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शुक्रवार, 31 मई 2013

यादों का शीराज़ा

सियासत   चीज़   क्या   है   ये:   ज़रा  सा   देख  लेते  हैं
लगा    के    आग   बस्ती   में    तमाशा   देख   लेते   हैं

हमें  मालूम  है  उस  ख़त  में  तुमने  क्या  लिखा  होगा
तुम्हारे   ज़ौक़    की   ख़ातिर    लिफ़ाफ़ा   देख  लेते  हैं

बड़ा  मासूम  आशिक़  था   न  मिल  पाए  कभी  उससे
चलो   अब  चल  के  छज्जे  से   जनाज़ा   देख  लेते  हैं

तेरी  फ़ुर्क़त  के  दिन  हम  पे   बहुत  भारी  गुज़रते  हैं
तो    तन्हाई  में    यादों   का    शीराज़ा   देख   लेते   हैं

किया  करते  हैं  ग़ुरबत  में  इबादत  इस  तरह  से  हम
बनाते    हैं    वुज़ू      तस्वीर-ए- का'बा    देख   लेते   हैं

सुना    है    कुछ   भले   मानस   नई   तंज़ीम  लाए  हैं
चलो   इस   बार    उनका   भी    इरादा   देख   लेते   हैं

किसी  को  तो    करेंगे  मुंतख़ब    लेकिन  ज़रा  पहले
हुकूमत   के    गुनाहों    का    ख़ुलासा   देख   लेते   हैं !

                                                                            ( 2013 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सियासत: राजनीति; ज़ौक़: समाधान; फ़ुर्क़त: वियोग;  तन्हाई: अकेलापन;  यादों का शीराज़ा: बिखरी हुई स्मृतियों का संकलन; ग़ुरबत: परदेश;  इबादत: आराधना;  वुज़ू: देह-शुद्धि;  का'बा: इस्लामी मान्यतानुसार पृथ्वी का केंद्र, ईश्वरीय सत्ता का प्रतीक; तंज़ीम: संगठन, दल; मुंतख़ब: निर्वाचित।

किरदार के मानी

तेरा    ख़याल     हमारी   नज़र   में    रहता   है
वो:  ख़ुशनसीब  फ़रिश्तों  के  घर  में  रहता   है

बहार  जिसकी  धुन  में  दर-ब-दर  भटकती  है
वो:    नौजवान    हमारे   शहर   में     रहता   है

बहक   चुका   है   मेरा   यार   इक   ज़माने  से
न  जाने  कौन  सी   मै  के  असर  में  रहता  है

उसे  बताओ   के:  किरदार  के  मानी   क्या  हैं
ग़लत  वजह  से   हमेशा   ख़बर  में   रहता  है

वो:  शम्'अ  हम  नहीं  तूफ़ां  जिसे  बुझा  डाले
हमारा  नूर  तो   माह-ओ-मेह् र  में  रहता  है।

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रिश्ता: पंखों वाला देवदूत; मै: मदिरा; किरदार: समग्र व्यक्तित्व, चरित्र; नूर: प्रकाश; माह-ओ-मेह् र: चन्द्र एवं सूर्य।

गुरुवार, 30 मई 2013

उम्मीद की शुआ है ख़ुदा की किताब में !

मंज़ूर    है      दीदार     तुम्हारा        हिजाब    में
फ़ुर्सत  हो  तो  आ जाओ  किसी  रोज़  ख़्वाब  में

आशिक़   की   तिश्नगी  का   आलम   न   पूछिए
आब-ए-हयात     देख     रहा      है     सराब   में

नासेह   हैं   आप    कीजिए   खुल   के   नसीहतें
ग़फ़लत   मगर   बहुत   है    आपके  हिसाब  में

बांटेंगे   इत्र-ओ-रेवड़ी   मस्जिद   में  आज  हम
आदाब   कह   रहे   हैं    वो:   हमको   जवाब  में

वाइज़  को  कर  के  मेहमां  पछता  रहे  हैं  हम
मदहोश    हो    गए   हैं     ज़रा-सी    शराब   में

आमाल   पाक-साफ़   हैं   शायर  हुए   तो  क्या
धब्बा     न      ढूंढिए      हुज़ूर     आफ़ताब   में

पाया  न  एक  लफ़्ज़  कहीं  इश्क़  के  ख़िलाफ़
उम्मीद   की   शुआ   है   ख़ुदा  की  किताब  में !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिजाब: पर्दा; तिश्नगी: प्यास; आलम: तीव्रता; आब-ए-हयात: अमृत, जीवन-जल; सराब: मरु-जल, मरु:स्थल में सूर्य की किरणों   के आंतरिक परावर्त्तन के कारण दिखाई पड़ने वाला पानी ; नासेह: नसीहत करने वाला,छिद्रान्वेषी; ग़फ़लत: गड़बड़, संशय; वाइज़:         धर्मोपदेशक; मदहोश: मद्योन्मत्त; आमाल: आचरण;पाक: पवित्र; साफ़: उज्ज्वल; आफ़ताब: सूर्य; लफ़्ज़: शब्द; शुआ: किरण; ख़ुदा की किताब: पवित्र  क़ुर'आन।

बुधवार, 29 मई 2013

हम ऐसे अहमक़ !

