थी; मंज़र: दृश्य; लहू-ए-जुस्तजू: अभिलाषाओं का रक्त; अश्क: अश्रु; क़तरे: बूंद; दरिय:-ओ-समंदर: नदी और समुद्र; बुज़ुर्गों: बड़े-बूढ़ों; मुश्ताक़-ओ-मुज़्तर: अभिलाषी और व्यग्र; बेक़रारी:विकलता; बेज़ार: निराश; दिले-फ़ौलाद: इस्पाती हृदय; शमशीरो-खंजर: तलवार और क्षुरी; पेशानियां: मस्तक (बहु.); नाज़ुक़ उम्र: कोमल आयु; मनाज़िर: दृश्य (बहु.); सियासत: राजनीति; तख़्ता: राजासन; अवामे-हिंद: भारतीय जन-गण;  क़लंदर: धृष्ट व्यक्ति। 

शनिवार, 8 नवंबर 2014

निगाहों में आए कि ...

निगाहों  में  आए  कि  मारे  गए
रहे  दूर  जो,  बे-सहारे  गए

फ़सादों  में  इंसान  मारे  गए
हमारे  गए  या  तुम्हारे  गए

ज़ईफ़ी  ज़ेह् न  पर  सितम  कर  गई
नज़र  से  निकलते  शरारे  गए

सिकंदर  गया,  ग़जनवी  भी  गया
जहां  नामवर  ढेर-सारे  गए

बहुत  देर  तक  तख़्त  हंसता  रहा
शहंशाह  जब-जब  उतारे  गए

हमारे  मक़बरे  का  एजाज़  है
यहां  सब  मुक़द्दर  संवारे  गए

किसी  की  नमाज़ें,  किसी  की  दुआ
नए  नाम  हर  दिन  पुकारे  गए

मुक़द्दस  हुई  कर्बला  की  ज़मीं
जहां  पर  नबी  के  दुलारे  गए

ख़ुदा  ने  ख़ुशी  से  हमें  ख़ुल्द  दी
मगर  हम  ख़ुदी  के  इदारे  गए !

                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़सादों: दंगों, उपद्रवों; ज़ईफ़ी: वृद्धावस्था; ज़ेह् न: मस्तिष्क; सितम: अत्याचार; शरारे: चिंगारियां; सिकंदर: यूनान का महान योद्धा; ग़जनवी: अफ़ग़ानिस्तान के ग़ज़नी का लुटेरा आक्रमणकारी शासक, जिसने सोमनाथ मंदिर को लूटा था; नामवर: प्रसिद्ध व्यक्ति; मक़बरा: समाधि, क़ब्र; एजाज़: प्रतिष्ठा; मुक़द्दर: भाग्य; नमाज़ें: मृतक के सम्मान में की जाने वाली नमाज़ें; दुआ: आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना; मुक़द्दस: पवित्र; कर्बला: ईराक़ का एक स्थान, जहां नबी (इस्लाम के अंतिम पैग़ंबर, हज़रत मुहम्मद साहब स.अ.व) के 
वंशज तत्कालीन अधर्मी शासक यज़ीद की सेना के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए; ख़ुल्द: स्वर्ग; ख़ुदी: स्वाभिमान; इदारे: संस्थान। 

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

मचलना सीख जाते हैं ...

नए  बच्चे  बहुत  जल्दी  मचलना  सीख  जाते  हैं
नज़र  चूकी  कि  बस,  हद  से  निकलना  सीख  जाते  हैं

जहां  मां-बाप  के  दिल  में  मुनासिब  फ़िक्र  होती  है
वहां  बच्चे  किताबों  से  बहलना  सीख  जाते  हैं

न  जाने  नौजवां  क्यूं  इस  क़दर  बेताब  होते  हैं
ज़रा-सी  कामयाबी  से  उछलना  सीख  जाते  हैं

कभी  ताजिर,  कभी  ख़ादिम,  कहीं  गांधी,  कहीं  हिटलर
सियासत  में  सभी  चेहरे  बदलना  सीख  जाते  हैं

चरिंदों  को  शिकायत  है  कि  हम  परवाज़  भरते  हैं
मुक़ाबिल  आ  नहीं  सकते  तो  जलना  सीख  जाते  हैं

जिन्हें  आता  नहीं  अपनी  बह् र  को  थामना,  अक्सर
हमारे  दुश्मनों  के  साथ  चलना  सीख  जाते  हैं

हमारी  राह  में  हरदम  फ़रिश्ते  ख़ार  बोते  हैं
मगर  हम  वक़्त  से  पहले  संभलना  सीख  जाते  हैं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुनासिब फ़िक्र : समुचित चिंता; इस क़दर : इस सीमा तक; बेताब: व्यग्र; ताजिर : व्यापारी; ख़ादिम : सेवक; सियासत: राजनीति; चरिंदों : थल चरों; परवाज़: उड़ान; मुक़ाबिल: सामने, प्रतियोगिता में; बह् र: छंद, मानसिक संतुलन; फ़रिश्ते: देवदूत; 
ख़ार: कांटे ।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हुस्ने-शाह से तौबा !

