तपती , दहकती और झुलसती ख़लाओं में
हम ढूंढ़ते हैं आप को अपनी वफ़ाओं में
वो: मस्जिदें कहाँ के: जहाँ पे ख़ुदा मिले
नासेह असर नहीं है तुम्हारी सदाओं में
होंगे वो: ख़ुशनसीब जो जाते हैं मदीने
वो: रू-ब-रू हैं हमसे मोमिनों के गांवों में
चलते ही जा रहे हैं तेरी राहगुज़र पे
दिल में थकन नहीं है प' जुम्बिश है पांवों में
बजती है कहीं दूर कन्हैया की बांसुरी
ख़ुश्बू-सी आ रही है मचलती हवाओं में
ऐ रूह-ए-गुनहगार, ज़रा आइना तो देख
क्या-क्या न लुट चुका है बुतों की अदाओं में।
(2007)
- सुरेश स्वप्निल
हम ढूंढ़ते हैं आप को अपनी वफ़ाओं में
वो: मस्जिदें कहाँ के: जहाँ पे ख़ुदा मिले
नासेह असर नहीं है तुम्हारी सदाओं में
होंगे वो: ख़ुशनसीब जो जाते हैं मदीने
वो: रू-ब-रू हैं हमसे मोमिनों के गांवों में
चलते ही जा रहे हैं तेरी राहगुज़र पे
दिल में थकन नहीं है प' जुम्बिश है पांवों में
बजती है कहीं दूर कन्हैया की बांसुरी
ख़ुश्बू-सी आ रही है मचलती हवाओं में
ऐ रूह-ए-गुनहगार, ज़रा आइना तो देख
क्या-क्या न लुट चुका है बुतों की अदाओं में।
(2007)
- सुरेश स्वप्निल