उनकी    बातें    वो:    ही    जानें    कैसा-क्या    ब्यौपार    किया
हम   तो   बस   अपनी   जाने   हैं   दिल   का   कारोबार    किया

उनके    दर     दो-ज़ानू    हो    कर    कितनी     ही   आवाज़ें  दीं
बेहिस    पे    ईमां    ले    आए    नाहक़    दिल    बेज़ार    किया

रहन   रख   चुके   दिल   की   सारी   दौलत   क़ातिल   के   हाथों 
तो    ज़ालिम    ने    राह-ए-दिल    में  पलकों  को  दीवार  किया

देख   चुके   थे   दिल   के   गोरखधंधे   में   दीवानों   की   हालत
फिर   भी   होश   न   आया   हमको   ख़ुद   जीना  दुश्वार  किया

ख़ुद   अपनी   ही   ग़लती   हो   तो   किस  पे  दें  इल्ज़ाम   भला
ग़ैरों    ने    कितना    समझाया     अपनों    ने    हुश्यार    किया

हंस   लेते     या   रो   लेते    दिल   हल्का   तो      हो   ही   जाता
हम    ऐसे   अहमक़    निकले   के:    हर   मौक़ा   बेकार   किया

ख़िज़्र     हमारी     राहत     को     आबे-हयात    तो     लाए    थे
टूटे   दिल    जी   के   क्या   करते    सो   हमने   इनकार   किया

शाहों   की     सोहबत   में     रहते   रूह   तलक   पे   दाग़   लिए
का'बे   किस  मुंह  से  जाएं   हम   ईमां  तक  तो    ख़्वार  किया।

                                                                                 ( 2013 )

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   दो-ज़ानू: घुटनों के बल बैठ कर; बेहिस: संवेदनहीन; बेज़ार: व्यथित; दुश्वार: हुश्यार: सावधान;  अहमक़: मंदबुद्धि, बौड़म; ख़िज़्र: हज़रत ख़िज़्र, इस्लाम के पैगम्बरों में से एक, भूले-भटकों को मार्ग दिखाने वाले, किम्वदंती है कि वे सिकंदर को अमृत के झरने तक ले गए थे और उन्होंने उसे वे लोग दिखाए जो अमृत पी चुके थे; सिकंदर ने उनकी हालत देख कर अमृत पीने से इनकार कर दिया। 
आब-ए-हयात : अमृत।

मंगलवार, 28 मई 2013

....ज़ुबान बाक़ी है !

इक      अधूरा     बयान      बाक़ी     है
और     मुंह    में   ज़ुबान     बाक़ी    है

सर   पे   छत   की   हमें  तलाश  नहीं
जब    तलक    आसमान    बाक़ी    है

ज़लज़लों    ने    शहर    मिटा    डाला
सिर्फ़      मेरा     मकान      बाक़ी   है

रिज़्क़   की   फ़िक़्र   न   कर  ऐ   बंदे
ये:    दिल -ए- मेज़बान      बाक़ी   है

असलहे    ज़ालिमों    के     बाक़ी   हैं
हिम्मत -ए- नातवान       बाक़ी    है

यूं   ज़मीं -ए- ख़ुदा   पे    क़ाबिज़  हैं
सौ    बरस    का   लगान   बाक़ी   है

दुश्मन-ए-इश्क़   आ  डटें   फिर  से
जिस्मे-आशिक़  में  जान  बाक़ी  है

यूं  के:  दुनिया  से  उठ  गए  ग़ालिब
उनकी   हस्ती  की   शान   बाक़ी  है

फिर   नई  मंज़िलों  को   चल   देंगे
बस    ज़रा-सी    थकान   बाक़ी   है

दिल  धड़कने  को  अब  नहीं  राज़ी
हौसलों    की      उड़ान     बाक़ी   है

क्या  हुआ  तुम  अगर  सनम  न  हुए
अब    भी    सारा    जहान   बाक़ी   है

ले    गए    दिल    हरीफ़    सदक़े   में
नाम-भर    को    निशान    बाक़ी   है

ख़ुदकुशी    में    मज़ा    नहीं    आया
और    कुछ    इम्तेहान      बाक़ी   है ? !

                                               ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़लज़ला: भूकंप, प्राकृतिक प्रकोप; रिज़्क़: दो समय का भोजन; दिल -ए- मेज़बान: आतिथ्य-कर्त्ता का हृदय; असलहा: अस्त्र-शस्त्र; ज़ालिम: अत्याचारी; हिम्मत -ए- नातवान: निर्बल का साहस;  ज़मीं -ए- ख़ुदा: ईश्वर की भूमि, प्रकृति-प्रदत्त भूमि; क़ाबिज़: अधिकार जमाए; दुश्मन-ए-इश्क़: प्रेम के शत्रु; जिस्मे-आशिक़:प्रेमी का शरीर; ग़ालिब: 19वीं शताब्दी के महान उर्दू शायर; हस्ती: व्यक्तित्व एवं कृतित्व; हरीफ़: शत्रु (प्रेमी); सदक़ा: न्यौछावर; ख़ुदकुशी: आत्महत्या।