कहां-कहां  जनाब  आजकल  भटकते  हैं
तरह-तरह  के  इत्र  जिस्म  से  महकते  हैं

किया  सलाम  किसी  ने  कि  हंस  के  देख  लिया
तो  देखिए  कि  मियां  किस  क़दर  चहकते  हैं

न  आएं  आप  बे-हिजाब  ये  गुज़ारिश  है
यहां  तमाम  बे-शऊर  दिल  धड़कते  हैं

अजब  निज़ाम  चुना  है  अवाम  ने  अबके
कि  गांव-गांव  तिफ़्ल  भूख  से  सिसकते  हैं

उन्हें  शराब  दिखाना  सही  नहीं  होगा
बिना  पिए  जनाब  बज़्म  में  बहकते  हैं

ख़ुदा  बचाए  हमें  हुस्ने-शाह  से,  तौबा
नज़र  पड़ी  नहीं  कि  आईने  चटकते  हैं

'हज़्रते-दाग़  जहां  बैठ  गए,  बैठ  गए'
ख़ुदा  उठाए,  मगर  आप  कब  सरकते  हैं !

                                                                        (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जनाब: श्रीमान; इत्र: सुगंध-सार; जिस्म: शरीर; बे-हिजाब: निरावरण; गुज़ारिश: निवेदन; बे-शऊर: अशिष्ट; निज़ाम: सरकार, व्यवस्था; अवाम: जन-साधारण; तिफ़्ल: शिशु; बज़्म: गोष्ठी, सभा; हुस्ने-शाह: 'शाह' की सुंदरता; तौबा: त्राहिमाम; हज़्रते-दाग़: उर्दू के सबसे बड़े समर्थक, विश्व-विख्यात शायर, यह पंक्ति उन्हीं की ।

रविवार, 2 नवंबर 2014

काट लें सर....

चंद  सफ़हात  हैं  पुराने-से
कोई  रख दे  इन्हें  ठिकाने  से

चश्म  में  रोज़  किरकिराते  हैं
ख़्वाब  थे  जो  कभी  सुहाने-से

याद  वो  बार-बार  आते  हैं
हिज्र  के  दौर  में  भुलाने  से

ज़ख्मे-दिल  देर  तक  नहीं  भरते
नीम-अत्तार  को   दिखाने  से

तिफ़्ल  ज़्याद:  बड़े  न  हो  जाएं
बेवजह  हौसला  बढ़ाने  से

वक़्ते-ख़ुश्की  संभालते  दिल  को
अश्क  ज़ाया  गए  बहाने  से

रूह  की   बस्तियां  संवरती  हैं
एक  बुझती  शम्'अ  जलाने  से

दाग़  दिल  के  मिटाइए  साहब
क्या  मिलेगा  हमें  मिटाने  से

काट  लें  सर  न  ख़ुद हमीं  अपना
गर  बने  बात  सर  झुकाने  से  !!

                                                            (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चंद: कुछ, चार; सफ़हात: पृष्ठ (बहु.); चश्म: आंख; हिज्र: वियोग; दौर: काल; ज़ख्मे-दिल: मन के घाव; नीम-अत्तार: आधा-अधूरा दवा बेचने वाला; तिफ़्ल: बच्चे;  हौसला: उत्साह, मनोबल; वक़्ते-ख़ुश्की: सूखे के समय, जब आंख में आंसू सूख चुके हों; अश्क: अश्रु; 
ज़ाया: व्यर्थ, निरर्थक; रूह: आत्मा; शम्'अ: दीपिका; दाग़: दोष; हमीं: स्वयं। 

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

सरमाएदारों का प्यादा ...

ख़ुदा  को  सामने  रख  कर  बताओ,  क्या  इरादा  है
हमारा  दर्द  कम  है  या  तुम्हारा  शौक़  ज़्यादा  है  ?

हमारी  अक़्ल  पर  पत्थर  पड़े  थे  या  कि  क़िस्मत  पर
मिला  जो  हमनफ़स  हमको,  सरासर  शैख़ज़ादा  है 

तुम्हीं  जानो,  हमारा  साथ  तुम  कैसे  निभाओगे
तुम्हारे  शौक़  शाही  हैं,  हमारी  लौह  सादा  है

नदामत  को  हमारी  और  किस  हद  तक  उतारोगे
तुम्हारे  पांव  के  नीचे  हमारा  ही  बुरादा  है

शहंश:  ही  सही,   लेकिन  तुम्हें  पहचानते  हैं  सब
तुम्हारी  नंग  के  सर  पर,  शराफ़त  का  लबादा  है

ख़ुदा  ने  क्यूं  अवामे-हिंद  से  यह  दुश्मनी  की  है
शहंशाहे-वतन  सरमाएदारों  का  प्यादा  है

ज़ुबां  पर  वो  हमारी  लाख  पाबंदी  लगा  डालें
ग़ज़ल  हर  हाल  में  हो  कर  रहेगी  आज,  वादा  है !