सोमवार, 27 मई 2013

होशमंदी - ए - इश्क़

आज  फिर   ग़म  ग़लत  किया  जाए
और     दो-चार    दिन    जिया   जाए

यूं   किसी   दिल   का   ऐ'तबार  नहीं
दे   रहे   हैं    तो     रख   लिया   जाए

होशमंदी - ए - इश्क़      वाहिद      है
जान   कर   भी   ज़हर   पिया   जाए

चाक   दामन  हो   तो   रफ़ू   कर  लें
चाक  दिल  किस  तरह  सिया  जाए

सिर्फ़      ईमान      मांगते    हैं     वो:
सोचते    हैं    के:    दे    दिया    जाए !

                                               ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: होशमंदी-ए-इश्क़: प्रेम की संचेतना; वाहिद: विलक्षण; चाक  दामन: फटा हुआ वस्त्र।

रविवार, 26 मई 2013

ख़ुदा हाफ़िज़ !

ख़्वाब-ए-हस्ती   तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़
बदनसीबी          तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़

जाम-ए-ग़म  फिर  उठा  लिया  हमने
होशमंदी             तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़

चश्म-ए-साक़ी     हमें    मुबारक   हो
मै  परस्ती         तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़

दौलत-ए-दिल   मिली  है   विरसे  में
अय  ग़रीबी       तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़

शाह-ए-आलम   फ़िदा  हुए    हम  पे
तंगदस्ती           तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़

शाह     अब   खोल   रहा   है     लंगर
फ़ाक़ामस्ती       तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़

बाज़     आए     हसीन     चेहरों     से
बुतपरस्ती         तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़

आज     वाइज़     शराब    ले    आया
क़ुन्दज़ेहनी        तेरा   ख़ुदा   हाफ़िज़ !

                                                   ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़्वाब-ए-हस्ती: जीवन-रूपी स्वप्न;जाम-ए-ग़म: दुःख की मदिरा का पात्र; होशमंदी: स्व-स्थित रहना;
चश्म-ए-साक़ी: मदिरा परोसने वाले की आंखें; मै  परस्ती: मद्यपान की आदत; दौलत-ए-दिल: विशाल-हृदयता;
विरसा: उत्तराधिकार; शाह-ए-आलम: युवराज; फ़िदा: मोहित; तंगदस्ती: हाथ रोक कर व्यय करना, कंजूसी;
फ़ाक़ामस्ती: निराहार रह कर भी आनंदित रहना; बुतपरस्ती: मूर्ति-पूजन, व्यक्ति-पूजा; वाइज़: धर्मोपदेशक;
क़ुन्दज़ेहनी: बुद्धि-मंदता।






शनिवार, 25 मई 2013

ख़ुदा आज़मा रहा है !

सब्ज़   गलियां  दिखा  रहा  है   मुझे
क्यूं   ख़ुदा   आज़मा    रहा  है   मुझे

काश!   हमदम    कोई    क़रीब  रहे
सर्द   मौसम    सता   रहा   है   मुझे

शौक़-ए-तन्हाई  फिर  हुआ  दुश्मन
अंजुमन   से    उठा    रहा   है   मुझे

ग़मगुसारो     मुझे    मुआफ़    करो
फिर  नया  ग़म  बुला  रहा  है  मुझे

साक़ि-ए-शीश:बाज़    हंस-हंस   के
उंगलियों   पे   नचा   रहा   है   मुझे

दे   रहा   है    सिला    मुहब्बत  का
वो:   नज़र   से   गिरा  रहा  है  मुझे

हद  है  ज़ाहिद की  अक़्ल  तो  देखो
जाम   पीना   सिखा   रहा  है   मुझे !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सब्ज़  गलियां: सुखी नगर की गलियां, सुख के स्वप्न; शौक़-ए-तन्हाई: एकांतवास का व्यसन; अंजुमन: गोष्ठी, मित्र-समूह;            ग़मगुसारो: ( बहुव.): दुःख में सांत्वना देने वाले; साक़ि-ए-शीश:बाज़: बोतलों को उंगलियों पर नचा कर मद्य परोसने वाला; 
           सिला: प्रतिदान; ज़ाहिद: संयमी, सन्यासी।

शुक्रवार, 24 मई 2013

बोए हैं तुख़्म-ए-ग़म

या   मुझसे    दोस्ती   का    अरमान   छोड़  दे
या  आज  अपनी  आदत-ए-एहसान  छोड़  दे

बोए हैं तुख़्म-ए-ग़म  तो    मिलेगा  वही  तुझे
उम्मीद   की   ये:   बस्ती-ए-वीरान    छोड़  दे

मानी-ए-इश्क़    इस  क़दर  आसां  नहीं  होते
खुलने  दे  ख़ुद-ब-ख़ुद  उन्हें  इमकान  छोड़  दे

ज़ाहिर  हैं  हम  पे  हुस्न  की  सारी  हक़ीक़तें
नादां  वो:  हम  नहीं  के:  जो  ईमान  छोड़  दें

कश्ती   भी   जानती   है   किनारा  क़रीब  है
नादान   अब  तो    ख़ौफ़-ए-तूफ़ान  छोड़  दे

आवाज़    दे   रहा   है    पेशकार    अर्श   से
अब  ऐश-ओ-इशरत  के  सामान  छोड़  दे !