                                                                                             (2014)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हमनफ़स: साथी, चिर-मित्र; सरासर: पूर्णतः; शैख़ज़ादा: धर्मोपदेशक की संतान; लौह: व्यक्तित्व; नदामत: लज्जा; बुरादा: लकड़ी काटने-छीलने में बिखरे हुए अंश, छीलन; शहंश:: शहंशाह का लघु; नंग: नग्नता; शराफ़त: सभ्यता; लबादा: सर से पांव तक आने वाला वस्त्र, आवरण; अवामे-हिंद: भारत के जन-सामान्य; शहंशाहे-वतन: देश का शासक; सरमाएदारों: पूँजीपतियों; प्यादा: पैदल सैनिक, शतरंज का सबसे छोटा मोहरा; ज़ुबां: जिव्हा, वाणी; पाबंदी: प्रतिबंध।


गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

घर जला दें क्या ?

ग़ज़ल  के  शौक़  की  ख़ातिर  हम  अपना  घर  जला  दें  क्या  ?
बुज़ुर्गों  की  विरासत  ख़ाक  में  यूं  ही  मिला  दें  क्या  ?

हमें  मालूम  है,  मसरूफ़  हो  तुम  इन  दिनों,  लेकिन
उमीदों  को  हमेशा  के  लिए  दिल  में  सुला  दें  क्या  ?

बग़ावत  के  लिए  तुमको  हमारे  साथ  रहना  है
अकेले  हम  यज़ीदी  तख़्त  का  पाया  हिला  दें  क्या  ?

चलो,  माना  कि  ग़ालिब  का  बहुत-सा  क़र्ज़  है  हम  पर
मगर  उसके  लिए  अपने  फ़राईज़  ही  भुला  दें  क्या  ?

बहुत  अरमान  है  तुमको  ख़ुदा  से  बात  करने  का
कहो  तो  आज  ही  उसको  तुम्हारे  घर  बुला  दें  क्या  ? 

परख  कर  देख  लो  तुम  भी  दलीलें  ख़ूब  वाइज़  की
किराए  पर  तुम्हें  हम  ख़ुल्द  में  कमरा  दिला  दें  क्या  ?

हमें  डर  है,  हमारे  बाद  तुम  तन्हा  न  हो  जाओ
बता  कर  मौत  की  तारीख़,  हम  तुमको  रुला  दें  क्या  ?

                                                                                                  (2014)

                                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शौक़: रुचि; ख़ातिर: हेतु; बुज़ुर्गों: पूर्वजों; विरासत: उत्तराधिकार; ख़ाक: राख़, धूल; मसरूफ़: व्यस्त; बग़ावत: विद्रोह; 
यज़ीद: हज़रत मुहम्मद स. अ. का समकालीन एक ईश्वर-द्रोही, अत्याचारी शासक, जिसने कर्बला में उनके उत्तराधिकारियों की हत्याएं कराईं; पाया: स्तंभ; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; फ़राईज़: कर्त्तव्य (बहु.); अरमान: उत्कंठा; दलीलें: वाद-प्रतिवाद; वाइज़: धर्मोपदेशक; ख़ुल्द: स्वर्ग; तन्हा: एकांतिक।

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

ख़ुद्दार बनते हैं...

साझा आसमान: दूसरी सालगिरह 

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपके पसंदीदा ब्लॉग 'साझा आसमान' की दूसरी सालगिरह है।
इन दो सालों में 'साझा आसमान' दुनिया के तक़रीबन हर छोटे-बड़े मुल्क तक पहुंचा। लेकिन, यह कामयाबी आपके मुसलसल त'अव्वुन के बिना मुमकिन नहीं थी। यह भी एक इत्तिफ़ाक़ है कि 'साझा आसमान' के क़ारीन में जितने लोग हिंदोस्तानी हैं, उससे भी ज़्यादह दीगर मुमालिक के हैं !
बहुत-बहुत शुक्रिया, दोस्तों ! इतने लंबे वक़्त तक साथ देते रहने के लिए । इंशाअल्लाह, यह साथ आगे भी इसी तरह चलता रहेगा।
इस मौक़े पर एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी ख़िदमत में पेश है:

बड़े  ख़ुद्दार  बनते  हैं... 

ख़ुदा  के  नाम  से  पहले,  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं
मुअज़्ज़िन  किसलिए  ये  शिर्क  का  इल्ज़ाम  लेते  हैं  ?

तुम्हीं  बतलाओ  क्या  तुमने  ख़ुदा  का  दिल  चुराया  है
नहीं  तो  लोग  क्यूं  खुल  कर  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं  ?

न  जाने  कौन-सा  जादू  किया  तुमने  मुहल्ले  पर
तुम्हारा  ज़िक्र  चलते  ही  सभी  दिल  थाम  लेते  हैं

हमारा  नाम  तक  सुनना  न  था  जिनको  गवारा  कल
वही  अब   रोज़  हमसे  इश्क़  का  पैग़ाम  लेते  हैं

हुनर  सीखा  कहां  से  आपने  ये  दिलनवाज़ी  का
हमीं  पर  वार  करते  हैं,  हमीं  से  काम  लेते  हैं

हमें  पूरा  यक़ीं  है,  तुम  मिलोगे  आज  महफ़िल  में
तुम्हारी  याद  को  हम  सूरते-इलहाम  लेते  हैं

बड़े   ख़ुद्दार  बनते  हैं  हमारे  सामने  आ  कर
अंधेरे  में  वही  सरकार  से  इकराम  लेते  हैं  ! 