                                                        ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तुख़्म-ए-ग़म: दुःख के बीज; मानी-ए-इश्क़: प्रेम के अर्थ; इमकान: अनुमान; ज़ाहिर: प्रकट;
             ख़ौफ़-ए-तूफ़ान: तूफ़ान का भय; पेशकार: न्यायकर्त्ता के समक्ष प्रस्तुत होने के लिए पुकारने 
             वाला;   अर्श: आकाश; ऐश-ओ-इशरत: भोग-विलास। 

बुधवार, 22 मई 2013

जिस-जिस गली से गुज़रे ...

ये:  शौक़-ए-ख़राबां  है   इस   इश्क़  से  भर  पाए
हंस-हंस  के  न  जी  पाए  रो-रो  के  न  मर  पाए

हाथों   की   लकीरों   में    कोहरे-सी   इबारत   थी
उम्मीद   के   धोखों   में   संभले   न   बिखर  पाए

सूखे   हुए  पत्तों  की  तरह    शाख़   से   बिछड़े  हैं
अब   अपना  मुक़द्दर  तो   शायद  ही  संवर  पाए

ख़्वाबों  के  सफ़र  अक्सर  तनहा  ही  गुज़रते  हैं
इस  राह   पे  साथी  की   उम्मीद   न   कर   पाए

कहते  थे  जिसे  जन्नत  उसकी  ये:  हक़ीक़त  है
जिस-जिस गली  से गुज़रे जलते  हुए  घर  पाए !

                                                                  ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:   शौक़-ए-ख़राबां: बिगड़े हुओं का व्यसन;    इबारत: लेख; हक़ीक़त: यथार्थ ।

मंगलवार, 21 मई 2013

कोई रास्ता न हो !

चाहे  किसी  के  दिल  में  किसी  की  वफ़ा  न  हो
लेकिन   जहां   में   कोई   मरीज़-ए-अना   न  हो

ऐसे     भी     बदनसीब     हुए    हैं    जहान     में
आंखों  में  जिनकी   कोई   कभी   भी  रहा  न  हो

हो   जाएं    आप   दूर   मगर   इस   तरह   न  हों
के:    वापसी   के   वक़्त     कोई   रास्ता   न   हो

वो:   अर्श  पर   रहें   हम   ख़ुश   हैं   ज़मीन   पर
दोनों   दिलों   के   बीच    मगर   फ़ासला   न   हो 

मेरा  ख़ुदा   वो:  शख़्स    तो   हो  ही  नहीं  सकता
जिसकी जबीं पे  लफ़्ज़-ए-मुहब्बत  लिखा  न  हो

मैं    वादी-ए-सीना    तक    आया   हूं   पाऊं-पाऊं
क्यूं   कर   मेरे   नसीब   में   वो:   मोजज़ा  न  हो

दिल     पे     तेरी     इनायतें     मंज़ूर     हैं    मुझे
लेकिन    मेरी    नमाज़    कभी   मुद्द'आ   न   हो !

                                                                     ( 2013 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

सोमवार, 20 मई 2013

ख़ुदा हुआ न हुआ वो:..

हज़ार   बार   निगाहें   मिलीं    करम   न  हुआ
ख़ुदा  हुआ  न  हुआ  वो:  कभी  सनम  न  हुआ

हमारे   हाथ   थी   दुश्मन   की   ज़िंदगी  यूं  तो
किया   इराद:   बार-बार   प'  सितम   न   हुआ

रहे     मरीज़     के     मरीज़     तेरे   पहलू    में
हमें  वो:  अश्क  तेरा आब-ए-ज़मज़म  न  हुआ

छुपा   रहा   जो   दिल   में   हर   मुक़ाम   पे  यूं
वो:   राह-ए-अज़ल   आज   हमक़दम   न  हुआ

मेरी    रिहाई    के    हक़   में   हज़ार   हाथ   उठे
मेरा   ज़मीर   मगर    हामि-ए-रहम   न   हुआ !

                                                                 ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: करम: कृपा; सितम: अत्याचार; आब-ए-ज़मज़म: मक्का शरीफ़ के पवित्र निर्झर का जल; मुक़ाम: विराम-स्थल;                    राह-ए-अज़ल: मृत्यु-मार्ग; हमक़दम: सहयात्री;   ज़मीर: स्वाभिमान; हामि-ए-रहम: दया का समर्थक, दया स्वीकार करने को तैयार।

रविवार, 19 मई 2013

हाथ मसलने का सबब !