                                                                                   (2014) 

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; शिर्क: ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को पूजना, अधर्म; इल्ज़ाम: आरोप; ज़िक्र: उल्लेख, चर्चा; पैग़ाम: संदेश; हुनर: कौशल; दिलनवाज़ी: मन रखना, प्रगाढ़ मैत्री; वार: प्रहार; यक़ीं: विश्वास; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; सूरते-इलहाम: देव-वाणी की भांति; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; इकराम: पारितोषिक, अनुग्रह।

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

...शाने-ख़ुदी भी रहे !

बेरुख़ी  भी  रहे,  दोस्ती  भी  रहे
होश  के  साथ  कुछ  बेख़ुदी  भी  रहे

ख़ूब  है  आपकी  महफ़िलों  का  चलन
आरज़ू  भी  रहे,  बे-बसी   भी  रहे

मश्विरा  है  यही  साहिबे-हुस्न  को
हो  अना  तो  कहीं  दिलकशी  भी  रहे

चश्मबाज़ी  करें,  रोकता  कौन  है
क़त्ल  करते  हुए  आजिज़ी  भी  रहे

वो  शबे-तार  के  ख़्वाब  में  आएं,  तो
हौसला  भी  रहे,  रौशनी  भी  रहे

है  तरक़्क़ी  मुकम्मल  तभी  मुल्क  की
शाह  के  सोच  में  मुफ़लिसी  भी  रहे

हो      सुजूदे-वफ़ा   की    यही     इंतेहा
सर  झुके  यूं  कि  शाने-ख़ुदी  भी  रहे  !

                                                                      (2014)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेरुख़ी: उपेक्षा; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; महफ़िलों: सभाओं; चलन: प्रथा; बे-बसी: विवशता; मश्विरा: परामर्श; साहिबे-हुस्न: सौंदर्य के स्वामी, सुंदर; अना: अहंकार; दिलकशी: मनमोहकता; चश्मबाज़ी: दृष्टि-प्रहार; क़त्ल: वध; आजिज़ी: विनम्रता; शबे-तार: अमावस्या; ख़्वाब: स्वप्न; हौसला: उत्साह; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; मुकम्मल: परिपूर्ण; मुल्क: देश; मुफ़लिसी: निर्धनता; सुजूदे-वफ़ा: आस्था व्यक्त करने के लिए प्रणिपात; इंतेहा: अतिरेक, सीमा; शाने-ख़ुदी: अस्मिता का सम्मान। 

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

ये दरबारे-हुसैनी...

शहीदाने-वफ़ा  के  ख़ून  से  तहरीर  लिक्खी  है
ख़ुदा  ने  कर्बला  की  क्या  ग़ज़ब  तक़दीर  लिक्खी  है 



अज़ल  के  बाद  भी  ज़िंदा  रहेगा  ख़ानदां  उनका
कि  जिनके  नाम  प  तारीख़  ने  शमशीर  लिक्खी  है


कटे  बाज़ू  हज़ारों  साल  दुनिया  को  दिखाएंगे
रग़-ए-अब्बास  में  मौला,  तिरी  तासीर  लिक्खी  है


ज़मीं-ए-कर्बला  में  फिर यज़ीदी  सोच  क़ाबिज़ है
जहां  पर दास्ताने-क़त्ल-ए-शब्बीर  लिक्खी  है


ये  दरबारे-हुसैनी  है,  यहां  फ़िरक़े  नहीं  चलते
यहां  हर  क़ल्ब  में  बस  अम्न  की  तस्वीर  लिक्खी  है ...

(2014)

-सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ:

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

नज़रिया ग़लत है....

ये  मुमकिन  नहीं  है,  कभी  दिन  न  बदलें
नए  दौर  के  साथ  कमसिन  न  बदलें

मुखौटे  जमा  कर  रखे  हैं  हज़ारों
बदलते  रहें  रोज़,  लेकिन  न  बदलें

सभी  लोग  हैं  मुतमईं  इस  शहर  के
ख़ुदा  भी  बदल  जाए,  मोहसिन  न  बदलें

बदलना  ज़रूरी  लगा  भी  उन्हें  तो
तहय्या  करेंगे,  मिरे  बिन  न  बदलें

नज़रिया  ग़लत  है  नए  हुक्मरां  का
अहद  कीजिए  वो  क़राइन  न  बदलें

ज़माना  कहां  से  कहां  आ  चुका  है
त'अज्जुब  नहीं  क्या  कि  मोमिन  न  बदलें

बड़ी  पुरअसर  है  अज़ां  दुश्मनों   की
अरज़  है  हमारी,  मुअज़्ज़िन  न  बदलें  !

                                                                                (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुमकिन: संभव;  दौर: कालखंड;  कमसिन: युवा, कम आयु वाले;  मुतमईं: आश्वस्त;  मोहसिन: कृपालु, प्रेमी;  
तहय्या: सुनिश्चित, दृढ़ संकल्प; नज़रिया: दृष्टिकोण; हुक्मरां: शासक-वर्ग; अहद: प्रण; क़राइन: सभ्यता के प्रतिमान, शिष्टाचार; 
ज़माना: समय; त'अज्जुब: आश्चर्य; मोमिन: आस्तिक जन; पुरअसर: प्रभावी; अरज़: निवेदन, प्रार्थना; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला।

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

ख़ुदा मेह्रबां है...!


दिल  बहाने   सुना   नहीं  करता
ख़्वाब   दिन  में  बुना  नहीं   करता

संगदिल  ही  सही  सनम,  लेकिन
क़त्ल  सोचे  बिना  नहीं   करता

एक  सफ़   में  नमाज़   पढ़ता  है
राह  में  सामना  नहीं   करता

कौन   उसका  ग़ुरूर  तोड़ेगा
जो   हमें  आशना  नहीं  करता

ग़ैर  के   ग़म   जिन्हें   सताते  हैं
वक़्त  उनको  फ़ना   नहीं  करता

दिल  अलहदा  दिमाग़  रखता  है
दोस्त-दुश्मन  चुना  नहीं  करता

शाह  क़ातिल,  ख़ुदा   मेह्रबां  है
जुर्म  उसके  गिना  नहीं  करता !

ताज  हो  या  मेयार  ग़ालिब  का
एक  दिन  में  बना  नहीं  करता

शायरों  से  ख़ुदा  परेशां  है
पर,  कहा  अनसुना  नहीं  करता !
                                                            (2014)

                                                    -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: संगदिल: पाषाण-हृदय; सफ़: पंक्ति; ग़ुरूर: गर्व, अहंकार; आशना: मित्र, संगी; ग़ैर: पराया; ग़म: दुःख; फ़ना: नष्ट; 
अलहदा: भिन्न, अलग; क़ातिल: हत्यारा; मेह्रबां: कृपालु; जुर्म: अपराध। 

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

ये कैसी तरक़्क़ी ...

सुना  तो  बहुत  है,  उजाले  हुए  हैं
हक़ीक़त  में  दिल  और  काले  हुए  हैं

हमीं  पर  ख़ुदा  के  सितम  टूटते  हैं
हमीं  क्या  जहां  में  निराले  हुए  हैं  ?

ग़नीमत  है,  दिल  जिस्म  में  है  अभी  तक
मगर  हां,  जतन  से  संभाले  हुए  हैं

चुनांचे,  हमें  भी  बहुत  रंज  होगा
अगर  वो  हवा  के  हवाले  हुए  हैं

ये  कैसी  तरक़्क़ी  कि  दहक़ान  को  भी
मयस्सर  महज़  दो  निवाले  हुए  हैं

शहंशाह  ही  है,  फ़रिश्ता  नहीं  है
कहां  के  वहम  आप  पाले  हुए  हैं ? !

तुम्हीं  कोई  वाहिद  ग़ज़लगो  नहीं  हो
जहां  में  कई  ज़र्फ़   वाले  हुए  हैं

ख़ुदा  भी  बुलाए  वहां  तो  न  जाएं
कि  जिस  ख़ुल्द  से  हम  निकाले  हुए  हैं  !

                                                                        (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; सितम: अत्याचार; ग़नीमत: अच्छा, उत्तम; जिस्म: शरीर; जतन: यत्न; चुनांचे: अतएव, फलस्वरूप; रंज: खेद; हवाले: हस्तांतरित; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; दहक़ान: कृषक, खेत-मज़दूर; मयस्सर: उपलब्ध; महज़: मात्र; निवाले: कौर; 
फ़रिश्ता: देवदूत; वहम: भ्रम; वाहिद: एकमात्र, विलक्षण; ग़ज़लगो: ग़ज़ल कहने वाला; ज़र्फ़: गहराई, गंभीरता; ख़ुल्द: स्वर्ग, मिथक के अनुसार, आदि-पुरुष हज़रत आदम को ख़ुदा ने स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिया था।




शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

किसी दिन रो पड़े ...

सादगी  उनकी  क़ह्र  ढाने  लगी
आइनों  पर  बे-ख़ुदी  छाने  लगी

जब  सफ़र  में  रात  गहराने  लगी
सह्र  की  उम्मीद  बहलाने  लगी

रंग  में  आए  नहीं  हैं  हम  अभी
दुश्मनों  की  रूह  घबराने  लगी

एक  रोज़ा  बढ़  गया  रमज़ान  में
मोमिनों  की  जान  पर  आने  लगी

ज़िंदगी  ने  तंज़  कोई  कर  दिया
मौत  वापस  रूठ  कर  जाने  लगी

मुफ़लिसों  की  आह  के  तूफ़ान  से
शाह  की  सरकार  थर्राने  लगी

भूल  से  भी  हम  किसी  दिन  रो  पड़े
आसमां  की  चश्म  धुंधलाने  लगी ! 