इश्क़े-नाहक़  है  मेरे  ख़ाक़   में  मिलने  का  सबब
इक  पतंगे  की  तरह   आग  में  जलने  का  सबब

तू   कहे    या   न   कहे    कौन   न    समझेगा   ये:
तर्क-ए-उल्फ़त   है   तेरे   रंग   बदलने  का   सबब

रात   भर   सो   न   सके   और  ग़ज़ल  भी  न  हुई
मेरी   उलझन   है   तेरे  साथ   टहलने   का   सबब

है   इधर   आतश-ए-ख़ुर्शीद     उधर  सोज़-ए-निहाँ
सराब-ओ-तिश्नगी  है  घर  से  निकलने  का  सबब

ग़र्दिश-ए-माह-ओ-ज़मीं     इन्तहा-ए-इश्क़    हुई
दिन  निकलने  का  सबब  शाम  के  ढलने  का  सबब

वुज़ू   के   जोश   में   जलवे  से  रह  गए  महरूम
अब  बताएं  तो  किसे   हाथ  मसलने  का  सबब !

                                                                      ( 2013 )

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इश्क़े-नाहक़: व्यर्थ, अनुचित प्रेम; सबब: कारण; तर्क-ए-उल्फ़त: प्रेम का परित्याग; आतश-ए-ख़ुर्शीद: सूर्य की अग्नि; सोज़-ए-निहाँ: अंतर्मन में छुपी हुई आग; सराब-ओ-तिश्नगी: मृग-जल और मृग-तृष्णा; ग़र्दिश-ए-माह-ओ-ज़मी: चन्द्र और पृथ्वी का परिभ्रमण;   इन्तहा-ए-इश्क़: प्रेम की अति; वुज़ू: नमाज़ के लिए शरीर को पवित्र  करना; जलवे: ( ईश्वर के ) दर्शन; महरूम: वंचित।

शुक्रवार, 17 मई 2013

ईमान तो न देंगे !

गिरते   हैं   तो   गिर  जाएं  हम  आपकी  नज़र  से
ईमान    तो    न    देंगे    यूं    रंज़िशों   के   डर   से

मिलते  थे  कल  तलक  जो  नज़रें  झुका-झुका  के
मग़रूर   हो   गए   वो:    इकराम    की   ख़बर    से

बे-दिल   हों   सामईं   तो   कहने  से   फ़ायदा  क्या
ख़ामोश   ही   किसी   दिन   उठ   जाएंगे   शहर  से

मिट   ही   गए   जहां   से   औरंगज़ेब -ओ- अकबर
बचता   न   कोई    देखा    लम्हात   के    असर   से

देखेंगे   किस   तरह   से   चलता  है   ज़ौर-ए-ख़ंजर
हम   मुतमईं   हैं   अपने   अल्फ़ाज़   के   असर  से !

                                                                  ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रंज़िश:शत्रुता; मग़रूर: घमंडी; इकराम: पुरस्कार या कृपा पाना; बे-दिल: हृदयहीन; सामई: श्रोता, सामने बैठे लोग; 
              लम्हात: क्षण ( बहुव. );  ज़ौर-ए-ख़ंजर: क्षुरी का बल;मुतमईं: आश्वस्त; अल्फ़ाज़: शब्द (बहुव.)।

गुरुवार, 16 मई 2013

बिकता नहीं हूं मैं !

संग-ए-नज़र  से  आपके  डरता  नहीं  हूं  मैं
टूटूंगा  न  बिखरूंगा  के:  शीशा  नहीं  हूं  मैं

शाने  मिला  के  देख  दिल  की  धड़कनों  से  पूछ
जैसा  समझ  रहा  है  तू  वैसा  नहीं  हूं  मैं

कहता  हूं  दिल  की  बात  मुफ़लिसों  के  दरमियां
शाहों  के  आस-पास  फटकता  नहीं  हूं  मैं

जिन्स-ओ-मता  नहीं  हूं  मैं  इन्सां  हूं  हर्फ़-हर्फ़
बाज़ार  में  यहां-वहां  बिकता  नहीं  हूं  मैं

खाता  हूं  रिज़्क़  सिर्फ़  लहू  की  कमाई  का
टुकड़ों  पे  किसी  ग़ैर  के  ज़िंदा  नहीं  हूं  मैं

बाग़ी  हूं  बदज़ुबान  हूं  शायर  हूं  पीर  हूं
तू  ख़ुद  ही  फ़ैसला  कर  क्या-क्या  नहीं  हूं  मैं

हुब्ब-ए-ख़ुदा  नसीब  न  हो  कोई  ग़म  नहीं
इंसानियत  की  राह  से  भटका  नहीं  हूं  मैं।

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: संग-ए-नज़र: दृष्टि-पाषाण, दृष्टि रूपी पत्थर; शाने  मिला  के: आलिंगन-बद्ध हो कर, गले मिल कर;
         मुफ़लिसों  के  दरमियां: अकिंचनों के मध्य; जिन्स-ओ-मता: वस्तु और सामान; हर्फ़-हर्फ़: अक्षरशः;
         रिज़्क़: भोजन; बाग़ी: विद्रोही;   बदज़ुबान: कटु-भाषी; पीर: ईश्वर और मनुष्य के मध्यस्थ; 
         हुब्ब-ए-ख़ुदा:   ईश्वर का प्रेम/ सामीप्य; नसीब: प्राप्त।