                                                                 (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़ह्र: आपदा;   बे-ख़ुदी: आत्म-विस्मृति; सह्र: उषा; रूह: आत्मा; रोज़ा: उपवास; रमज़ान: पवित्र माह; मोमिनों: आस्तिकों; तंज़: व्यंग्य; मुफ़लिसों: दीन-हीन; आसमां: देवलोक;  चश्म: आंख, दृष्टि।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

बहुत ख़राब हैं हम !

हमें  क़रीब  से  देखो,  तुम्हारा  ख़्वाब  हैं  हम
जिगर  संभाल  के  रखना  कि  बे-हिजाब  हैं  हम

न  दिल  में  राज़  न  आंखों  में  मस्लेहत  कोई
किसी  भी  वर्क़  से  पढ़िए,  खुली  किताब  हैं  हम

तमाम  मन्नतों  से  हम  जहां  में  आए  हैं
बुज़ुर्गो-वाल्दैन  का  कोई  सवाब  हैं  हम

तुम्हारा  साथ  निभाएंगे  हर  ख़ुशी-ग़म  में
तरह-तरह  के  रंग  में  खिले  गुलाब  हैं  हम

हमारा  काम  एहतेरामे-हुस्न  है  यूं  तो
किसी-किसी  निगाह  में  बहुत  ख़राब  हैं  हम

हुआ  करें  हुज़ूर  शाहे-हिंद,  हमको  क्या  ?
रियासते-ख़ुलूसो-उन्स  के  नवाब  हैं  हम 

किसी  की  ख़ुल्द,  किसी  का  जहां,  किसी  का  दिल 
जहां  कहीं   रहें,  वहीं  पे   लाजवाब  हैं  हम  !

                                                                                    (2014)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जिगर: मन; बे-हिजाब: निरावरण; मस्लेहत: गुप्त उद्देश्य; वर्क़: पृष्ठ; बुज़ुर्गो-वाल्दैन: पूर्वज और माता-पिता; सवाब: पुण्य; एहतेरामे-हुस्न: सौंदर्य का सम्मान; निगाह: दृष्टि; शाहे-हिंद: भारत का राजा; रियासते-ख़ुलूसो-उन्स: आत्मीयता और स्नेह का राज्य; नवाब: राजा; ख़ुल्द: स्वर्ग; जहां: संसार ।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रूह में सुबह रखना ...

क़ल्ब   में  दर्द  की  जगह  रखना
विसाले-यार   की   वजह  रखना

नज़र  में  आएंगे   अंधेरे   भी
बचा  के  रूह  में  सुबह  रखना

शह्र   के  रंग-ढंग  ठीक  नहीं
ज़रा  आमाल  पर  निगह  रखना

वो  आ  रहे  हैं  फ़ैसला  करने
दिलो-दिमाग़  में  सुलह  रखना

कभी  न  ख़ुश्क  हों  हसीं  आंखें
बचा  के  अश्क  इस  तरह  रखना

उतर  रहे  हो  जंगे-ईमां  में
ज़ेह्न  में  जज़्ब:-ए-फ़तह  रखना

अभी  हैं  राह  में,  पहुंचते  हैं
ख़ुदा  से  आप  ज़रा  कह  रखना !

                                                                (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ल्ब: हृदय; विसाले-यार: प्रिय से मिलन; वजह: कारण; रूह: आत्मा, अंतर्मन; शह्र: शहर, नगर; आमाल: आचरण; 
निगह: निगाह का लघु, दृष्टि; दिलो-दिमाग़: मन-मस्तिष्क; सुलह: समझौते की भावना; ख़ुश्क: शुष्क; जंगे-ईमां: निष्ठा का/ वैचारिक युद्ध; ज़ेह्न: मस्तिष्क, ध्यान; जज़्ब:-ए-फ़तह: विजय का भाव।  

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

ज़िंदा जवानी चाहिए !

मुल्क  को  ज़िंदा  जवानी  चाहिए
आंख  में    भरपूर    पानी  चाहिए

हो  चुके  वादे  तरक़्क़ी  के  बहुत
अब  इरादों  में  रवानी  चाहिए 

हो  अवध  की  शाम  की  ख़ुशबू  जहां
सुब्ह  काशी   की  सुहानी  चाहिए

मुल्क  के  हालात  के  मद्देनज़र
इक  फ़रिश्ता  आसमानी  चाहिए

सिर्फ़  लौहो-संग  ही  काफ़ी  नहीं
अब  दिलों  में  आग-पानी  चाहिए

हैं  बहुत  चर्चे  शहर  में  आपके
सच  हमें  ख़ुद  की  ज़ुबानी  चाहिए 

मुल्क  में  जब्रो-ज़िना  है,  ज़ुल्म  है
आपको  कैसी  कहानी  चाहिए  ?

रिज़्क़  पाते  हैं  पसीना  बेच  कर
दिल  प'  अपनी  हुक्मरानी  चाहिए  ! 

                                                                (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इरादों: संकल्पों; रवानी: प्रवाह, गति; हालात: घटनाक्रम; मद्देनज़र: दृष्टिगत; फ़रिश्ता: देवदूत; आसमानी: आकाशीय, दैवीय; लौहो-संग: लौह और पत्थर, शारीरिक शक्ति; आग-पानी: ऊर्जा और संवेदनशीलता; चर्चे: चर्चाएं; ख़ुद की ज़ुबानी: आत्म-वृत्तांत; 
जब्रो-ज़िना: बल-प्रयोग और दुष्कर्म; ज़ुल्म: अत्याचार; रिज़्क़: दो समय का भोजन; हुक्मरानी: शासन, पूर्ण स्वतंत्रता।


सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

सर कटेगा एक दिन...

है  असर  बुलबुल  तिरी  फ़रियाद  का
नामलेवा   तक      नहीं    सय्याद  का

लग  रहा  है  शाह  के  आमाल  से
दौर  वापस  आ  गया  शद्दाद  का

मुल्क  का  ईमान  गिरवी  रख  चुके
देखते  हैं  रास्ता  इमदाद  का

लोग  अपना  दिल  उठा  कर  चल  दिए
काम  आसां  कर  गए  नाशाद  का

मुश्किलें  दर  मुश्किलें  आती  रहीं
जिस्म  दिल  ने  कर  दिया  फ़ौलाद  का

मुफ़लिसी  में  कर  रहा  है  शायरी 
क्या  कलेजा  है  दिले-बर्बाद  का  !

वक़्त  मुंसिफ़  है,  इसे  मत  छेड़िए
सर  कटेगा  एक  दिन  जल्लाद  का  !

                                                                           (2014)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: असर: प्रभाव; बुलबुल: मैना; फ़रियाद: दुहाई, प्रार्थना; आमाल: क्रिया-कलाप; शद्दाद: मिस्र का एक नास्तिक शासक जिसने अपने को ख़ुदा घोषित कर दिया था और इसे साबित करने के लिए एक कृत्रिम जन्नत का निर्माण कराया था; इमदाद: सहायता ('निवेश'); आसां: सरल; नाशाद: असंतुष्ट, दुखी हृदय; जिस्म: शरीर; फ़ौलाद:इस्पात; मुफ़लिसी: विपन्नता; कलेजा: साहस; दिले-बर्बाद: दिवालिया/ध्वस्त व्यक्ति का मन; मुंसिफ़: न्यायकर्त्ता; जल्लाद: वधिक, हत्यारा।


रविवार, 12 अक्तूबर 2014

आपकी ख़ूंरेज़ नज़रें...

इश्क़  में  दिल  भी  जलेगा,  जान  भी
मुफ़्त  में  मिलता  नहीं  एहसान  भी

रहबरों  पर  अब  नहीं  आता   यक़ीं
वो  अगर  क़ुर्बान  कर  दें  जान  भी

इस  क़दर  तोड़े  रिआया  पर  सितम
शाह  से  डरने  लगा  शैतान  भी

हर  कहीं  दंगाइयों  के  रक़्स  से
हैं  परेशां  लोग  सब,  हैरान  भी

आपकी   ख़ूंरेज़  नज़रें  देख  कर
कांप  उठते  हैं  मिरे  अरमान  भी

याद  आता  है  कभी  वो  शख़्स  भी
दे  रहा  था  जो  तुम्हें  ईमान  भी  ?

उड़  गए  तो  लौट  कर  आते  नहीं
हैं    परिंदों  की  तरह   इंसान  भी  !

                                                                 (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसान: अनुग्रह; रहबरों: नेताओं; यक़ीं: विश्वास; क़ुर्बान: बलिदान; रिआया: नागरिक; सितम: अत्याचार; शैतान: दैत्य; रक़्स: नृत्य; परेशां:विचलित;  हैरान: विस्मित; ख़ूंरेज़: हिंसक, रक्तिम; अरमान: अभिलाषा; शख़्स: व्यक्ति; ईमान: आस्थाएं; परिंदों: पक्षियों।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

चांद की नाव में....

दुश्मनों  को  ज़रा  सहा  जाए 
आज  ख़ामोश   ही  रहा  जाए

फ़ित्रते-हुस्न  ही  अधूरी  है
चांद  को  क्यूं  बुरा  कहा  जाए

फज्र  तक  इंतज़ार  कर  लीजे
क्या  ख़बर,  वो  क़सम  निभा  जाए

दिल  करे  है  तवाफ़  यारों  का
एक  सज्दा  अता  किया  जाए

मौत  का  वक़्त  तय  नहीं  जब  तक
क्यूं  न  दिल  खोल  कर  जिया  जाए

मंज़िलें  ख़ुद  क़रीब  आती  हैं
सब्र  से  काम  गर  लिया  जाए

दरिय:-ए-नूर  है  शरद  पूनम
चांद  की  नाव  में  बहा  जाए

आख़िरत  की  नमाज़  मत  पढ़िये
दिल  कहीं  होश  में  न   आ  जाए  !