मंगलवार, 14 मई 2013

तेरा दीदार हो जाता

हमें  अपनी  ख़ुदी  से   जो  किसी  दिन   प्यार  हो  जाता
तो  ये:  शौक़-ए-सुख़न  नाहक़  सर-ए-बाज़ार  हो  जाता

उम्मीदों    पे    उम्मीदें    हैं     बहानों     पे     बहाने    हैं
अगर   वादा   वफ़ा   होता   तो  दुश्मन  ख़्वार  हो  जाता

करम   ही   है   तेरा    के:   हमको   दीवाना   बना   डाला
अगर   हम   होश   में   रहते  तो  दिल  बेज़ार  हो  जाता

अगरचे   मौत   से    पहले    तेरा   पैग़ाम    मिल   जाता
तो  इस  दिल  का  संभलना   और  भी   दुश्वार  हो  जाता

ख़ुदा   से   ये:  शिकायत  है   के:  जब  हम  डूबने  को  थे
ज़रा   दामन    पकड़   लेता   तो    बेड़ा   पार   हो   जाता

रहे   जब   आलम-ए-पीरी   में   तुझको  ही   ख़ुदा  माना
न   होता   कुफ़्र   ये:   हमसे  तो  कुछ  आज़ार  हो  जाता

मेरा     अहसास-ए-ख़ुद्दारी     मुझे    रोने    अगर    देता
तो   मेरे   आंसुओं   से   हर   चमन   गुलज़ार   हो  जाता

ज़रा-सा    ग़म    उठा   लेते    ज़रा-सी    जां    बचा  लेते
ज़रा-सा    सब्र    करते    तो     तेरा    दीदार   हो   जाता  !

                                                                    ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  ख़ुदी: आत्म-बोध; शौक़-ए-सुख़न: साहित्यिक प्रवृत्ति; नाहक़: व्यर्थ;  सर-ए-बाज़ार: बिकाऊ वस्तु;
          वफ़ा: सार्थक, पूर्ण; ख़्वार: लज्जित; करम: कृपा;  बेज़ार: व्याकुल; अगरचे: यदि कहीं; पैग़ाम: संदेश;
          दुश्वार: कठिन;  आलम-ए-पीरी: अतीन्द्रियता, ईश्वर से संवाद की स्थिति;   कुफ़्र: पाप; आज़ार: रोग;
         अहसास-ए-ख़ुद्दारी: स्वाभिमान की भावना; गुलज़ार: फूलों से भरपूर; सब्र: धैर्य; दीदार: दर्शन।
          

सोमवार, 13 मई 2013

...यूं तलाफ़ी हुई

इस   सफ़र  में    बड़ा   हादसा   हो   गया
रहनुमां    रास्ते    में    कहीं    खो    गया

सोचते   थे    सुकूं  ले   के    आएगी   शब
चांद    तनहाइयों   की    फसल   बो  गया

अश्क  दिल  में  छुपा  के  मैं  हंसता  रहा
एक    बादल    मेरे   नाम   से   रो    गया

देखते    रह    गए    हम   खड़े    राह    में
यार    दे   के   दग़ा    ये:   गया   वो:  गया

इश्क़    के    जुर्म    से   यूं    तलाफ़ी   हुई
दरिय:-ए-अश्क  दाग़-ए-जिगर  धो  गया !

                                                       ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हादसा: दुर्घटना; रहनुमां: पथ-प्रदर्शक; सुकूं: शांति; शब: रात;   दग़ा: धोखा; तलाफ़ी: दोष-मुक्ति;
          दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की  नदी;   दाग़-ए-जिगर: ह्रदय का दाग़।

रविवार, 12 मई 2013

दिल जलाना पड़ा

तेरे   दर   आ   लगे    सर   झुकाना   पड़ा
बेख़ुदी   में    भी    रिश्ता   निभाना    पड़ा

हमने  मांगा  न  था  दिल   उसी  ने  दिया
ख़्वाह मख़्वाह  एक  अहसां  उठाना  पड़ा

हिज्र   सहने   की   हममें   कहां  ताब  थी
उसकी   ज़िद   थी   हमें   मुस्कुराना  पड़ा

तेरी     रुस्वाई    क्या   देखते    बज़्म   में
बुझ  रही  थी  शम्'अ   दिल  जलाना  पड़ा

पास   था   जब  तलक   रोज़  लुटता  रहा
दर्द-ए-जां   बन  गया  दिल  मिटाना  पड़ा

मैकदे     से     बहुत    दूर    रहते   थे   वो:
सुनके   मेरी   अज़ां    आज   आना   पड़ा !

                                                         ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेख़ुदी:आत्म-विस्मृति, नशा; ख़्वाह मख़्वाह: व्यर्थ में; हिज्र: वियोग; ताब: सामर्थ्य; रुस्वाई: अपमान;
         बज़्म: गोष्ठी; दर्द-ए-जां: प्राणघातक पीड़ा; मैकदा: मदिरालय।

शनिवार, 11 मई 2013

क्या दीवाना करोगे ? !