                                                                 (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़ित्रते-हुस्न: सौंदर्य की प्रकृति; फज्र: पौ फटना; इंतज़ार: प्रतीक्षा; तवाफ़: आस-पास घूमना, परिक्रमा; यारों: प्रिय; 
सज्दा: भूमि पर शीश झुका कर प्रणाम; अता: प्रदान; मंज़िलें: लक्ष्य; सब्र: धैर्य; गर: यदि; दरिय:-ए-नूर: प्रकाश की नदी; 
आख़िरत: अंतिम क्षण, मृत्यु का क्षण ।

 


शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

हम दफ़ा हो गए !

नाम  सुन  कर  हमारा  ख़फ़ा  हो  गए
शाह  जब  से  हुए  वो  ख़ुदा  हो  गए

एक  ताज़ा  ख़बर  आपके  भी  लिए
बेवफ़ा  दोस्त  सब  बावफ़ा  हो  गए

एहतरामे-शहादत  उन्हें  भी  मिले
इश्क़  की  राह  में  जो  फ़ना  हो  गए

चंद  अश्'आर  अपने  शम्'अ  से  जले
चंद  अश्'आर  बादे-सबा  हो  गए

ख़ूब  मोहसिन  मिले  हैं  हमें  ज़ीस्त  में
वक़्त  आया  नहीं ,   सब  हवा  हो  गए

तोड़ना  चाहती  थी  हमें  शामे-ग़म
दर्द  लेकिन  हमारी  दवा  हो  गए

दफ़्अतन  लोग  दिल  लूट  कर  ले  गए
और  बस,  हम  शहीदे-वफ़ा  हो  गए

लीजिए,  अब  ज़रा  मुस्कुरा  दीजिए
आपकी  बज़्म  से  हम  दफ़ा  हो  गए  !

                                                                   (2014)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़फ़ा: रुष्ट; बेवफ़ा: निष्ठाहीन; बावफ़ा: निष्ठावान; एहतरामे-शहादत: वीरगति पाने का सम्मान; फ़ना: बलिदान; चंद: कुछ; अश्'आर: शे'र का बहुवचन; शम्'अ: दीपिका; बादे-सबा: प्रातः समीर; मोहसिन: अनुग्रहकर्त्ता; ज़ीस्त: जीवन; दफ़्अतन: सहसा; शहीदे-वफ़ा: निष्ठा पर बलि; बज़्म: सभा; दफ़ा: दूर, अदृश्य।


गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

फ़ैसला अच्छा नहीं !

जंग  हो  जज़्बात  की  ये  सिलसिला  अच्छा  नहीं
दोस्ती  में  रात-दिन  शिकवा-गिला   अच्छा  नहीं

उम्र  भर  का  साथ  हो  तो  क्या  ख़ुदी,  कैसी  अना
हमसफ़र  से  हर क़दम  पर  फ़ासला  अच्छा  नहीं

क़ुदरतन  टूटे  क़ह्र  तो  क्या  शिकायत  अर्श  से
सहर:-ए-दिल   में  उठे  जो  ज़लज़ला,  अच्छा  नहीं

रात-दिन  डूबे  हुए  हैं  शायरी  की  फ़िक्र  में
घर  चलाने  के  लिए  ये  मश्ग़ला  अच्छा  नहीं

इब्ने-इन्सां  के  लिए  ये  ज़िंदगी  भी  फ़र्ज़  है
मग़फ़िरत  को  ख़ुदकुशी  का  रास्ता  अच्छा  नहीं

एक  ख़ालिक़,  एक  मालिक,  कौन-सा  फ़िरक़ा  बड़ा ?
रहबरी  के  नाम  पर  ये  मुद्द'आ  अच्छा  नहीं

रह  गईं  हों  जब  रिआया  की  दलीलें  अनसुनी
शाह  के  हक़  में  ख़ुदा  का  फ़ैसला   अच्छा  नहीं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जंग: युद्ध, संघर्ष; जज़्बात: भावनाएं; सिलसिला: क्रम; शिकवा-गिला: उलाहने; ख़ुदी: स्वाभिमान; अना: अहंकार; हमसफ़र: सहयात्री, जीवनसाथी; फ़ासला: अंतराल, दूरी; क़ुदरतन: प्राकृतिक रूप से; क़ह्र: आपदा; अर्श: आकाश, ईश्वर, नियति; सहर:-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल, शुष्क मन; ज़लज़ला: भूकम्प; मश्ग़ला: व्यस्तता, दिनचर्या; इब्ने-इन्सां: मनुष्य-संतान;  फ़र्ज़: कर्त्तव्य; मग़फ़िरत को: मोक्ष हेतु; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  ख़ालिक़: सृजन कर्त्ता; मालिक: ईश्वर, ब्रह्म; फ़िरक़ा: संप्रदाय; रहबरी: नेतृत्व, नेतागीरी;   मुद्द'आ: विषय, बिंदु; रिआया: प्रजा, जनसामान्य;  दलीलें: प्रतिवाद;  हक़: पक्ष।