जो   दिल   में  हमारे    ठिकाना   करोगे
ज़माने   से   कल   क्या   बहाना  करोगे

तुम्हारी   निगाहें    ये:    बतला   रही   हैं
किसी  और  को   कल   निशाना  करोगे

निकल  आओ  बे-पर्द: तो  हर्ज़  क्या  है
शहर   की   फ़िज़ा   को   सुहाना  करोगे

गवारा    नहीं    तुमको    सूरत   हमारी
तो  क्यूं  ख़्वाब  में  आना  जाना  करोगे

लुटाने  को  अब  और  क्या  रह  गया  है
ये:   दिल   है,   इसे   भी   रवाना   करोगे ?

हमारी    ग़ज़ल    पे    तरन्नुम   तुम्हारा
ख़ुदा  की  क़सम,  क्या  दिवाना  करोगे ? !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़िज़ा: वातावरण, मौसम; गवारा: स्वीकार्य; तरन्नुम: मधुर गायन।             

गुरुवार, 9 मई 2013

दिल बहुत ख़ुश है

आग  बरसा  करे  है  अम्बर  से
लोग  निकलें  तो  किस  तरह  घर  से

तश्न: लब  को  ढलूँ  के:  मैकश  को
पूछती  है  शराब  साग़र  से

आज  अफ़सर  के  घर  है  दीवाली
ला  रहा  है  'नियाज़'  दफ़्तर  से

अश्क  दो-चार  दिन  के  मेहमां  थे
चल  पड़े  आज  दीद:-ए-तर  से

ज़ुल्मत-ए-शाह  इक  बहाना  है
है  शिकायत  तो  रूह  परवर  से

कितना  किसमें  नमक  है  तय  कर  लें
अश्क  है  रू-ब-रू  समंदर  से

सारा  क़िस्सा  ही  ख़त्म  कर  डाला
दिल  बहुत  ख़ुश  है  आज  ख़ंजर  से !

                                                ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तश्न: लब: प्यासा; मैकश: शराबी;  साग़र: मदिरा-पात्र; 'नियाज़': 'भेंट-पूजा', रिश्वत;दीद:-ए-तर: भीगी आंखें;
 ज़ुल्मत-ए-शाह: शासक के अत्याचार;  रूह  परवर: जीवनदाता; रू-ब-रू: समक्ष;  ख़ंजर: छुरी।

नई लूट की तैयारी

तेरी    उम्मीद    की    ख़ुमारी    है
आज   की   रात   बहुत   भारी   है

ख़्वाब  तक  में  नज़र  नहीं  आते
क्या  ग़ज़ब  आपकी  दिलदारी  है

उनके   हक़   में   हैं   दुआएं  सारी
अपने   हिस्से    में    बेक़रारी   है

बात   उठने   लगी   है  ग़ुरबा  की
फिर   नई   लूट   की   तैयारी   है

सांप  या  नाग  में  चुनें  किसको
मुल्क   के   सामने    दुश्वारी   है

रू-ब-रू  हों  अगरचे  क़ातिल  के
हमको  अपनी  अना  भी  प्यारी  है

बंदगी    मुफ़्त    में    नहीं   होती
कुछ   हमारी   भी    लेनदारी   है !

                                          ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  ख़ुमारी: उनींदापन; हक़: पक्ष; दुश्वारी: दुविधा; रू-ब-रू: समक्ष; अगरचे: यदि कहीं; अना: अकड़;बंदगी: भक्ति।

बुधवार, 8 मई 2013

... फ़ासला नहीं होता

जो  सनम    बा-वफ़ा    नहीं  होता
वो:   किसी  का   ख़ुदा   नहीं  होता

तू   भी    मेरी  तरह    अगर  होता
तो     कोई    मुद्द'आ     नहीं  होता

तिरे   इनकार  की   वजह  क्या  है
क्यूं    तुझे    हौसला    नहीं   होता

शे'र   कह-कहके   ग़म   मिटाते  हैं
दर्द     यूं    ही     दवा    नहीं   होता

गर   अना    बीच  में    नहीं  आती
हममें    ये:    फ़ासला    नहीं  होता

अपनी-अपनी   पे   बात  आ  जाए
तो     कहीं     रास्ता     नहीं   होता

शुक्र  है,   दिल   अभी   सलामत  है
वरना  उल्फ़त  में  क्या  नहीं  होता !

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

मंगलवार, 7 मई 2013

रख ख़ुदी पे ऐतिमाद

उठ  चुकी   मिट्टी  हमारी   अब  तो  पीछा  छोड़  दे
ऐ  ख़्याल-ए-यार !   इस  दिल  का  दरीचा   छोड़  दे

उन्स  नाजायज़  अगर  हो   तो  कभी  आगे  न  बढ़
ये:  न  कर  लेकिन  के:  जीने  का  सलीका  छोड़  दे

है   इबादत   फ़र्ज़,   ये:   अहसां   नहीं   अल्लाह   पे
मांग  तू  दिल  से  दुआ   फ़िक्र-ए-नतीजा   छोड़  दे

बेवफ़ा    हो    जाए    कोई    तो   हसीं    हैं   बेशुमार
नासमझ  है   एक  की  ख़ातिर  जो  दुनिया  छोड़  दे

गर  ख़ुदा  भी  साथ  ना  दे   रख  ख़ुदी  पे   ऐतिमाद
कोशिशें  कर  तेज़    उम्मीद-ए-करिश्मा    छोड़  दे !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   दरीचा: द्वार की चौखट; उन्स: लगाव; नाजायज़: अनुचित; सलीका: शिष्टाचार; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; अहसां: अनुग्रह; फ़िक्र-ए-नतीजा: परिणाम की चिंता; बेशुमार: अनगिनत; ख़ुदी: आत्म-बोध; ऐतिमाद: पक्का विश्वास;  उम्मीद-ए-करिश्मा: चमत्कार की आशा।

शनिवार, 4 मई 2013

जंग ज़ारी है ख़रीदार की

रोज़   आते   हो    मेरे  घर    नए   किरदार  के   साथ
क्या  ये:  खिलवाड़  नहीं  है  दिल-ए-बीमार  के  साथ

साथ   देना   है  अगर  मेरा  तो  ज़रा  आहिस्ता  चल
मेरा   मीज़ान   तो    बैठे     तेरी    रफ़्तार   के   साथ

तुमको   हक़   है   के:   लौटा   दो   उसे    न  कह   के
पर   सलीक़े   से   पेश  आओ    तलबगार    के  साथ

जो   भी   सस्ता   हो   वही    ला   के    पका  लेते  हैं
जंग   ज़ारी   है    ख़रीदार   की     बाज़ार   के   साथ

तू   ना   शर्मिंदा   है  ना    आइन्दा  भी   कभी  होगा
लोग    सर   फोड़   रहे   हैं    तेरी   दीवार   के   साथ

तख़्त-ए-हिन्दोस्तां  पे  क़ाबिज़  है  बुत  मिट्टी  का
रिश्ते   मज़बूत   कर   रहा   है   गुनहगार   के  साथ

तू   उतर   तो   सही  मैदान  में  फ़ौजें  ले  के  अपनी
हम  भी  मुस्तैद  हैं   ईमान  की   तलवार   के   साथ

कितनी   इज़्ज़त  बढ़ा  रहा  है  आज   तू  बुज़ुर्गों  की
हर   कोई   खेल   रहा   है   तेरी    दस्तार   के   साथ !

                                                                   ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शुक्रवार, 3 मई 2013

ख़ंजर ले आ

तश्न: लब    हूं    साग़र    ले    आ
दो  बूंद    सही   भर  कर  ले  आ

मै  ख़त्म  हुई  अफ़सोस  न  कर
ख़ाली  ख़ुम  को  धो  कर  ले  आ

हर  रिंद   वली  है   महफ़िल  में
दिल  के   दुखड़े    बाहर   ले  आ

बेचें  न  कभी  हम  दिल  अपना
तू  लाख   ज़र-ओ-गौहर  ले  आ

ये: घर भी तुझीको  वक़्फ़  किया
तूफ़ां   ले   आ   सरसर   ले   आ

रख   लेंगे   तुझे   माशूक़   अगर
अपना   ईमां   हम   पर   ले  आ

ऐ चश्म-ए-क़सब  मायूस  न  हो
दिल  हाज़िर  है    ख़ंजर  ले  आ।

                                          ( 2013 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तश्न: लब: प्यासे होंठ; साग़र: मदिरा-पात्र; ख़ुम: मद्य-भांड;  रिंद: मद्य-पान करने वाला; वली: संत, ज्ञानी;   ज़र-ओ-गौहर: सोना और मोती; वक़्फ़: नाम लिखना, अभिन्यास; सरसर: आंधी; माशूक़: प्रिय;  चश्म-ए-क़सब: वधिक की आंख;  मायूस: निराश; ख़ंजर: छुरी। 

गुरुवार, 2 मई 2013

समझाना आसान नहीं

तन्हाई   में    घुट-घुट   के    जीते   जाना   आसान   नहीं
पल-पल    बढ़ती   बेताबी  से    बच  पाना   आसान  नहीं

आए  हो  तो    बैठो  भी    दो-चार  ग़ज़ल   सुन  के  जाना
महफ़िल  से  आदाब  बजा  कर  उठ  जाना  आसान  नहीं

सुबह-दोपहर-शाम-रात-दिन    हिज्र    अगर  बेचैन  करे
टूटे   दिल   को    तस्वीरों   से    बहलाना   आसान   नहीं

वो:   तो   तय   कर   के   बैठे   हैं   हर   इल्ज़ाम  हमें  देंगे
पर  मुन्सिफ़  के  आगे   मुजरिम  ठहराना  आसान  नहीं

आप   भले   ही    मंहगाई   पे    लाख  दलीलें  दें   लेकिन
भूखे    इन्सां   को    बारीक़ी    समझाना    आसान   नहीं

सुब्ह  का  भूला  शाम  तलक  यूँ  वापस  तो  आ  जाता  है
लेकिन  सर  को  ऊंचा  रख  के  घर  आना  आसान  नहीं !

                                                                                ( 2013 )

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आदाब  बजा  कर: औपचारिकता निभा कर;  हिज्र : वियोग; इल्ज़ाम: आरोप; मुन्सिफ़: न्यायकर्त्ता;
        मुजरिम: अपराधी;  दलीलें: तर्क।